हिन्दू फासीवाद और जनतंत्र

बहुत कम लोग इस पर ध्यान देते हैं कि हिटलर तख्ता पलट कर सत्ता में नहीं आया था। वह बिल्कुल संवैधानिक तरीकों से चुनावों के जरिये सत्ता में आया था। 
    

ऐसा नहीं है कि हिटलर ने कभी तख्ता पलट के जरिये सत्ता में आने का प्रयास नहीं किया। उसने सेना के कुछ सेवानिवृत्त जनरलों के साथ मिलकर 8-9 नवम्बर, 1923 को एक तख्तापलट करने का प्रयास किया था। यह प्रयास बुरी तरह असफल रहा और इसे बहुत आसानी से कुचल दिया गया। 
    

तख्ता पलट के इस असफल प्रयास के बाद हिटलर ने तय किया कि वह चुनावों के जरिये सत्ता हासिल करेगा। वह पहले विश्व युद्ध के बाद जर्मनी में कायम हुए बीमार गणंतत्र का घोर दुश्मन था। वह उसे अत्यन्त घृणा की नजर से देखता था और जर्मनी की तब की सारी समस्याओं के लिए उसे जिम्मेदार मानता था। तब भी उसने तय किया कि वह बीमार गणतंत्र में हासिल बोलने और संगठित होने की आजादी का इस्तेमाल कर जनता में अपनी पकड़ बनायेगा तथा चुनावों में भागीदारी के जरिये सत्ता में पहुंचेगा। एक बार सत्ता में पहुंचने के बाद वह इस गणतंत्र का खत्म कर देगा। हिटलर और नाजियों ने अपने इन विचारों को छिपाया भी नहीं। सत्ता में आने के पहले तक वे इन विचारों को खुलेआम प्रचारित करते रहे और 1933 में सत्ता में आने के बाद इस पर अमल भी किया। उन्होंने जनतंत्र की हत्या के लिए जनतंत्र का इस्तेमाल किया। अपने फासीवादी लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उन्हें यह सबसे अच्छा रास्ता लगा। 
    

हिटलर के इस उदाहरण का आज हमारे लिए खास महत्व है। हमारे देश में भी हिटलर को अपना आदर्श मानने वाले हिन्दू फासीवादी इसी रणकौशल का इस्तेमाल कर रहे हैं। वे जनतंत्र के जरिये ही जनतंत्र की हत्या की ओर बढ़ रहे हैं। 
    

यह याद रखना होगा कि एक जमाने में हिन्दू फासीवादी अपने उद्देश्यों और अपने तौर-तरीकों को लेकर उतने डरपोक नहीं थे जितने आज हैं। आजादी के पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेताओं ने खुलेआम हिटलर और मुसोलिनी को अपना आदर्श बताया था। उन्होंने भारत में मुसलमानों के साथ वही व्यवहार करने का इरादा व्यक्त किया था जो तब जर्मनी में नाजी यहूदियों के साथ कर रहे थे। 
    

इसी कड़ी में जब आजादी के बाद भारत का संविधान बना तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इसे खुलेआम नकार दिया। उसने कहा कि भारत का संविधान मनुस्मृति पर आधारित होना चाहिए। यह याद रखना होगा कि मनुस्मृति वर्ण व्यवस्था को समाज व्यवस्था का आधार बनाती है यानी सारा सामाजिक-राजनीतिक ढांचा वर्ण व्यवस्था के हिसाब से होगा। परम्परागत हिन्दू धर्म में तो धर्म का मतलब ही था वर्ण व्यवस्था के हिसाब से आचरण करना। यह गौरतलब है कि अंबेडकर ने संविधान पर अंतिम भाषण में इसी वर्ण व्यवस्था को संविधान के बुनियादी जनतांत्रिक सूत्र- ‘एक व्यक्ति, एक वोट’- के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा बताया था। 
    

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके नेतृत्व में हिन्दू फासीवादियों को जनतंत्र स्वीकार नहीं था। वे वर्ण व्यवस्था पर आधारित ब्राह्मणीय समाज व्यवस्था के पक्षधर थे। और तब उन्होंने इस छिपाया भी नहीं। लेकिन तब भी उन्हें यह समझ में आ गया था कि वे सत्ता में जनतंत्र के अलावा दूसरे रास्ते से नहीं आ सकते थे और बिना सत्ता में आये वे अपना ब्राह्मणीय हिन्दू राष्ट्र नहीं कायम कर सकते थे। इसीलिए उन्होंने जनतंत्र का इस्तेमाल करने का फैसला किया- जनतंत्र को समाप्त करने के लिए। 1951 में भारतीय जनसंघ का उन्होंने गठन किया। 
    

यह भी याद रखना होगा कि जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर भारत सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। सरकार ने यह प्रतिबंध इसी शर्त के साथ हटाया कि भविष्य में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ संवैधानिक ढांचे के भीतर काम करेगा। कहा जा सकता है कि इस प्रतिबंध ने हिन्दू फासीवादियों के लिए वही काम किया जो 1923 के तख्ता पलट की असफलता ने नाजियों के लिए किया था। 
    

तब से हिन्दू फासीवादी इसी रास्ते पर चलते रहे हैं। गोलवलकर के जमाने में इस रास्ते की सार्थकता को लेकर जो भी हिचक थी वह देवरस के जमाने में दूर हो गई। उन्होंने इस रास्ते का भरपूर और कुशलतापूर्वक इस्तेमाल किया और आज वे केन्द्र सरकार में अपने बल पर सत्ता में हैं। 
    

फासीवादी घोषित तौर पर जनतंत्र विरोधी हैं। ऐसा नहीं है कि वे कम्युनिस्टों की तरह इसलिए इसके विरोधी हैं कि यह केवल पूंजीपतियों के लिए जनतंत्र होता है, मजदूरों-मेहनतकशों के लिए नहीं। कि वे जनतंत्र का मजदूरों-मेहनतकशों के लिए विस्तार करना चाहते हैं। बल्कि वे इसलिए इसके विरोधी हैं कि वे एक व्यक्ति की तानाशाही में विश्वास करते हैं। उनका सिद्धान्त है- ‘एक चालक अनुवर्तित्व’। यानी एक व्यक्ति के पीछे चलना है। आज भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखिया का चुनाव नहीं होता। वर्तमान मुखिया ही तय करता है कि आने वाला मुखिया कौन होगा। यही सिद्धान्त वे पूरे समाज पर लागू करते हैं। 
    

पर फासीवादियों की समस्या यह है कि उन्हें ऐसे समाज में काम करना होता है जहां जनवाद की चेतना जनता में गहरे पैठ गई होती है। सभी लोग जन्मजात बराबर हैं तथा शासन चलाने में सबका समान अधिकार है यह भावना समाज की आम भावना बन गई होती है। लोग जन्मजात ऊंच-नीच को नकारने लगते हैं। ऐसे में अपने फासीवादी मंसूबों को आगे बढ़ाने के लिए फासीवादियों का इस भावना के हिसाब से काम करना जरूरी हो जाता है। वे इस भावना को नकार कर लोगों को अपने पीछे गोलबंद नहीं कर सकते। वे जनतंत्र की इस भावना का इस्तेमाल कर ही लोगों को इसके खिलाफ खड़ा करते हैं। वे जनतंत्र के जरिये ही सत्ता में पहुंचकर जनतंत्र को खत्म करते हैं। हिटलर ने यही किया था। आज इसे भारत में क्रमशः होते हुए देखा जा सकता है। 
    

आज हिन्दू फासीवादी देश में चुनाव जीतने के लिए जितनी कोशिश करते हैं उसे देखकर कई लोगों को अचरज होता है। उन्हें इनके फासीवादी चरित्र पर संदेह होने लगता है। आज भाजपा की चुनावी मशीनरी सबसे मजबूत और कुशल है। इसके दोनों प्रमुख नेता यानी प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पूरे साल चुनाव में व्यस्त रहते हैं। चुनाव ही उनका मुख्य पेशा है। ये फासीवादी ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं। 
    

इसका सबसे बड़ा कारण तो यही है इनके केन्द्र में तथा कई प्रदेशों में सत्तानशीन होने के बावजूद इन्हें सत्तानशीन कराने वाले बड़े पूंजीपति यह इजाजत नहीं दे रहे हैं कि ये फासीवादी शासन कायम कर अपना हिन्दू राष्ट्र बना लें। देश के बड़े पूंजीपतियों को अभी फासीवादी शासन की जरूरत महसूस नहीं हो रही है। उनका काम संवैधानिक दायरे में चल जा रहा है। उनकी खूब लूट पाट चल रही है। 
    

लेकिन फासीवादियों का अपना भी लक्ष्य है और इस लक्ष्य से फिलहाल बड़े पूंजीपतियों को कोई समस्या नहीं है। इसीलिए वे फासीवादियों को जनतंत्र का इस्तेमाल कर जनतंत्र में कांट-छांट करने दे रहे हैं। जिस हद तक यह मजदूरों-मेहनतकशों पर शिकंजा कस पूंजीपतियों को और ज्यादा शोषण करने का मौका दे रहा है, उस हद तक यह उनके लिए फायदेमंद भी है। 
    

2014 में केन्द्र में सत्ता हासिल करने के बाद हिन्दू फासीवादियों ने जनतंत्र में काफी कांट-छांट की है और इस तरह सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई है। वे अपने लक्ष्य यानी एक फासीवादी हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़े हैं। 
    

भारत का जनतंत्र या ज्यादा सही कहें तो पूंजीवादी जनतंत्र शुरू से ही विकृत रहा है। एक जाति-वर्ण आधारित समाज में पूंजीवादी जनतंत्र का चलन वैसे भी विकृतियों से भरा होता पर इससे भी आगे यह अपनी संवैधानिक संरचना में ही विकृतियों से भरा रहा। इसने अंग्रेजी गुलामी के जमाने से चली आ रही प्रशासनिक मशीनरी को जस का तस स्वीकार कर लिया था तथा उसके जमाने के कानूनों को भी। इसने भांति-भांति से यह तय कर दिया कि भारतीय जनतंत्र विकृत रहेगा। व्यवहार में हुआ भी वही। भारत में जनतंत्र का व्यवहार भारी विकृतियों का शिकार रहा। कदम-कदम पर जनतांत्रिक उसूलों का उल्लंघन हुआ। इसकी सबसे सघन अभिव्यक्ति जम्मू-कश्मीर के मामले में हुई। 
    

हिन्दू फासीवादियों ने केन्द्र में बहुमत से सत्तानशीन होने के बाद भारत के जनतंत्र को नेस्तनाबूद करने का यही रास्ता चुना। उन्होंने पहले की सरकारों के कुकर्मों को नये स्तर पर पहुंचा दिया। वे खुलेआम और बड़े पैमाने पर वह करने लगे जो पहले की सरकारों ने चोरी-छिपे और छोटे पैमाने पर किया था। सरकारी एजेन्सियों का विपक्ष के खिलाफ इस्तेमाल, प्रदेशों में विपक्ष की सरकारों को गिराना, चुनाव आयोग को पालतू बनाना, इत्यादि सबसे हिन्दू फासीवादियों ने एक नयी ऊंचाई हासिल की है। और चूंकि पहले की सरकारें चोरी-छिपे और छोटे पैमाने पर यह सब करती रही थीं, इसलिए विपक्षी दलों के विरोध को नकारना इनके लिए बहुत आसान हो जाता है। 
    

अपनी दूरगामी परियोजना के तहत हिन्दू फासीवादियों ने सरकारी मशीनरी में गहरे तक पैठ की है। नौकरशाही, पुलिस-सेना, इत्यादि सभी जगह इन्होंने अपने लोग बैठाये हैं। पिछले सालों में इन्होंने इसे औपचारिक रूप भी दिया है, जैसे नौकरशाही में क्षैतिज भरती। पिछली सरकारों ने नौकरशाही और पुलिस-सेना का इस्तेमाल करते हुए भी किसी हद तक उसे राजनीति से दूर रखा। हिन्दू फासीवादी ऐसा नहीं सोचते। वे इन्हें अपने भगवा रंग में रंगना चाहते हैं और इसके लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। 
    

पूंजीवादी जनतंत्र में शुरू से ही ‘कानून का शासन’ तथा जनतंत्र के विभिन्न स्तम्भों- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका- की स्वायत्तता पर काफी जोर दिया गया था। इसी तरह जनतंत्र की अन्य संस्थाओं की स्वायत्तता पर भी जोर था मसलन चुनाव आयोग पर। इन सबके जरिये जनतंत्र में नियंत्रण और संतुलन बने रहने की उम्मीद की जाती थी। उदाहरण के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव आयोग ही स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव सम्पन्न करा सकता है। और बिना स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के जनतंत्र का कोई मतलब नहीं रह जाता। इसी तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका ही यह सुनिश्चित कर सकती है कि ‘कानून का शासन’ वास्तव में चल रहा है। 
    

हिन्दू फासीवादियों ने सत्तानशीन होने के बाद एक योजना के तहत इन सबको क्रमशः नष्ट करने की दिशा में कदम बढ़ाये हैं। अमित शाह ने 2019 के पहले कहा था कि यदि वे 2019 में सत्ता में फिर आ गये तो अगले पचास साल सत्ता में बने रहेंगे। लोगों ने तब भले ही न समझा हो पर उनका इशारा साफ था। ऐसा नहीं था कि वे 2019 के बाद जनता में इतनी पैठ बना लेते कि कोई चुनावों में उन्हें अगले पचास साल तक नहीं हरा सकता। बल्कि इसका मतलब यह था कि दस साल में वे सत्ता तंत्र में इतनी घुसपैठ कर लेते तथा जनतंत्र को इतना भ्रष्ट कर देते कि उनका चुनाव-दर-चुनाव जीतना सुनिश्चित हो जाता। कहना होगा कि 2019 के बाद मोदी-शाह के नेतृत्व में हिन्दू फासीवादी धड़ल्ले से इस ओर बढ़े हैं। 
    

क्या हिन्दू फासीवादियों ने अगले पचास साल तक सत्ता में बने रहने का लक्ष्य हासिल कर लिया है? यह तो 2024 के चुनावों के बाद ही पता चलेगा। पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने पहले से ही विकृत भारत के पूंजीवादी जनतंत्र को भीतर से खोखला करने में काफी सफलता पाई है। कई मायनों में तो यह इतना खोखला हो गया है कि एक धक्का ही इसे धराशाई करने को लिए पर्याप्त होगा। यह देश के बड़े पूंजीपतियों पर निर्भर करता है कि वे इस धक्के की इजाजत देते हैं या नहीं। 
    

रही मजदूर-मेहनतकश जनता की बात तो उसे खोखला किये जा रहे जनतंत्र के खिलाफ संघर्ष के साथ इससे पार जाने के संघर्ष में उतरना होगा। बल्कि इसके पार जाने के संघर्ष के जरिये ही इसे बचाया जा सकता है।  
    

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