चुनाव में अपचयित होता लोकतंत्र

/chunaav-mein-apachayit-hotaa-loktantra

हमारे देश में किसी अन्य चीज में दिलचस्पी हो या न हो परंतु चुनाव में सबकी दिलचस्पी रहती है। भले ही दो राज्यों के विधानसभा के चुनाव थे परंतु इन चुनाव में दिलचस्पी देशव्यापी थी। हार के डर से भाजपा चुनाव के समय इसे स्थानीय चुनाव बनाकर रखना चाहती थी परंतु हरियाणा में जीत के बाद उसने इसे देशव्यापी प्रचार का हिस्सा बना दिया। मानो हरियाणा नहीं बल्कि दिल्ली 4 जून के बाद दुबारा जीत ली हो। मोदी का सीमित प्रचार करना और उनकी तस्वीर का चुनावी पोस्टर में छोटा हो जाना जहां पहली बात की बानगी थी वहां हरियाणा की जीत के बाद देश के विभिन्न शहरों-कस्बों में जीत का जश्न मनाना दूसरी बात की बानगी थी।
    
इस जश्न में, जम्मू-कश्मीर की हार भाजपा के लिए एक ऐसी बात थी जिस पर वह कतई चर्चा नहीं करना चाहती थी और उसने हरियाणा पर फोकस किया और जम्मू-कश्मीर को भुला दिया। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार महज स्थानीय चुनाव में हार नहीं बल्कि उसकी ‘धारा-370’ के मुद्दे पर देशव्यापी राजनैतिक हार है। भाजपा-संघ का राजनैतिक एजेंडा पहले आम चुनाव में नहीं चला और अब विधानसभा चुनाव में भी नहीं चल पाया। जम्मू-कश्मीर में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी नेशनल कांफ्रेंस तो चुनाव में ‘धारा-370’ की वापसी के मुद्दे पर ही मुख्य रूप से चुनाव लड़ी थी। इस मुद्दे के अलावा दूसरा बड़ा मुद्दा पूर्ण राज्य की बहाली थी। चुनाव परिणाम ने दिखाया कि यहां भाजपा-संघ ने मुंह की खाई है। 
    
ऐसा क्यों हुआ कि हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव देशव्यापी मुद्दा बने हुए थे। एक तो इसलिए हुआ कि ये चुनाव आम चुनाव के बाद के पहले बड़े चुनाव थे और इस बात की कसौटी बने हुए थे कि मोदी-भाजपा कहां खड़े हैं और राहुल-कांग्रेस-इंडिया गठबंधन कहां खड़े हैं। और दूसरा यह कि जम्मू-कश्मीर में करीब 10 साल बाद चुनाव उच्चतम न्यायालय के आदेश से ‘धारा-370’ व ‘35-ए’ के समाप्त किये; जम्मू-कश्मीर के विभाजन व राज्य का दर्जा खत्म किए जाने के बाद हो रहे थे। यह तीनों ही बड़े मुद्दे थे और यदि भाजपा खुदा ना खास्ता जीत गई होती तो वह इस बात का प्रचार बहुत बड़े स्तर पर, युद्ध स्तर पर करती। उसकी हार ने उसकी जुबान पर ताला लगाया और उसने हरियाणा की जीत को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना शुरू कर दिया। हालांकि हरियाणा में मामला मत प्रतिशत के अनुसार बराबरी पर छूटा। भाजपा को 39.9 तो कांग्रेस को 39.1  प्रतिशत मत मिले। अपने तथाकथित ‘‘माइक्रो मैनेजमेंट’’ और अपने हर तरह के दम-फन और संघ के पूरी ताकत के साथ वह यह चुनाव हारते-हारते जीत ले गई। 
    
इस चुनाव को देशव्यापी मुद्दा बनाने में एक बड़ी भूमिका मीडिया की भी थी जो इस मौके का फायदा उठाकर अपने धंधे पर चार चांद लगवाता है। मामले में उत्सुकता पैदा करने के लिए सच्ची-झूठी खबरें चलाता है। इस सबसे आम लोगों का एक ऐसा नशीला मनोरंजन होता है जो उन्हें उनकी बुनियादी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित नहीं करने देता है। वे राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं की झूठी बातों और वादों के इंद्रजाल में फंसे रहते हैं। धंधेबाज राजनैतिक नेता और मीडिया आम मजदूरों-मेहनतकशों को मूर्ख बनाकर अपनी तिजोरी भरते जाते हैं। और आम मजदूर-मेहनतकश कभी इस बात को नहीं समझ पाते हैं कि उनकी भलाई तब तक नहीं हो सकती जब तक वे स्वयं अपने आप में भरोसा करके अपनी तकदीर को स्वयं अपने हाथों में नहीं ले लेते हैं। बार-बार इस बात को मजदूरों-मेहनतकशों के बीच स्थापित करने की जरूरत है कि उनकी मुक्ति का कार्य स्वयं उन्हें अपने हाथों में लेना होगा। हमें अंग्रेजों से आजादी तभी मिल पाई जब हिंद देश के हर आदमी ने लड़ाई को अपने हाथ में ले लिया था। मजदूर, किसान, सैनिक, औरतें, आदिवासी आदि सभी जब आजादी के लिए लड़ने लगे तो दुनिया की सबसे बड़ी ताकत को दुम दबाके भागना पड़ा। 
    
चुनाव जहां मीडिया के लिए एक बड़ा धंधा और राजनेताओं के लिए सत्ता-दौलत पाने का जरिया है तो यह अपने आप में सड़ती-गलती पूंजीवादी व्यवस्था का भी प्रतीक है। यह एक ऐसा प्रतीक है जिसमें लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) को चुनाव तक अपचयित कर दिया गया है। इस सड़ती-गलती व्यवस्था में लोकतंत्र का मतलब बस समय-समय पर चुनाव होना भर रह गया है। और यह बात दुनिया के ‘सबसे पुराने लोकतंत्र’ से लेकर ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ आदि सभी पर लागू होती है। सभी जगह सत्ता दिनोंदिन निरंकुश होती गई है। जनवादी अधिकार या तो लगातार छिनते चले गए हैं या बेहद सीमित हो गए हैं। क्रांतियों का देश कहे जाने वाले फ्रांस में लंबे-लंबे समय तक ‘पुलिसिया आपातकाल’ लगा रहता है। गौर से देखा जाए तो कई दफा तो लोकतंत्र व एकतंत्र या सैनिक तंत्र का फर्क भी धूमिल होने लगता है। हमारे देश में खुद जम्मू-कश्मीर में 10 साल तक चुनाव नहीं होते हैं और लद्दाख के लोग इस वक्त दिल्ली की सड़कों में खाक छान रहे हैं और उन्हें सरकार द्वारा धरना-प्रदर्शन के लिए उपलब्ध कराई गई जगह ‘जंतर-मंतर’ में प्रदर्शन तक नहीं करने दिया जाता है। मणिपुर की तो इस संदर्भ में क्या चर्चा की जाए। और इस बात को क्या याद रखा जाए कि पुलिस थानों में आए दिन आम लोगों की हत्या की जाती है। कहां है हमारे देश में लोकतंत्र? और कैसा यह लोकतंत्र है? 
    
और चुनाव यदि लोकतंत्र का प्रतीक भर बन कर रह गया होता तो भी गनीमत होती। हद तो यह है कि चुनाव भारत सहित दुनिया में घोर फासीवादी नेताओं के सत्ता हासिल करने का सबसे आसान तरीका बन गया है। भारत में हिंदू फासीवादी चुनाव के जरिये ही सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे हैं और सत्ता में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए ये हर चुनाव को जीवन-मरण का प्रश्न बना देते हैं। हरियाणा के चुनाव के पहले भाजपा व आरएसएस के बीच तनातनी की जितनी खबरें थीं वह एकाएक गायब हो गईं। संघ ने हरियाणा में भाजपा की जीत के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। संघ सक्रिय न होता तो भाजपा कांग्रेस के मुंह से जीत छीन कर नहीं ले जा पाती। 
    
फासीवादी व घोर दक्षिणपंथी चुनाव को न केवल सत्ता की सीढ़ी के रूप में लेते हैं बल्कि इसके जरिए ये अपने विचारों को तेजी से फैलाते भी हैं और जब-जब यह चुनाव जीतते हैं तो इनके विचारों को एक तरह की वैधता और मान्यता मिल जाती है। हद तो तब हो जाती है कि जब संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अपनी विचारधारा का चुनावी प्रचार कर रहे होते हैं तो वह सरकार का अधिकारिक बयान भी बन जाता है। मसलन प्रधानमंत्री मोदी अपने पद का लाभ उठाकर खालिस हिन्दू फासीवादी विचारों का चुनावी प्रचार कर रहे होते हैं तो यह उन्हें एक बहुत बड़ा फायदा दे देता है। इसके उलट उनके पास प्रधानमंत्री का पद न होता तो इसे एक विपक्षी नेता की आवाज समझकर नजरअंदाज किया जा सकता था। 
    
भारत के हिन्दू फासीवादी नेता व उनकी पार्टी-संगठन इतना ज्यादा चुनाव पर क्यों जोर देते हैं। क्यों दिन-रात चुनावी प्रचार में जुटे रहते हैं। इसका उत्तर यही है कि चुनाव इनके लिए सत्ता पाने व उस पर डटे रहने के साधन से कहीं ज्यादा फासीवादी निजाम कायम करने का एक माध्यम है। हिटलर और मुसोलिनी ने सत्ता पर कब्जा चुनावी जीत के जरिये ही किया था। मोदी, अमित शाह, योगी, हिमंत बिस्वा सरमा आदि अच्छे ढंग से जानते हैं कि चुनाव उन्हें वह सब कुछ दिला देता है जिसके वे आकांक्षी हैं। ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ की इनकी बातों का क्या वही मतलब नहीं है जो हिटलर का नाजीवादी राज्य और मुसोलिनी का फासीवादी राज्य से था। हिटलर, मुसोलिनी की तरह ही इनके पीछे भी देश के सबसे बड़े पूंजीवादी घराने हैं। देशी-विदेशी एकाधिकारी पूंजी है। हिन्दू फासीवादी राज्य के ये छिपे हुए प्रस्तोता और लाभार्थी हैं। भारत में इन्हें खुला फासीवादी राज्य कायम करने के लिए बस इतना करना होगा जिन चुनावों के जरिये इन्होंने सत्ता और अपना वर्चस्व कायम किया है उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाये। ‘एक देश एक चुनाव’ इसमें एक मील का पत्थर बनेगा। बस तब यह करना होगा कि एक साथ चुनाव पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। और ऐसा करने के लिए सबसे अच्छा बहाना देश के हितों की सुरक्षा, राष्ट्रवाद होगा। 
    
इन सब बातों का निहितार्थ मजदूरों-मेहनतकशों के लिए क्या है? इसका निहितार्थ यह है कि हिन्दू फासीवादियों की तरह हर चुनाव को गम्भीरता से लिया जाए। इनकी हार निश्चित करने का हर संभव यत्न किया जाए। इसका मतलब कांग्रेस या अन्य पूंजीवादी पार्टियों का पिच्छलग्गू बनना नहीं बल्कि अपनी एकता, अपने संगठन, अपनी पहलकदमी, जुझारूपन को सबसे आगे रखना है। लोकतंत्र को सिर्फ चुनाव तक सीमित करने का तीव्र विरोध करना है और उससे आगे बढ़कर पूंजीवाद के स्थान पर समाजवाद कायम करना होगा जहां लोकतंत्र या जनवाद समाज की हर सांस में होगा।  

 

इसें भी पढ़ें :

भारत लोकतंत्र की जननी कैसे है?

आलेख

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को

/philistini-pratirodha-sangharsh-ek-saal-baada

7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक

/bhaarat-men-punjipati-aur-varn-vyavasthaa

अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।

/samooche-pashcim-asia-men-yudha-phailaane-kaa-prayaas

इसके बावजूद, इजरायल अभी अपनी आतंकी कार्रवाई करने से बाज नहीं आ रहा है। वह हर हालत में युद्ध का विस्तार चाहता है। वह चाहता है कि ईरान पूरे तौर पर प्रत्यक्षतः इस युद्ध में कूद जाए। ईरान परोक्षतः इस युद्ध में शामिल है। वह प्रतिरोध की धुरी कहे जाने वाले सभी संगठनों की मदद कर रहा है। लेकिन वह प्रत्यक्षतः इस युद्ध में फिलहाल नहीं उतर रहा है। हालांकि ईरानी सत्ता घोषणा कर चुकी है कि वह इजरायल को उसके किये की सजा देगी।