
एक तरफ दस फुट ऊंची दीवार, और दूसरी तरफ इस्पात फैक्टरी और एक तरफ दलित मजदूर बस्ती। नीला आसमान अक्सर शाम को धूल के बादलों से रंग बदल लेता। फैक्टरियों से निकलने वाले सीवर और केमिकल वाले पानी की भीषण दुर्गंध इस बस्ती में घुली हुई है। दस फुट की सड़क फैक्टरी की दीवार से सटे हुए नाले और बस्ती के बीच की विभाजन रेखा है।
दीवार पर अंबेडकर और भगत सिंह की फोटो टंगी है। कुछ दलित और क्रांतिकारी साहित्य मेज पर रखा हुआ है। किसी भी धार्मिक आस्था का चिन्ह यहां मौजूद नहीं है। नास्तिकता की वजह को ठीक-ठीक कह पाना कठिन है, परन्तु संभवतः निचली जाति के सामाजिक दंश ने सर्वप्रथम विद्रोह की चेतना को जन्म दिया, फलस्वरूप ईश्वरीय विधान का नकार पैदा हुआ और नास्तिकता के तर्कों ने जन्म लिया। ब्राह्मण हमारे दुश्मन नहीं हैं बल्कि ब्राह्मणवाद हमारा दुश्मन है। अक्सर ही जाति प्रश्न पर ये बात सचिन दोहराता।
आपसी मारपीट, चौकी, पुलिस, नशाखोरी ऐसी बस्तियों की आम परिघटना है। सामाजिक दंश, काम की घुटन, तिरस्कार अक्सर आपसी झगड़ों में खुद को अभिव्यक्त करता। नशाखोरी से पूर्णतया मुक्त होते हुए भी सचिन इन आपसी झगड़ों से मुक्त नहीं है। इन झगड़ों की वजह कभी सामाजिक होती कभी व्यक्तिगत। हां, इन सबके बीच वर्दी के प्रति एक सामान्य व्यक्ति का नैसर्गिक भय अब खत्म हो चुका है।
सचिन के मन में अस्थिरता है। प्रश्न है कि एक जगह ठहरते ही नहीं। अभी एक मसला महिला उत्पीड़न का उठा तो तुरंत सवाल जाति उत्पीड़न का खड़ा हो जाता और मंजिल तक पहुंचने से पहले ही सवाल मजदूर उत्पीड़न तक पहुंचने में देर न लगाता। मगर इन सब प्रश्नों और द्वंद्वों के बीच एक सत्य है और वह सच है सचिन के भीतर बैठी हुई, व्याकुलता, परिवर्तन की चाहत और उसके लिए संघर्ष कर सकने का जरूरी माद्दा।
अभी तक सचिन ने सिर्फ फैक्टरी से निकलने वाला धुंआ और गंदा पानी ही देखा था। मजदूरों के साथ होने वाली दुर्घटनाओं के किस्से ही सुने थे। परन्तु बीते दो सालों से सचिन प्रत्यक्ष रूप से इस फैक्टरी की दुनिया का हिस्सा बन चुका है। उद्वेलित मन अक्सर ही प्रतिकार करता जिसकी सीमाएं होतीं। फैक्टरी के लिए अकूत मुनाफा पैदा करने वाले मजदूरों के जीवन की त्रासदी उसे विचलित करती। अब तक जिस सामाजिक दंश को सचिन ने महसूस किया था, फैक्ट्री के भीतर की त्रासदी, कहीं ज्यादा तीखी, कहीं ज्यादा मारक थी।
रात्रि के दस बजे का समय है। शार्ट सर्किट की वजह से मशीन रुकी है, सचिन के हाथ तेजी से तार छीलने में लगे हुए हैं। ‘‘एक आदमी कन्वेयर में फंस गया है’’। थोड़ी अफरा-तफरी के बीच अपना काम छोड़कर सचिन मजदूर के पास तक भागता हुआ पहुंच चुका है। तब तक मजदूर की सांसें बंद हो चुकी थी। ‘‘क्या किसी निर्जीव पट्टे की कीमत जीवित सांसों से ज्यादा है’’ एक तीखी घुटन सचिन ने अंदर से महसूस की। जिन संबंधों ने सचिन को बगावत से रोक रखा था आज उसका आखिरी दिन है। एक दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ बहाना बनाकर सचिन फैक्टरी गेट से बाहर आ गया है।
घटना की कुछ वीडियो सचिन के पास पहुंच चुकी हैं। जिन्हें रात में ही हर परिचित को भेज दिया है, इस आह्वान के साथ कि सुबह सबको फैक्टरी गेट पर पहुंचना है। जिनसे भी बात की जा सकती है बात की जा रही है इस उम्मीद के साथ कि इस बार फैक्टरी मालिक को निर्णायक सबक सिखाना है। ये आंखे आज रात नहीं सोएंगी। अभी तक दो आंखें रात भर महज इसलिए जागती रहीं ताकि मालिक की मशीनें चलती रहें, दौलत का अंबार खड़ा होता रहे। दो आंखें इन सब की अभ्यस्त हो चुकी थीं परंतु आज रात ये आंखें विचलित हैं, बगावत की भावना से भरी हुई हैं।
तय समय से पहले ही सचिन फैक्टरी गेट पहुंच चुका है। कुछ दोस्त भी साथ हैं। अपमानित कर भगा दिए गए परिवारजन, समूह का हौंसला पाकर मुखरता से लड़ रहे हैं। और इन सारे स्वरों के बीच सबसे ज्यादा ध्वनि सचिन की सुनाई दे रही है। इससे पहले कई दफा सचिन की पुलिस से हुज्जत हुई थी परंतु आज पहली दफा वर्षों की घुटन, अपमान और वर्तमान का सच ज्यादा तीखे रूप में खुद को अभिव्यक्त कर रहा है।
संयुक्त प्रतिरोध की विजय हुई। जो परिवार आज सुबह अपमानित कर, एक साधारण से वेतनभोगी सुरक्षा गार्ड द्वारा भगा दिया था अब अपनी बारी में कंपनी प्रबंधन तहजीब और सम्मान के साथ बात करने पर विवश है। नकद पांच लाख और दो बच्चों को नौकरी में रख लेने के लिखित आश्वासन पर इस तात्कालिक आंदोलन का समापन होता है। इस आंशिक जीत के बावजूद सचिन दुखी है कि तमाम मेहनत और संघर्ष के बावजूद न तो कंपनी के मालिक को वार्ता में आने के लिए मजबूर किया जा सका और न ही फैक्टरी के बाकी मजदूर इस प्रतिरोध के हमकदम बने।
‘‘राकेश भाई कंपनी ने टर्मिनेट कर दिया’’ नौकरी जाने का थोड़ा दुःख सचिन के चेहरे पर उतर आया। ‘‘मायूस न हो साथी’’ दृढ़ता से राकेश ने कहा। ‘‘संघर्षों से विहीन इस सूखी और ठंडी जमीन को तुम्हारे भीतर से उठे उबाल ने गर्म जरूर किया है। थोड़ी देर के लिए ही सही, जमीन ने कुछ नमी जरूर पाई है। इस दुनिया में कोई भी संघर्ष व्यर्थ नहीं जाता, आगे हमारा भविष्य उज्ज्वल है।’’ सचिन जानता है कि प्रत्येक संघर्ष में कुछ न कुछ कीमत तो जरूर चुकानी ही होगी। टर्मिनेशन लेटर इस बात की तस्दीक करता है कि उसने एक जायज और न्यायसंगत संघर्ष का पक्ष चुना। ‘‘अब आगे की क्या तैयारी है’’ सचिन ने प्रश्न किया। ‘‘मई दिवस के पर्चे आ गए हैं। इस बार यहीं बस्ती में मनाएंगे।’’ बहुत अच्छा रहेगा। मैं अपने दोस्तों को फोन करता हूं। पर्चे बांटने में शामिल हो जाएंगे। -पथिक