रहस्य के अंदर पहेली

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पिछले कुछ सालों से भारत में चुनाव के परिणाम अबूझ पहेली बनते गये हैं। इनकी रहस्यमयता बढ़ती गयी है। सारे चुनावी पंडित अपना माथा खुजलाकर ही नहीं बल्कि सिर के बाल नोंचकर भी चुनाव परिणामों की पहेली नहीं बुझा पाते। पिछले साल भर से तो यह और बड़े पैमाने पर होने लगा है। पहले मध्य प्रदेश, फिर हरियाणा और अब महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम किसी को भी नहीं समझ में आ रहे हैं। 
    
पर सारा मामला कितना ज्यादा रहस्यमय या अबूझ पहेली बन गया है वह इससे समझ में आता है कि स्वयं भाजपा के स्थानीय नेताओं के लिए भी परिणाम अप्रत्याशित होता है। भाजपा समर्थक पूंजीवादी प्रचारतंत्र भी न तो इन अप्रत्याशित परिणामों की भविष्यवाणी करता है और न ही इसके लिए तैयार होता है। वह भी बाकियों की तरह इसे ‘पोस्ट फैक्टो’ जायज ठहराने का प्रयास करता है। 
    
जब चुनाव परिणाम पक्ष-विपक्ष दोनों के लिए हैरतअंगेज होने लगें तो उन पर संदेह होना लाजिमी है। जब चुनाव परिणाम जमीनी स्तर पर लोगों की भावनाओं के विपरीत नजर आने लगें तो उन पर संदेह होना लाजिमी है। जब लोगों की भयंकर नाराजगी झेल रही सरकार और भी बड़े बहुमत से सत्ता में वापस आ जाये तो उस पर संदेह होना लाजिमी है। जब चुनावी सभाओं में कुर्सियां और पंडाल खाली नजर आयें लेकिन तब भी मत प्रतिशत बढ़ जाये तो संदेह होना लाजिमी है। 
    
आज पूंजीवादी लोकतंत्र केवल समय-समय पर होने वाले ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनावों तक सीमित हो गया है। बल्कि स्वयं इस लोकतंत्र के पैरोकारों ने ही इसे इसी तक सीमित कर दिया है। ऐसे में जब चुनाव परिणाम ही संदिग्ध हो जायें तो लोकतंत्र ही संदिग्ध हो जाता है। तब पूंजीवादी लोकतंत्र में कुछ नहीं बच जाता। 
    
संदेह के इस वातावरण को और भी सघन करने वाले कारण हैं। पुलिस-प्रशासन और चुनाव अधिकारियों का व्यवहार बहुत नंगे रूप में भाजपा के पक्ष में हो गया है। ऐसे में जब पता चलता है कि स्वयं चुनाव आयोग द्वारा जारी मतों के आंकड़े आपस में तालमेल नहीं दिखाते तो लोग ‘संदेह का लाभ’ नहीं दे पाते। जब शाम तक हुए मतदान और मतदान के अंतिम आंकड़ों में पांच-सात प्रतिशत का फर्क हो तो लोगों का संदेह और बढ़ जाता है। जब चुनावी मशीनों की बैटरी का चार्ज लगभग सौ प्रतिशत दिखे तो लोग अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर पाते। इसी तरह लोग यह बात नहीं हजम कर पाते कि सारी गड़बड़ चुनावी मशीनें हमेशा भाजपा के पक्ष में गड़बड़ करती हैं। 
    
पिछले लंबे समय से इन सबकी चर्चा आम हो चुकी है। इस चर्चा में मतदाता सूची से मुसलमान मतदाताओं के नाम गायब होने तथा मुसलमानों को पुलिस द्वारा मतदान करने से रोकने की खबरें भी शामिल हैं। वर्तमान व्यवस्था में हद तक विश्वास करने वाले कुछ लोगों ने इन सबको लेकर अदालतों का भी रुख किया पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। 
    
भारत में चुनावों पर इन संदेहों को लेकर विपक्षी पूंजीवादी पार्टियों की गति सांप-छछूंदर की हो गयी है। वे न तो खुलकर चुनावों को नकार पाते हैं और न स्वीकार कर पाते हैं। नकारने का मतलब उन्हें चुनाव बहिष्कार तक जाना होगा। जिसके लिए वे तैयार नहीं हैं। दूसरी ओर स्वीकार कर वे लगातार हो रही अपनी हार को वैधता भी नहीं प्रदान कर पाते। जैसा कि ऐसे में होता है, उनकी हालत बद से बदतर होती जा रही है। 
    
उदारवादी और वाम-उदारवादी चुनावों की गिरती साख को लेकर चिंतित हैं। वे लोकतंत्र बचाने की मुहिम में स्वयं अपनी साख खो रहे हैं क्योंकि विपक्षियों की तरह वे भी नहीं तय कर पा रहे हैं कि चुनाव परिणामों को नकारा जाये या स्वीकार किया जाये। हिन्दू फासीवादियों द्वारा चुनावों को संदिग्ध बनाना और विपक्षियों द्वारा इसके सामने इस तरह निरीह हो जाना इस बात का संकेत है कि पूंजीवादी लोकतंत्र अपनी मौत की तरफ बढ़ रहा है।  

आलेख

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इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं। 

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कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है। 

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।