26 जुलाई को अफ्रीका का एक और देश तख्तापलट का शिकार हो गया। नाइजर के राष्ट्रपति मोहम्मद बाजौम को उनके ही गार्डों ने बंधक बनाकर इस तख्तापलट को अंजाम दिया। तख्तापलट के पश्चात राष्ट्रपति गार्ड बलों ने देश की सीमाओं को बंद कर दिया है। सभी राजकीय संस्थायें निलम्बित कर कर्फ्यू लगा दिया गया। राष्ट्रपति गार्ड बलों के कमांडर जनरल एबडोरहमने चिआनी ने खुद को नये सैन्य शासन का मुखिया घोषित किया है।
नाइजर 1960 में फ्रांस से आजाद होने के बाद पांचवें सैन्य तख्तापलट से गुजर रहा है। अंतिम तख्तापलट 2010 में हुआ था। इसके अलावा समय-समय पर कई असफल तख्तापलट के प्रयास यहां हो चुके हैं जिनमें अंतिम प्रयास 2021 में हुआ था जब सेना की एक टुकड़ी ने राष्ट्रपति भवन को 2 दिनों तक बंधक बना लिया था। यह प्रयास मौजूदा राष्ट्रपति मोहम्मद बाजौम के सत्तासीन होने के दो दिन पूर्व हुआ था। गौरतलब है कि नाइजर के पड़ोसी देशों गुइना, माली, सूडान में 2021 में व बुर्किना फासो में 2022 में ऐसे ही तख्तापलट हो चुके हैं। नाइजर अफ्रीका का बेहद गरीब देश है। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में वह सबसे नीचे के देशों में शामिल है। इसके साथ ही इस्लामिक आतंकी संगठनों जो अल कायदा, इस्लामिक स्टेट व बोको हरम से सम्बद्ध हैं, द्वारा लगातार जारी जंग का भी नाइजर अपने पड़ोसी देशों के साथ शिकार है। इन इस्लामिक कट्टरपंथी संगठनों से निपटने के नाम पर अमेरिकी व फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों ने यहां अपने सैन्य बेस बना रखे हैं जो यहां की सेना को ट्रेनिंग देने का काम भी करते रहे हैं।
2022 में जब बुर्किना फासो व माली से फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों को बाहर कर दिया गया तो नाइजर आतंकवाद विरोधी फ्रांसीसी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। राष्ट्रपति मोहम्मद बाजौम अफ्रीका में पश्चिमी साम्राज्यवादियों के कुछेक बचे-खुचे अनुयाईयों में से एक थे। नाइजर पश्चिमी साम्राज्यवादियों का इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण साझीदार बचा था।
नाइजर देश में बड़ा इलाका रेगिस्तान का है। गैर रेगिस्तानी इलाके कई सूखों के चलते प्रभावित हुए हैं। यहां की अर्थव्यवस्था कृषि व कच्चे मालों खासकर यूरेनियम अयस्क के निर्यात पर टिकी है। इसके अलावा इसके सालाना बजट का एक बड़ा हिस्सा विदेशी सहायता से आता है। विदेशी सहायता देने वालों में आई एम एफ, विश्व बैंक के अलावा संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियां, फ्रांस, अमेरिका व यूरोपीय संघ रहे हैं। 26 जुलाई को जब राष्ट्रपति के सुरक्षा बलों ने राष्ट्रपति को बंधक बनाया तब सरकार को लगा था कि सेना ईमानदार रहेगी और राष्ट्रपति के सुरक्षा बलों पर हमला बोलेगी। बंधक बनने के बाद दिये शुरूआती संदेश में राष्ट्रपति बाजौम ने इसका संकेत भी किया था। पर दो दिन के भीतर ही सेना की ओर से स्पष्ट कर दिया गया कि वो तख्तापलट के साथ खड़ी है हालांकि ऐसा उसने खून खराबे में देश को जाने से बचाने हेतु बताया।
इस तरह आजादी के बाद सैन्य व सिविल शासन के बीच झूलते नाइजर में एक बार फिर सैन्य शासन की वापसी हो गई है। जिस तरह से अमेरिका, फ्रांस समेत तमाम पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों ने इस तख्तापलट का विरोध किया है उससे स्पष्ट है कि यह तख्तापलट पश्चिमी साम्राज्यवादियों के इस इलाके में हितों को प्रभावित कर सकता है। तख्तापलट का विरोध पड़ोसी नाइजीरिया के राष्ट्रपति, संयुक्त राष्ट्र ने भी किया है। रूस ने यद्यपि औपचारिक तौर पर तख्तापलट का विरोध किया है पर रूसी निजी सेना वैगनर ग्रुप जो नाइजर के पड़ोसी देश माली में सक्रिय है, ने तख्तापलट का समर्थन करते हुए इसे नाइजर की उपनिवेशवादियों से जंग का हिस्सा करार दिया है।
नाइजर की जनता इस वक्त पश्चिमी साम्राज्यवादियों खासकर अमेरिका, फ्रांस, इस्लामिक कट्टरपंथियों व सैन्य बलों की तिकड़ी के बीच पिसती जा रही है। तख्तापलट के बाद इसके समर्थन व विरोध दोनों में प्रदर्शन शुरू हो गये हैं।
नाइजर की अर्थव्यवस्था को साम्राज्यवादी हस्तक्षेप व देशी सैन्य-असैन्य शासकों-पूंजीपतियों ने कभी भी बेहतर स्थिति में नहीं आने दिया। यह लम्बे समय से अगर किसी विदेशी मदद पर निर्भर रहा है तो इसमें साम्राज्यवादी लूट व देशी शासकों के भ्रष्टाचार की महत्वपूर्ण भूमिका है। नाइजर के विभिन्न सैन्य बल भी एकजुट होने की जगह अपने-अपने हितों में सक्रिय रहे हैं। इन सबकी परस्पर कशमकश में नाइजर की गरीब जनता पिस रही है। यहां करीब 33 लाख लोग भुखमरी का शिकार हैं।
नाइजर में सैन्य तख्ता पलट
राष्ट्रीय
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
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7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को