(17 नवम्बर, 2024 को वाराणसी में हुए का. नगेन्द्र स्मृति वार्षिक सेमिनार में प्रस्तुत) (अंश)
मौजूदा दौर में मीडिया की स्थिति बेहद गंभीर है। धार्मिक पाखंड, अंधविश्वास और कर्मकांड के प्रचार-प्रसार और महिमामंडन के मामले में तो मुख्य धारा की मीडिया ने समाज को कबीर के जमाने से भी पीछे धकेल दिया है। 500 साल पहले के कबीर यदि आज होते और उसी मुखर तरीके से धार्मिक पाखंड का विरोध करते तो वह भी हिन्दू विरोधी और देश विरोधी घोषित कर दिए जाते।
कबीर ने तब कहा था-
‘हिन्दू कहे मोही राम प्यारा, तुर्क कहे रहमाना
आपस में दोऊ लड़ी लड़ी मरे, मरम न कोऊ जाना’।
इसी तरह कबीर ने कहा था-
‘जिंदा बाप कोई न पूजे, मरे बाद पुजवाया,
मुट्ठी भर चावल ले के, कौवे को बाप बनाया।’
उस सामंती जमाने में जब ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी बेहद पिछड़ी हुई थी। तब कबीर समाज में व्याप्त धार्मिक पाखंड, कुरीतियों और आपसी धार्मिक झगड़ों के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। मगर आज विज्ञान और तकनीकी के बेहद उन्नत दौर में मीडिया बिल्कुल उलटी दिशा पकड़े हुए है।
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मीडिया जनजागरण, स्वतंत्रता, समानता के लिए जनता को उद्वेलित, शिक्षित या जागरुक करने का माध्यम भी बन सकता है। इसके उलट भी हो सकता है कि यह शासक वर्ग द्वारा यथास्थिति बनाए रखने या समाज को बर्बर तानाशाही की अवस्था में धकेलने का जरिया भी बन सकता है। जर्मनी के एकाधिकारी साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग द्वारा हिटलर और नाजी गैंग के जरिए समाज को बर्बरता की स्थिति में धकेलने के लिए अफवाह, झूठ और अर्धसत्य पर आधारित अंधाधुंध फासीवादी प्रचार इसका उदाहरण है।
पूंजीपति वर्ग का ये भिन्न रुख उसकी तात्कालिक और दूरगामी जरूरत पर निर्भर करता है। एक जमाना था जब 17वीं-18वीं सदी में यूरोप में पूंजीपति वर्ग समाज की मुख्य आर्थिक शक्ति बन रहा था तब यह प्रिंट मीडिया के जरिए भी सामंतवाद के खिलाफ आम जनता को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के नारे के साथ ही धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में अपने पीछे गोलबंद करता हुआ प्रचार कर रहा था। मगर क्रांति के जरिए सत्तासीन होने के कुछ वक्त बाद ही उसका यह रुख बदलता चला गया। यह मजदूर वर्ग के अधिकारों का घोर विरोधी था।
एकाधिकारी पूंजीवाद यानी साम्राज्यवाद के जमाने में पूंजीपति वर्ग के घोर जनविरोधी चरित्र की अभिव्यक्ति मीडिया में भी हुई। बीसवीं सदी में मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी संघर्षों और समाजवादी क्रांतियों के साथ ही दुनिया में उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के चलते साम्राज्यवाद को पीछे हटना पड़ा। कुछ देशों में समाजवाद कायम हो गया जबकि कई देश औपनिवेशिक दासता से मुक्त होकर पूंजीवादी राज्य की ओर बढ़े। पूंजीपति वर्ग ने प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल अपने वैचारिक और राजनीतिक वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किया। इसकी मीडिया ने पूंजीपति वर्ग की जरूरत के अनुरूप जहां उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के वक्त एक हद तक जनवाद, तर्क और धर्म निरपेक्षता के पक्ष में प्रचार किया, वहीं सत्तासीन होने के बाद पूंजीपति वर्ग व मीडिया का रुख इससे पल्ला झाड़ने का रहा।
समाजवादी देशों में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद साम्राज्यवाद फिर से हावी हुआ। इसने एक वक्त तक समाजवाद के खिलाफ भयानक कुत्सा प्रचार करने के बाद ‘इतिहास का अंत’ और ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ जैसी फर्जी अतार्किक, अवैज्ञानिक और सांप्रदायिक अवधारणाओं को स्थापित करने के लिए दिन-रात प्रचार माध्यमों में अभियान चलाया। इन अवधारणाओं पर जनमानस को खड़ा करने का घृणित काम किया। यह अभियान मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी विरासत और मानवता के मुक्तिकामी विचार और दर्शन पर हमला था।
वर्तमान दौर में दुनिया भर में भीषण आर्थिक और सामाजिक संकट की स्थिति में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी मीडिया घोर प्रतिक्रियावादी विचारों का अंधाधुंध प्रचार कर रहा है। एकाधिकारी पूंजी द्वारा संचालित मीडिया दक्षिणपंथी और फासीवादी विचारों और मुद्दों के इर्द-गिर्द समाज का तीखा धु्रवीकरण कर रहा है। यही स्थिति अधिकांश देशों की है। भारत में एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग का यह मीडिया जिसे कुछ लोग ‘गोदी मीडिया’ कहते हैं, भी इसी मुहिम में डटा हुआ है।
यदि मीडिया के स्वरूप की बात की जाय तो इसमें बीते दो-तीन शताब्दियों में व्यापक परिवर्तन आ चुका है। प्रिन्ट मीडिया से शुरू होकर यह रेडियो प्रसारण से होते हुए और फिर टेलीविजन से गुजरकर डिजिटल मीडिया के विविध रूप के दौर में प्रवेश कर चुका है। इसका विस्तार और प्रभाव का दायरा बढ़ता चला गया है। इसके स्वरूप में व्यापक बदलाव आने के बावजूद मीडिया का चरित्र शासक वर्ग द्वारा बहुसंख्यक जनता पर वैचारिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व कायम करने और इसे बनाए रखने का ही है। यह ब्रिटिश भारत के दौर से लेकर आज तक का सच है।
जब देश पर ब्रिटिश पूंजीवादी हुक्मरानों का कब्जा था तब सारे ही संसाधनों पर उनका ही कब्जा था। शासन-प्रशासन, पुलिस, फौज सभी कुछ उन्हीं के नियंत्रण में था। मीडिया पर उनका नियंत्रण स्वाभाविक था। यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा संचालित मीडिया अपनी सत्ता के खिलाफ आलोचना को बर्दाश्त नहीं करता था। यह गुलाम मानसिकता का निर्माण करता था। आजादी के बाद कायम पूंजीवादी लोकतंत्र में भी मीडिया निष्पक्ष नहीं हो सकता था। इसे अब नए आजाद पूंजीवादी शासकों की जरूरतों के हिसाब से जनमत का निर्माण करना था। जो इसने किया भी। इसे मौजूदा दौर में ‘गोदी मीडिया’ कहना इसके असली चरित्र पर पर्दा डालना है। यह आज के लंपट पतित, एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग द्वारा संचालित मीडिया है।
आम तौर पर इसने समाज में जनता से जुड़े सामाजिक आर्थिक मुद्दों के बजाय साम्प्रदायीकरण, कूपमंडूकता, धार्मिक पोंगापंथ और अंधविश्वास, अंधराष्ट्रवाद परोसने तथा टी आर पी के लिए संवेदना को ताक पर रख देने का काम तो कांग्रेस की यू पी ए गठबंधन वाली सरकार के जमाने से ही कर दिया था। मोदी काल में तो अखबार, टी वी चैनल से लेकर डिजिटल मीडिया हर जगह अंधराष्ट्रवाद, मुस्लिम विरोध और इस्लामोफोबिया, सैन्य महिमामंडन, धार्मिक पोंगापंथ से लेकर झूठ, फर्जी तथ्यों आदि के जरिए साम्प्रदायीकरण या फासीवादीकरण की मुहिम चल पड़ी है।
एक जमाना यह है जहां मुख्य धारा की मीडिया फासीवादी आंदोलन को निरंतर आगे बढ़ाने के मकसद से धार्मिक कूपमंडूकता, हर तरह से मुसलमानों के खिलाफ नफरत व घृणा फैला रहा है; सरकार के आलोचकों को देश विरोधी साबित करने की मुहिम चला रहा है। एक जमाना वह था जब भारत अभी ब्रिटिश साम्राज्यवाद का गुलाम था। तब ब्रिटिश सरकार की आलोचना, आजादी के लिए संघर्ष और जन जागरण की मुहिम राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष में लगे संगठनों और बुद्धिजीवियों द्वारा संचालित मीडिया चला रहा था। सामाजिक असमानता, जातिवाद, धार्मिक कुरीतियों और कूपमंडूकता के खिलाफ भारतीय समाज के जनजागरण के लिए समाज सुधारक पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों का प्रकाशन व संचालन कर रहे थे।
मौजूदा दौर में मुख्य धारा का मीडिया समाज को तबाही-बर्बादी की ओर धकेलते हुए इतिहास की गति को पीछे की ओर धकेलने के अभियान में लगा हुआ है। अब तक की समस्त सामाजिक-राजनीतिक प्रगति को यह बर्बर स्थिति में पहुंचा देने को अग्रसर है। यह मजदूर वर्ग समेत आम नागरिकों में जनवादी संवैधानिक अधिकारों के बोध और चेतना को कुंद कर रहा है। दिन-रात इन्हें हिंसक उन्मादी भीड़ में बदल देने की मुहिम चला रहा है।
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भारतीय पूंजीपति और जमींदार वर्ग जब आजादी के बाद सत्ता हस्तांतरण के जरिए शासक बन गए तो मजदूर वर्ग के प्रति इनकी मीडिया की उपेक्षा और विरोध का रुख ज्यादा साफ हो गया। कुछ सालों में ही जिस तरह अर्थव्यस्था में पूंजी का केन्द्रीकरण मुट्ठी भर पूंजीवादी घरानों की ओर हो रहा था उसी तरह मीडिया में भी इनका शिकंजा बढ़ रहा था। एकाधिकारी पूंजीवादी घरानों द्वारा संचालित मीडिया अब अंधराष्ट्रवाद का तत्व अपने भीतर समेट चुका था। मजदूर वर्ग तो इसका स्वाभाविक विरोधी वर्ग था जिसके लिए मीडिया में कोई जगह नहीं थी। ......
इंदिरा गांधी के संवैधानिक आपातकाल के दौर में तो इनमें से अधिकांश अखबार तानाशाही के समर्थक बन बैठे। इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समैन को छोड़ दें तो टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, अमृत बाजार पत्रिका और द हिन्दू सरकार समर्थक साबित हुए। आम नागरिकों के राजनीतिक और नागरिक अधिकारों को छीन लेने के ये समर्थक बन बैठे। दूरदर्शन और रेडियो पर तो सरकार का सीधे नियंत्रण ही था। यहां से तो विरोध का कोई सवाल ही नहीं था।
1980-90 के दशक से जब शासक निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की ओर कदम बढ़ा रहे थे तभी अखबार, टेलीविजन के जरिए मीडिया धार्मिक कट्टरता, धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास को बढ़ावा देने लगा। पौराणिक धार्मिक रचनाओं को इतिहास के रूप में नाटक के जरिए प्रसारित किया जाने लगा। इस मीडिया का एक हिस्सा सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने का जरिया बन गया। इस दौर में आडवाणी की सांप्रदायिक रथ यात्रा को जमकर मीडिया में कवरेज मिली।
1990 के दशक में निजी टेलीविजन चैनलों और इंटरनेट की शुरुआत के साथ ही मीडिया में धार्मिक मान्यताओं और अंधविश्वास के साथ ही सामंती मूल्य-मान्यताओं पर आधारित वैचारिक मान्यताएं मीडिया पर छाने लगीं। चमत्कारिक स्थल व संत या बाबा होने के दावे वाले कार्यक्रम प्रसारित होने लगे। ......
इस सबके बावजूद इस मीडिया में कुछ हद तक जनता की समस्याओं से जुड़ी बातें कभी-कभार कम या ज्यादा जगह पा जाती थीं। आर्थिक सामाजिक असमानता से जुड़े विविध मामले खबर बन जाते थे। इसने अभी खुलेआम सरकार की आलोचना करने वाले और इससे असहमति जताने वालों को आम तौर पर देशविरोधी घोषित नहीं किया था। इसमें कुछ हद तक सरकार, इसके मंत्रियों और प्रधानमंत्री की आलोचना हो जाती थी। तर्क और तथ्य आधारित वस्तुगत रिपोर्टिंग को इसने पूरी तरह खारिज नहीं किया था। कुछ हद तक यह जवाबदेह और जिम्मेदार भी था।
मगर साल 2012 के बाद एकाधिकारी पूंजी ने हिंदू फासीवादियों से गठजोड़ करते हुए अपने मीडिया को नरेंद्र मोदी को सत्ता में लाने के लिए गुजरात माडल और अच्छे दिन के ख्वाब का दिन-रात अंधाधुध प्रचार किया। आम जनता के बीच इसने मोदी की एक ऐसे जादूगर के रूप में छवि निर्मित की जो उनकी सारी समस्याओं को छू मंतर कर देगा। वास्तव में अब अपने संकट का सारा बोझ मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता पर लादने और जनसंघर्षों को ध्वस्त करने के लिए एकाधिकारी पूंजी फासीवादी रास्ते की ओर बढ़ गयी।
गुजरात में सालों-साल परखने के बाद 2014 में मोदी की अगुवाई में हिंदू फासीवादियों को सत्तासीन करने में इस मुख्य धारा की मीडिया ने हर तरह से भूमिका निभाई। इनके सत्तासीन होने के बाद कुछ साल में ही स्थिति बिल्कुल ही बदल गई। पत्रकारिता की सारी नैतिकता तिरोहित हो गई। मीडिया दिन-रात मोदी धुन में जनता को नचाने लगा। इस मीडिया के जरिए एक ओर नागरिक हिंसक भीड़ और लाभार्थी में तब्दील होने लगे तो दूसरी तरफ खुद मीडिया फासीवादी प्रचार मंडली में तब्दील होते चली गई।
मीडिया की वस्तुगत स्थिति से मामला ज्यादा साफ हो जाता है। इस मीडिया में दस मीडिया मालिकों का पूंजीवादी राजनीति के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध है। इनमें से कुछ तो सीधे राजनीतिक तौर पर पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके उदाहरण डा. सुभाष चंद्रा, राजीव चंद्रशेखर, बैजयंत जय पांडा, महेंद्र मोहन गुप्ता और रिंकी भूयन शर्मा आदि हैं। जी न्यूज के मालिक रहे सुभाष चंद्रा भाजपा के सहयोग से हरियाणा से राज्य सभा के सदस्य बने। रिपब्लिक टी वी के राजीव चंद्रशेखर भाजपा के सदस्य हैं राज्यसभा के सदस्य भी। राजीव चंद्रशेखर का व्यवसाय परिवहन से प्रौद्योगिकी तक और लाजिस्टिकल सर्विस से हास्पिटेलिटी एवं इंटरटेनमेंट तक फैला हुआ है। इनकी जुपिटर कैपिटल प्राइवेट लिमिटेड मलयालम में एशियानेट न्यूज और कन्नड में सुवर्णा न्यूज कहलाती है। बैजयंत पांडा भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता रहे हैं।
इसी तरह हिन्दी अखबार दैनिक जागरण जो लंबे समय से ही इस साम्प्रदायीकरण और धार्मिक पोंगापंथ को समर्पित है, इसके मालिक महेंद्र मोहन गुप्ता और उनके भाई नरेंद्र मोहन गुप्ता राजनीति में सक्रिय हैं। महेंद्र मोहन गुप्ता समाजवादी पार्टी से राज्य सभा सांसद रहे तो नरेंद्र मोहन गुप्ता भी भाजपा की ओर से राज्य सभा सांसद रहे। असम के मुख्य मंत्री जो हर वक्त मुसलमानों के खिलाफ जहर और नफरत उगलते हैं, उनकी पत्नी रिंकी भूयन सरमा असम में प्राइड ईस्ट इंटरटेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड की चेयरपर्सन और प्रबंध निदेशक हैं। यह प्राइवेट इंटरटेनमेंट पूर्वोत्तर भारत में 2 न्यूज चैनल- न्यूज लाइव और नार्थ ईस्ट लाइव, तीन मनोरंजन चैनल- रामधेनु, रंग और इंद्रधनु तथा एक आसामी अखबार नियमिया बरता चलाती है।
मीडिया में भी एकाधिकार कायम हो जाने की जहां तक बात है यह आज की बात नहीं है। 1954 में पहले प्रेस आयोग ने भारतीय मीडिया में स्वामित्व की संरचना पर चिंता व्यक्त की थी। 1960 के आंकड़ों के हिसाब से 10 बड़े औद्योगिक घरानों का दैनिक अखबार के कुल प्रसार के 40 प्रतिशत हिस्से पर नियंत्रण हो चुका था। 1982 में दूसरे प्रेस आयोग ने मीडिया में एकाधिकारी वर्चस्व को तोड़ने के लिए देश के शीर्ष आठ समाचार पत्रों के सार्वजनिक अधिग्रहण की वकालत की थी। मगर एकाधिकारी पूंजीपतियों के राज में इस मांग को कौन सुनता और कौन लागू करता।
यह स्थिति केवल भारत के मामले में नहीं है बल्कि भारत तो इस सम्पूर्ण वैश्विक दुनिया का ही एक हिस्सा है। दुनिया में देखें तो 2011-12 में सिर्फ 6 मीडिया कंपनियां कामकास्ट, वाल्ट डिजनी, 21 वीं सेंचुरी फाक्स, टाइम वार्नर, विआकाम और सी बी एस अमेरिका की लगभग 90 फीसदी मीडिया सामग्री को नियंत्रित कर रही थीं। खाड़ी युद्ध के दौरान अमेरिकी मीडिया बादशाह रूपर्ट मर्डोक के दर्जनों मीडिया संस्करण इराक पर अमेरिकी आक्रमण के समर्थन में माहौल बना रहे थे। ये इराक और सद्दाम हुसैन के खिलाफ माहौल बना रहे थे।
एक हिसाब से देखें तो भारत में मीडिया का विस्तार हुआ है। मगर स्वामित्व के लिहाज से देखें तो यह कुछ मुट्ठी भर हाथों में केंद्रित है। 2018 के आंकड़ों के अनुसार 1,18,239 समाचार पत्रों का प्रकाशन भारत में होता था जिसमें से 36,000 साप्ताहिक थे। 550 से अधिक एफ एम रेडियो स्टेशन थे। 380 से अधिक टी वी न्यूज चैनल थे। मगर 4 मीडिया प्रकाशन दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला और दैनिक भास्कर का बाजार में (पाठकों के लिहाज से) लगभग 77 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा था। इनके मालिक सीधे सत्ता के साथ खड़े हैं। यही स्थिति क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों के मामले में है। रेडियो प्रसारण में आल इंडिया रेडियो का सबसे बड़ा नेटवर्क है यह सीधे सरकार के नियंत्रण में है। टेलीविजन न्यूज चैनलों के मामले में तो एकाधिकारी वर्चस्व की स्थिति स्पष्ट है। न्यूज 18 समूह के कई क्षेत्रीय चैनलों के साथ ही सी एन एन और न्यूज 18 इंडिया का स्वामित्व अंबानी के पास है। 2019 के आंकड़ों के हिसाब से अंबानी 72 टी वी चैनलों को नियंत्रित करता था।
एकाधिकारी पूंजी द्वारा संचालित और नियंत्रित यह मीडिया हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स की तरह व्यक्ति पूजा, झूठ दर झूठ और भावनात्मक मुद्दों से ध्रुवीकरण में लीन है। तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर और फर्जी तथ्यों के जरिए यह जनता को गुमराह करता है। इस संबंध में तमाम मामले में बेनकाब हो जाने पर भी यह अपनी आलोचना नहीं करता है। यह किसी भी प्रकार की जनता के प्रति जिम्मेदारी और जवाबदेही से ऊपर है। नोटबंदी के मामले में न्यूज एंकर का 2000 रुपये के नोट पर चिप का दावा फर्जी निकला मगर जनता को गुमराह करने के लिए इन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। ये एंकर, संवाददाता और पत्रकार, भाजपा के प्रवक्ता के बतौर आचरण करते हैं। इस मुख्य धारा के मीडिया के अलावा हिंदू फासीवादियों के अपने स्वयं के भी पत्रिकाएं, अखबार, न्यूज पोर्टल और आई टी सेल हैं। संघ और इसके अन्य संगठन खुद ही अफवाह मशीनरी हैं। मोदी के व्यक्ति पूजा, ईश्वरीय अवतार, मुक्तिदाता आदि आदि के रूप की छवि गढ़ने का काम यह मुख्यधारा का मीडिया कर रहा है। एकाधिकारी पूंजी को संघ-भाजपा और मोदी-शाह दोनों की जरूरत है बदले में संघियों को एकाधिकारी पूंजी की। एकाधिकारी पूंजी के बिना हिंदू फासीवादी बेहद कमजोर हैं। ये फिल्मों, नाटकों, गीतों और अन्य सांस्कृतिक माध्यमों से भी इसी मुहिम में लगे हुए हैं। कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरी जैसी फिल्मों के जरिए भी बड़े स्तर पर मुसलमानों को हिंदुओं के लिए दुश्मन और साजिशकर्ता के बतौर प्रचारित किया गया।
एकाधिकारी पूंजी द्वारा संचालित मुख्य धारा का मीडिया धर्म और आस्था से जुड़ी चीजों के साथ ही भावनात्मक मुद्दों का खुलकर इस्तेमाल करता है। यह धर्मनिरपेक्षता या सर्व धर्म समभाव की नीति का भी मजाक बनाकर उन पर हमला करता है। यह हिंदू फासीवादी राज्य कायम करने के लिए दिन-रात माहौल बनाता है। इतिहास की फर्जी या झूठी धारणा को पेश करता है। यह मुसलमानों को आम तौर ही दुश्मन या आतंकी के रूप में पेश कर बहुसंख्यक हिंदुओं में उनके प्रति हर वक्त नफरत और डर परोसता है। ........
यह मीडिया आम तौर पर मोदी और सरकार की नीतियों की आलोचना नहीं करता। मोदी महिमा मंडन और मोदी सरकार की तारीफ में दिन-रात प्रचार करना इसका काम है। यह सरकार में बैठे मंत्रियों के बयानों तथा सरकार की नीतियों के पक्ष में तर्क करता है और फर्जी तथ्य, अर्द्ध सत्य बातों के दम पर उनकी वकालत करता है। मोदी या सरकार के विरोध या आलोचना को हिन्दू विरोध के रूप में प्रचारित करता है। यह सामाजिक अपराधों के मामले को भी सांप्रदायिक रंग देने से गुरेज नहीं करता। यदि अपराधी या आरोपी मुस्लिम समुदाय से होता है तब इसका चौबीसों घंटे प्रसारण करता है। न्याय के बुनियादी सिद्धांतों पर हमला करते हुए बुलडोजर न्याय या एनकाउंटर का महिमामंडन करता है। किसी मामले में आरोपी ठहराए जाने वाले लोगों को जज बनकर तत्काल ही अपराधी घोषित कर प्रचारित करता है जबकि सत्ता या सरकार से जुड़े लोगों के मामले में यह चुप्पी साध लेता है।
इस मीडिया में बेरोजगारी और नौजवानों-बेरोजगारों के संघर्ष के लिए जगह नहीं है। उत्पीड़ित या हिंसा के शिकार दलितों और मुसलमानों के लिए यहां जगह नहीं है। किसान आंदोलन को बदनाम करने और अलगाव में धकेल देने की इसकी मुहिम दिन-रात जारी रही थी। आदिवासी इसके लिए इंसान नहीं हैं। आम नागरिकों के नागरिक और राजनीतिक अधिकारों को यह परोक्ष या कभी प्रत्यक्ष रूप से समाज के विकास में बाधा या रुकावट के रूप में पेश करता है। इसके प्रति इसका हिकारत का भाव है। मानव अधिकारों की खिल्ली उड़ाते हुए इन्हें अपराध या आतंकवाद की जड़ होने की तरह पेश करता है। यहां आम जनता की विभिन्न समस्याएं नदारद हैं या तोड़-मरोड़ कर पेश की जाती हैं। ..
नतीजतन मुसलमानों के खिलाफ फासीवादी दस्तों की भीड़ हिंसा बढ़ी है। उनका अलगाव और धार्मिक कट्टरपन बढ़ा है। ये दोयम दर्जे के नागरिकों की स्थिति में धकेल दिए गए हैं और बुलडोजर न्याय और एनकाउंटर के शिकार हैं। इनमें दहशत बढ़ी है। ट्रेन में खुलेआम 3 मुसलमानों की रेलवे पुलिस कांस्टेबल द्वारा हत्या कर देना और योगी-मोदी की तारीफ में नारे लगाना दिखाता है कि नफरत का स्तर कहां पहुंचा दिया गया है।
मजदूर वर्ग और इसके संघर्ष के प्रति इस मीडिया का बिल्कुल दुश्मनाना रुख है। मजदूर वर्ग के ट्रेड यूनियन अधिकारों और श्रम कानूनों पर मोदी सरकार के बड़े हमलों का इसने मजदूर वर्ग की बेहतरी, ज्यादा आजादी और ठेकेदारों पर अंकुश लगाने के रूप में झूठा प्रचार किया जबकि 4 श्रम संहिताओं से मजदूर वर्ग को गुलामी की स्थिति में धकेलने की तैयारी कर ली गई है। मजदूर वर्ग की जुझारू हड़ताल को यह मीडिया औद्योगिक अशांति, उपद्रव, खतरे, देशी-विदेशी पूंजी के पलायन कर जाने के रूप में पेश करता है। मजदूर वर्ग के जुझारू और क्रांतिकारी संगठनों, यूनियनों को माओवाद या लाल आतंक के रूप में प्रचारित करके इसे अलगाव में धकेलने और खत्म कर देने की मांग भी खुद प्रस्तुत कर देता है। फासीवादी विचारधारा और राजनीति के निशाने पर वैसे भी मुख्य रूप से मजदूर वर्ग और उसके संगठन ही होते हैं।
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मीडिया का वह हिस्सा जो सरकार का आलोचक है, सांप्रदायिक उन्माद फैलाने का विरोध करता है, जो उदारवादी है उसे हाशिये पर धकेल दिया गया है। उस पर तमाम तरीके से लगाम लगाने या पालतू बनाने की कोशिशें हुई हैं। यह मुख्य धारा की मीडिया के निशाने पर भी रहता है। इनके विज्ञापन बंद कर दिए जाते हैं। इसकी पहुंच सीमित कर दी जाती है। इनके तथ्यों और रिपोर्टिंग्स को देश विरोधी या विदेशी हाथों में खेलने का आरोप लगाकर इसे बंद करने की कोशिश होती है या पालतू बनाने और खरीद लेने की। एन डी टी वी देखते ही देखते शीर्ष उद्योगपति गौतम अदानी ने खरीद लिया। एन डी टी वी (अदानी द्वारा खरीदे जाने पहले), न्यूज क्लिक, द वायर, द क्विन्ट आदि पर धन शोधन आदि का आरोप लगाकर डराने-धमकाने और बंद करने की कोशिश हुई। आज यह मीडिया आम तौर पर डिजिटल प्लेटफार्म और छोटे प्रकाशन तक सीमित है। इसका उदार पूंजीवादी दृष्टिकोण इसकी सीमा है। इसका मजदूर वर्ग के संघर्षों और क्रांतिकारी संघर्षों के साथ आम तौर पर उपेक्षा का रुख है। यह कमजोर कल्याणकारी राज्य की वकालत करता है। यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को उस कल्याणकारी माडल के लबादे के साथ बचाए रखना चाहता है जिससे गुजरकर ही आज की भयानक स्थिति में समाज पहुंचा है। इसमें कुछ तो ऐसे भी हैं जो निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण को लागू करने के पक्षकार हैं, विरोध केवल सांप्रदायिक राजनीति से है।
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जहां तक विपक्षी पूंजीवादी पार्टियों का सवाल है इसमें से अधिकतर ही भ्रष्ट हैं, जनविरोधी हैं, मौकापरस्त हैं और निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की समर्थक हैं। कांग्रेस तो वैसे भी एकाधिकारी पूंजी की सेवक रही है। अन्य पूंजीवादी और सुधारवादी पार्टियां भी राज्यों या केन्द्र की सत्ता में गठबंधन की सरकारों में शामिल रह चुकी हैं। ये कहीं से भी हिंदू फासीवादियों के लिए कोई चुनौती प्रस्तुत नहीं कर सकती। इनमें से अधिकांश तो किसी ना किसी रूप में हिंदू फासीवादियों को आगे बढाने में भूमिका निभा चुकी हैं। ....
उपरोक्त के अलावा अखबार, पत्रिका व यू ट्यूब चैनल, सोशल मीडिया, वेबसाइट और ब्लाग का संचालन या प्रकाशन कुछ जनपक्षधर और प्रगतिशील लोग या मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी संगठन करते हैं। यह जनसरोकार से जुड़ा हुआ मीडिया है। निरंतर ही जनता को प्रभावित करने वाले सभी सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों को उठाता है। जनांदोलनों की रिपोर्टिंग करता है। सरकार और उसकी नीतियों को जनता के सामने बेनकाब करता है। इस जनपक्षधर मीडिया का दायरा बेहद सीमित है। यह बिखरा हुआ है। इसका प्रभाव भी बेहद सीमित है। जरूरत है इस जनपक्षधर और क्रांतिकारी प्रचार मीडिया को संगठित करने की और इसके प्रभाव और दायरे को व्यापक करने की।
लेकिन इतना करना और यहीं तक सीमित रहकर हिंदू फासीवादियों और फासीवाद के आसन्न खतरे का मुकाबला नहीं किया जा सकता। अतीत में फासीवादी ताकतों और फासीवाद को पराजित करने या ध्वस्त करने का काम केवल और केवल क्रांतिकारी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में चलने वाले संघर्ष के दम पर ही संयुक्त मोर्चा और लोकप्रिय मोर्चे के जरिए सम्भव हुआ। इसलिए आज फिर से फासीवाद के खिलाफ अतीत के सबक को व्यवहार में अमल करने की जरूरत है। फासीवादी हमलों का जवाब विचारधारात्मक, राजनीतिक, सांगठनिक और ऐतिहासिक व सांस्कृतिक हर स्तर पर देना होगा। फासीवादियों के संरक्षक और पालक पोषक एकाधिकारी पूंजी तथा पूंजीवाद को निशाने पर लिए बिना यह संघर्ष अधूरा होगा। हमें प्रचार के दायरे को व्यापक करना होगा। यह किसी भी वक्त नहीं भूलना होगा कि फासीवादी ताकतों की पराजय या इसे पीछे धकेलने का काम केवल समाजवाद की दिशा में चलने वाले क्रांतिकारी संघर्षों के दम पर ही मुमकिन है।
आइए! फासीवाद की दिशा में समाज को धकेल रहे मुख्य धारा की मीडिया के खिलाफ संगठित होकर जनसरोकार से जुड़े मुद्दे को जोर-शोर से उठायें। फासीवादी प्रचार और इसके हमले को हर स्तर पर बेनकाब करते हुए क्रांतिकारी प्रचार का संगठन करने की ओर बढ़ें।
नागरिक
अधिकारों को समर्पित, पाक्षिक