
नैतिकता और पाखंड साथ-साथ चलते हैं। जहां नैतिकता होगी वहां पाखंड भी होगा। अक्सर ही जो जितना नैतिकतावादी होता है वह उतना ही पाखंडी भी होता है। इसकी सीधी वजह यह है शोषण-उत्पीड़न वाले समाज में नैतिकता की बातें दूसरों को धोखा देने का सबसे अच्छा साधन बन जाती हैं और धूर्त लोग इसका खूब इस्तेमाल करते हैं। वे नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और उसकी जड़ में एक से एक कुकर्म करते हैं। इसी को आम भाषा में पाखंड कहा जाता है।
भारतीय समाज में हिन्दू फासीवादी पाखंड के मामले में सिरमौर हैं। वे निजी जीवन से लेकर सामाजिक और राजनीतिक जीवन सब जगह लगातार नैतिकता की बात करते हैं। अगर उनकी बातों को सुना जाये तो उनके जैसी पवित्र आत्मा समूची धरती पर नहीं होगी। पर वास्तविक जीवन में वे आम लोगों से भी ज्यादा अनैतिक होते हैं।
आज कई भले लोगों को यह देखकर आश्चर्य होता है कि साइबर दुनिया में सबसे ज्यादा गाली-गलौच करने वाले लोग ‘संस्कारी’ यानी हिन्दू फासीवादी विचारों के दायरे के लोग होते हैं। मां-बहन की गालियां देने वाले तथा बात-बात पर बलात्कार की धमकी देने वाले लोग ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते’ वाले ही होते हैं।
लेकिन भले लोगों को इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए। आज दो अपराधी देश की शीर्ष सत्ता पर काबिज हैं और वे दिन-रात बाकियों को शुचिता का पाठ पढ़ा रहे हैं। देश के बड़े पूंजीपतियों की कृपा से विराजमान व्यक्ति स्वयं को गरीबों के हितैषी के रूप में पेश करता है। शानो-शौकत की इंतहा में रहने वाला व्यक्ति खुद को फकीर बताता है। लड़कियों का पीछा करवाने वाला व्यक्ति ‘बेटी बचाओ’ का नारा देता है। अपनी डिग्री की असलियत छिपाने का हर संभव जतन करने वाला व्यक्ति बच्चों को परीक्षा पास करने के गुर बताता है।
इसके जैसे व्यक्ति और उनके अनुयाई नैतिकता और पाखंड के मामले में एक ही जमीन पर हैं। दोनों के लिए पाखंड एकदम सामान्य बात है। यह जिन्दगी की जरूरत है। पाखण्ड करने में इन्हें कोई दिक्कत महसूस नहीं होती।
यदि भारतीय समाज में पाखण्ड इतने बड़े पैमाने पर है तो इसकी जड़ें इसके इतिहास में हैं। वर्ण-जाति व्यवस्था में बंटे हुए समाज में पाखण्ड एक तरह से सामाजिक जरूरत बन जाती थी।
जैसा कि पहले कहा गया है शोषण और अन्याय-अत्याचार वाले समाज में नैतिकता की बातें इन्हें ढंकने के काम आती हैं। पर यदि शोषितों को समाज का हिस्सा न माना जाये (जैसे कि गुलामों को नहीं माना जाता था) तो इसकी जरूरत कम हो जाती है। लेकिन भारतीय समाज में तो शोषित भी समाज के हिस्से थे। ऐसे में इसकी जरूरत होती ही थी।
भारत की वर्ण-जाति व्यवस्था के नियम-कानून बनाने का काम ब्राह्मणों ने किया और उसको लागू करने की जिम्मेदारी क्षत्रियों यानी राजाओं-महाराजाओं पर डाली गयी। और ये दोनों ही पाखंड के मामले में सबसे आगे रहे। इसको जायज ठहराने के लिए उन्होंने ‘आपद धर्म’ का रास्ता भी निकाल लिया यानी विशेष स्थितियों में कुछ भी किया जा सकता था।
आधुनिक काल में, जहां पैसा ही सारी नैतिकताओं का आधार बन जाता है, इस पाखंडी संस्कृति से मुक्ति पाई जा सकती थी। पर भारत में पूंजीवाद का जिस तरह विकास हुआ उसमें पैसे की निर्मम संस्कृति तो पैठ गई पर पुरानी पाखंडी संस्कृति गई नहीं। इस तरह दोनों का और भी बदबूदार मिश्रण तैयार हो गया।
हिन्दू फासीवादी स्वयं को भारतीय संस्कृति का झंडाबरदार घोषित करते हैं। और कुछ हो या न हो, वे वर्ण-जाति व्यवस्था तथा उससे जुड़ी पाखंडी संस्कृति के झंडाबरदार जरूर हैं। यह उनकी नस-नस में है। इसके बिना वे एक कदम नहीं चल सकते।
कुछ लोगों को लग सकता है कि हिन्दू फासीवादियों का पाखंडी व्यवहार महज रणकौशल है। वे अपने प्रभाव का विस्तार करने के लिए हर संभव हथकण्डे अपनाते हैं। जैसा कि हर राजनीतिज्ञ करता है। दोहरापन या दोमुंहापन पूंजीवादी नेताओं का आम चरित्र होता है। उनकी आम जरूरत होती है। पर हिन्दू फासीवादियों का मामला आम पूंजीवादी नेताओं से अलग है। वे अपनी राजनीतिक पैदाइश और शिक्षण-प्रशिक्षण में ही पाखंडी संस्कृति से सराबोर होते हैं जिसे खाद-पानी उस पुरानी वर्ण-जाति व्यवस्था वाली संस्कृति से मिलती है जिसके वे इतने कट्टर आग्रही हैं। वे आदतन झूठे और मक्कार होते हैं। इसलिए वे बिना पलक झपकाए कुछ भी बोल सकते हैं। फिर उसका उलटा कर सकते हैं।