आज से करीब ढाई हजार साल पहले जब प्लेटो यानी अफलातून ने अपनी ‘गणराज्य’ नामक किताब में आदर्श राज्य व्यवस्था का खाका खींचा तो साथ ही इसके स्थायित्व की भी व्याख्या की। उसने कहा कि राज्य व्यवस्था के संचालकों को आम लोगों में एक मिथक स्थापित करना चाहिए। यह मिथक था : समाज के तीनों प्रमुख वर्ग यानी शासक, सैनिक तथा आम लोग क्रमशः सोने, चांदी और लोहे से पैदा हुए हैं। यह विधाता का विधान है और इसीलिए सभी को इसको स्वीकार कर इसी के हिसाब से चलना चाहिए। इस मिथक के स्थापित हो जाने के बाद आम मेहनतकश लोग कभी अपने शोषण और अपने ऊपर होने वाले अन्याय-अत्याचार को लेकर विद्रोह नहीं करेंगे।
प्लेटो या अफलातून की खासियत यह थी कि उसने उस बात को खुलेआम लिखकर प्रचारित किया जो शासक हमेशा से करते रहे हैं। शायद उसे विश्वास था कि उसकी किताब को आम मेहनतकश लोग कभी नहीं पढ़ेंगे और इसीलिए उन्हें कभी नहीं पता चल पायेगा कि शासक उन्हें कैसे बेवकूफ बनाते हैं। वैसे यह कहना होगा कि भारत में जब मनु ने मनुस्मृति में यह प्रावधान किया कि वेदों और शास्त्रों का अध्ययन करने वाले शूद्रों को कठोर सजा देनी चाहिए तो वह प्लेटो से आगे बढ़कर यह सुनिश्चित कर रहा था कि आम मेहनतकशों को शासकों की साजिशों का पता ही न चले।
इतिहास का यह सामान्य सच है कि मुट्ठी भर शासक भारी बहुमत वाले मेहनतकशों का शोषण करते रहे हैं और उन पर शासन करते रहे हैं। मेहनतकशों द्वारा समय-समय पर होने वाले विद्रोह के बावजूद शोषकों का शासन चलता रहा है। बलपूर्वक मेहनतकशों को दबा कर रखने के साथ ऊपर कही गयी बात की इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
मेहनतकशों को बेवकूफ बना कर उन पर शासन करने में धर्म खास हथियार रहा है। यह इसलिए और भी कारगर रहा है कि स्वयं मेहनतकश अपने एकमात्र संबल के तौर पर धर्म की ओर आकर्षित होते रहे हैं। धर्म को लेकर शोषकों और शोषितों का रुख अक्सर ही विपरीत रहा है। जहां शोषित दिल से धर्म पर विश्वास करते रहे हैं वहीं शोषकों के लिए धर्म महज शोषण और शासन का औजार रहा है। उनका धर्म में या तो विश्वास नहीं रहा है या फिर यह विश्वास उनके शोषण-शासन की जरूरतों के अधीन रहा है। यदि शोषकों-शासकों का धर्म में वाकई विश्वास होता तो इतिहास में उन्होंने धर्म के नाम पर जो कुछ किया वे हरगिज न करते।
इन सब बातों का आज हमारे समय के लिए खास महत्व है। इस समय सारी दुनिया में और हमारे देश में भी धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उसे इन्हीं की रोशनी में समझा जा सकता है।
ठीक इस समय अपने देश में धर्म के नाम पर एक बड़ा सर्कस चल रहा है। इस सर्कस में केन्द्र और प्रदेश सरकारें, सत्ताधारी पार्टी और उसके सहयोगी संगठन तथा पूंजीवादी प्रचारतंत्र सारे शामिल हैं। देश का पूंजीपति वर्ग अपनी सारी ताकत के साथ इस सर्कस के पीछे है।
अयोध्या में रामलला के मंदिर का निर्माण नामक यह सर्कस जिस रूप में आयोजित किया जा रहा है उसमें आध्यात्मिकता का कोई दिखावा भी नहीं है। इस सर्कस के आयोजक खुलेआम यह चर्चा कर रहे हैं कि इससे भाजपा को चुनावों में कितना राजनीतिक लाभ मिलेगा और इस आयोजन से दूर रहने वाले विपक्षी दलों को इसका कितना नुकसान होगा। वे स्वयं ही अपनी बात और व्यवहार से प्रमाणित कर रहे हैं कि यह आयोजन एक राजनीतिक सर्कस है, कोई आध्यात्मिक अनुष्ठान नहीं।
अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के पूरे इतिहास को देखते हुए यह कोई रहस्य की बात नहीं। शुरू से अंत तक यह मुद्दा एक राजनीतिक मुद्दा रहा है और संघ के लोगों ने बार-बार इसे रेखांकित भी किया है कि यह धार्मिक नहीं, राजनीतिक मुद््दा है। 1949 में चोरी-छिपे बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति रखने से लेकर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस तक इसमें हर कदम पर राजनीति ही रही है। जब सर्वोच्च न्यायालय ने 2019 में बाबरी मस्जिद स्थल को राम मंदिर निर्माण के लिए हिन्दुओं को सौंपा तो भी यह राजनीतिक फैसला ही था।
यहां गौर करने वाली बात यही है कि अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर राजनीति करने वाले संघ परिवार ने आम मेहनतकशों में इस मुद्दे को एक धार्मिक मुद्दे के रूप में पेश किया। कहा गया कि अयोध्या में एक खास स्थान पर राम के जन्म का मुद्दा तथ्य या इतिहास का नहीं बल्कि आस्था का मसला है। चूंकि हिन्दुओं की ऐसी आस्था है इसलिए इसका सम्मान किया जाना चाहिए। यह भी कहा गया कि बाबरी मस्जिद पर पहले राम मंदिर होने का मसला भी आस्था का मसला है।
स्पष्ट था कि संघ परिवार आम हिन्दुओं की धार्मिक आस्था का राजनीतिकरण कर रहा था। वह आस्था का राजनीति के लिए इस्तेमाल कर रहा था। यदि अयोध्या में किसी खास स्थान पर राम का जन्म हुआ था और वहां पहले राम मंदिर था तो अब भी वहां राम मंदिर होना चाहिए। यह धार्मिक आस्था से निकलने वाला सामान्य निष्कर्ष था।
इस धार्मिक आस्था को संघ परिवार ने चालाकी से राजनीति में बदल दिया। एक विदेशी आतताई ने इस राम मंदिर को तोड़कर वहां मस्जिद बनवाई थी। इसीलिए समय की मांग है कि इस अन्याय को अब दुरुस्त किया जाये। बाबरी मस्जिद गिराकर वहां फिर राम मंदिर बनाया जाये। यह विदेशी, विधर्मी आतताई के ऐतिहासिक अत्याचार का प्रतिकार भी होगा। इस तरह यह न केवल एक धार्मिक कृत्य होगा बल्कि हिन्दू गौरव की पुनर्स्थापना भी होगा। इस तरह आस्था राजनीति में तथा धर्म साम्प्रदायिकता में बदल गया। और आम मेहनतकश हिन्दुओं को पता भी नहीं चला कि वे संघ की साम्प्रदायिक राजनीति में लामबंद हो चुके हैं।
कहना होगा कि संघ परिवार ने एक धार्मिक आस्था के मामले को साम्प्रदायिक राजनीतिक मुद्दे में रूपान्तरित करने में भारी सफलता पाई। इसके लिए उन्होंने भांति-भांति की रणनीति और रणकौशल अख्तियार किये और अंततः सफल हो गये।
संघ परिवार की इस साम्प्रदायिक राजनीति का इस तरह मुकाबला नहीं किया जा सकता कि उनके साम्प्रदायिक राम के बदले मर्यादा पुरुषोत्तम राम को स्थापित किया जाये। विपक्षी दल और बहुत सारे भले मानस ऐसा ही कर रहे हैं। वे बस यह भूल जा रहे हैं कि यह आम जनमानस में मर्यादा पुरुषोत्तम राम की आस्था ही थी जिस पर हिन्दू फासीवादी संघियों ने अपना साम्प्रदायिक दांव खेला। 1970 के दशक तक राम हिन्दू साम्प्रदायिकता के प्रतीक पुरुष नहीं थे। वे तुलसीदास के मर्यादा पुरुषोत्तम राम ही थे जिसे उत्तर भारत में हर साल होने वाली रामलीला के जरिये सारे लोग जानते थे। संघियों ने इसी सौम्य सुशील राम को क्रोधित राम में रूपान्तरित किया।
जब संघ के हिन्दू फासीवादी राम का यह रूपान्तरण कर रहे थे तो साथ ही इस बात का भी प्रमाण दे रहे थे कि परंपरागत आस्था में उनकी आस्था नहीं थी। वे स्वयं नास्तिक थे। राम में उनकी रुचि उनके साम्प्रदायिक राम में तब्दील हो जाने की संभावना में थी।
इसमें नया कुछ नहीं था। हिन्दू फासीवादियों के आदि गुरू विनायक दामोदर सावरकर घोषित नास्तिक थे। उनकी हिन्दू राष्ट्र की परियोजना का हिन्दू आस्थाओं से कोई लेना-देना नहीं था। यह एक राजनीतिक परियोजना थी जिसमें हिन्दू आस्थाओं का इस्तेमाल होना था।
हिन्दू फासीवादी अपने जन्म से भारतीय समाज के उन शासक वर्गीय हिस्सों का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं जो पुरातनपंथी हैं और अपने शासन-शोषण के लिए जिसे धार्मिक आस्थाओं का इस्तेमाल करने में कभी संकोच नहीं रहा।
आज की खासियत यह है कि आज भारत के बड़े पूंजीपति वर्ग का इन हिन्दू फासीवादियों से गठजोड़ हो गया है। यह गठजोड़ संयोगवश नहीं है। आज देश के बड़े पूंजीपति वर्ग को अपनी लूटपाट के लिए तथा अपनी व्यवस्था की रक्षा के लिए हिन्दू फासीवादियों की किस्म के लोगों की ही आवश्यकता है। हिन्दू फासीवादी जिस तरह की धार्मिक कूपमंडूकता, जाहिलियत और नफरत फैला रहे हैं, पूंजीपति वर्ग उसी में अपनी व्यवस्था की रक्षा देख रहा है।
ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि हिन्दू फासीवादियों के पिछले तीन-चार दशकों के उभार में देश में धार्मिकता का माहौल बढ़ा है। लोग धर्म की ओर लौटे हैं। लेकिन यह भ्रम मात्र है। असल में जो हुआ है वह धर्म का खेल ज्यादा है। यह खेल धर्म का धंधा करने वाले, पूंजीवादी प्रचार माध्यमों तथा हिन्दू फासीवादियों सबने खेला है। बाबाओं के आश्रमों, टीवी, अखबारों-पत्रिकाओं तथा संघ परिवार के आयोजनों में हर जगह इसे देखा जा सकता है।
पूंजीवादी समाज की आधुनिक जीवन शैली ने एक ओर परंपरागत धार्मिक अनुष्ठानों से अंसतुष्टि पैदा की है तो साथ ही आत्मिक शांति की खोज को बढ़ाया भी। इसने भांति-भांति के धर्म के धंधे के चमकने की संभावना और पैदा कर दी है।
पूंजीवादी व्यवस्था चूंकि एक अराजक व्यवस्था है, इसलिए ऐसा नहीं हो सकता कि इसमें आम मेहनतकश जनता को बेवकूफ बनाने का काम प्लेटो के ‘गणराज्य’ की तरह एकदम योजनाबद्ध तरीके से हो। इसके बदले इसमें यह काम भी अराजक तरीके से होता है, हालांकि मूल गति पर सबकी सहमति होती है। इस सहमति के कारण सारे तत्वों का किसी हद तक सामंजस्य भी बैठ जाता है। आज बड़े पूंजीपति, उनके प्रचार माध्यम, बाबा-साधु और हिन्दू फासीवादी सभी एक ही तरंग पर सवार हैं। अयोध्या में इनका एक साथ जमावड़ा अद्भुत दृश्य पैदा करता है और इस संबंध में किसी भी संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ता।
धर्मों के इतिहास में ऐसा हुआ है कि इंसान ने दार्शनिक और आध्यात्मिक तौर पर काफी ऊंचाईयां छुई हैं। अभी तक की सभ्यता के इतिहास में धर्मों के महत्व को देखते हुए इस चीज की भी महत्ता को समझा जा सकता है। यही बात भारत के संदर्भ में भी है। पर आज जो कुछ हो रहा है उसमें यह सब सिरे से नदारद है। आज इतिहास का सारा कूडा-करकट इकट्ठा कर आम जनता के सामने परोसा जा रहा है और बताया जा रहा है कि यही महान हिन्दू धर्म है। चूंकि आज धर्म के सारे धंधेबाजों का उद्देश्य आम जन की धार्मिक कूपमण्डूकता और जाहिलियत को बढ़ाना है, इसीलिए इसके अलावा कुछ हो भी नहीं सकता।
यह यूं ही नहीं है कि ये सारे लोग भारत के इतिहास पर अभी तक के सारे वैज्ञानिक शोध को सिरे से नकार कर अपना कचड़ा पेश कर रहे हैं। इसके लिए किसी भी तरह की तार्किकता और वैज्ञानिकता को भी नकारा जा रहा है। पुराण कथाओं को ही मानक इतिहास घोषित किया जा रहा है। आधुनिक विज्ञान की ऐसी-तैसी करते हुए प्राचीन भारत में सारी विज्ञान-तकनीक को विद्यमान बताया जा रहा है, वह भी मिथकीय भारत में।
आज भारत के शासक वर्ग के इस रूप को देखते हुए यह जरा भी आश्चर्य की बात नहीं है कि अभी हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार चौदह से अठारह साल की उम्र के एक चौथाई बच्चे अपनी मातृभाषा में किताब नहीं पढ़ सकते। शासक वर्ग को न केवल इनके शिक्षित होने में रुचि नहीं है बल्कि उसका हित इसमें है कि वे शिक्षित न हों। कम से कम वास्तव में शिक्षित न हों। यदि वे अपनी मातृभाषा पढ़ना भी सीख लें तब भी केवल कूपमंडूकता फैलाने वाली बातें ही पढ़ें।
यदि इन चीजों को ध्यान में रखा जाये तो आज चारों ओर पसर रही धार्मिक कूपमंडूकता और जाहिलियत की संस्कृति को बखूबी समझा जा सकता है। तब यह भी समझा जा सकता है कैसे इसका इस्तेमाल लोगों को धार्मिक साम्प्रदायिक और उन्मादी बनाने में किया जाता है।
इस सबका हिन्दू फासीवादियों से संबंध सहज और सामान्य है। लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण बात है आज भारत के शासक पूंजीपति वर्ग का इस सबसे संबंध। कभी भारत के पूंजीपति वर्ग ने अपने प्रतिनिधि जवाहर लाल नेहरू के माध्यम से तार्किकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात की थी। भारत के संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्तों में इसे दर्ज भी किया गया था कि भारतीय राज्य समाज में तार्किकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देगा। पर अब भारत का शासक पूंजीपति वर्ग उस सबको बहुत पीछे छोड़ आया है। अब वह तार्किकता और वैज्ञानिकता को बढ़ावा देने के बदले धार्मिक कूपमंडूकता और जाहिलियत को बढ़ावा दे रहा है। वह धर्म निरपेक्षता के बदले ‘हिन्दू राष्ट्र’ की ओर बढ़ रहा है।
इस सबका मुकाबला सही धार्मिकता, आध्यात्मिकता इत्यादि की ओर लौट कर नहीं किया जा सकता। इसका मुकाबला सार्वजनिक जीवन से धर्म के पूर्ण निष्कासन और उसे व्यक्ति का निजी मामला बना कर ही किया जा सकता है। इससे भी आगे धार्मिक कूपमंडूकता और जाहिलियत को बढ़ावा देने वाले पूंजीपति वर्ग और उसकी पतित व्यवस्था के सामने क्रांतिकारी चुनौती पेश कर ही इस सबसे मुक्ति की ओर बढ़ा जा सकता है।
धर्म का धंधा
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को