छिपा हुआ संघी

जब 2019 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद मसले पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया तो कई लोगों को अचरज हुआ था कि उदार और धर्म निरपेक्ष माने जाने वाले न्यायाधीश चन्द्रचूण भी उस अजीबोगरीब फैसले में भागीदार थे जिसके तहत बाबरी मस्जिद विध्वंस को एक गंभीर अपराध घोषित करने के बाद उस जगह को मंदिर बनाने के लिए उन्हीं अपराधियों को सौंप दिया गया। यही नहीं, जानकार लोगों ने तभी कहा था कि भाषा-शैली को देखते हुए उस फैसले के लेखक चन्द्रचूण ही प्रतीत होते थे। 
    
न्यायाधीश चन्द्रचूण के प्रति लोगों का अचरज तब संदेह में तब्दील हो गया जब लोगों ने पाया कि मुख्य न्यायाधीश रहते हुए उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण करने की यह कह कर इजाजत दे दी कि 1991 का धर्मस्थल संबंधी कानून यह पता लगाने को प्रतिबंधित नहीं करता कि उसका चरित्र क्या है यानी वह मंदिर है कि मस्जिद। माननीय न्यायाधीश ने यह स्पष्ट नहीं किया कि जब यह कानून धर्मस्थल के चरित्र में परिवर्तन को प्रतिबंधित करता है तो उस चरित्र का पता लगाने से क्या हासिल होगा? यह फैसला और कुछ नहीं बल्कि ज्ञानवापी मस्जिद मसले में हिन्दुओं का पक्ष और मजबूत करने का फैसला था। 
    
अभी हाल में माननीय चन्द्रचूण की एक कार्रवाई ने लोगों के संदेह को यकीन में बदल दिया। देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने सपत्नीक भगवा वेश में द्वारकाधीश मंदिर में माथा टेका, बाकायदा फोटो और वीडियो जारी करवाये और घोषित किया कि देश भर में मंदिरों पर लहराने वाले भगवा झंडे उन्हें देश की एकता और न्याय का संदेश देते हैं। आज की तारीख में इस तरह का आचरण बहुत सचेत तौर पर स्वयं को भगवा कतारों में शामिल करने की घोषणा है। इस आचरण से मुख्य न्यायाधीश ने स्वयं को देश की भगवा ब्रिगेड का सदस्य घोषित कर दिया। 
    
इसी समय मुख्य न्यायाधीश ने इस बात का खुलासा किया कि क्यों बाबरी मस्जिद के फैसले पर किसी न्यायाधीश ने हस्ताक्षर नहीं किये थे। उन्होंने बताया कि सभी पांचों न्यायाधीशों ने यह मिलकर तय किया था कि इस फैसले को न्यायालय का फैसला होना चाहिए, किन्हीं न्यायाधीशों का नहीं। यानी पांच न्यायाधीशों ने अपने पाप को समूचे सर्वोच्च न्यायालय के मत्थे मढ़ दिया। 
    
उपरोक्त चीजों की रोशनी में यह भी ज्यादा स्पष्ट हो जाता है कि अभी हाल के धारा-370 के फैसले में माननीय न्यायाधीशों को देश में जम्मू-कश्मीर के एकीकरण की इतनी चिन्ता क्यों थी। हिन्दू फासीवादियों को ही जम्मू-कश्मीर की जनता की भावना के बदले जम्मू-कश्मीर के भारत में एकीकरण की ज्यादा चिन्ता रही है। इस एकीकरण का मतलब हमेशा ही हिन्दुओं का एकीकरण और हिन्दू भारत में एकीकरण रहा है। भगवा झंडे को देश की एकता का प्रतीक बताकर माननीय चन्द्रचूण ने अपने को इसी एकता और एकीकरण का पक्षधर घोषित कर दिया। 
    
इसी से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पिछले सालों में चिकनी-चुपड़़ी बातों के बाद सर्वोच्च न्यायालय में सारे फैसले सरकार के पक्ष में क्यों आते रहे हैं। यहां डर-भय के साथ वैचारिक पक्षधरता का भी मामला है। भगवा झण्डे को देश की एकता और न्याय का प्रतीक मानने वाला भगवा सरकार के खिलाफ कैसे जा सकता है? 
    
कोई कह सकता है हिन्दू फासीवादियों के डर-भय से उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीश भी रीढ़ विहीन हो गये हैं। वे सरकार के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। आखिर कौन न्यायाधीश लोया की गति को प्राप्त होना चाहेगा?
    
यह बात ठीक हो सकती है। लेकिन यहां बात डर-भय से आगे जाने की है। यदि यह डर-भय से किया जा रहा है तब भी बात आगे की है। भगवा वेश धारण कर मंदिर में जाना, फोटो और वीडियो जारी करना या जारी होने देना तथा अंत में भगवा झंडे के बारे में एक खास तरह का वक्तव्य देना यूं ही नहीं है। इसका एक निश्चित संदेश है। और यह संदेश चारों ओर जा चुका है। 
    
इस संदेश का एक मतलब स्पष्ट है। बहुत सारे उदारवादी और वाम-उदारवादी हिन्दू फासीवाद के तांडव पर लगाम लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से, खासकर माननीय चन्द्रचूण से आस लगाये हुए थे। अब यह आस टूट गयी है। यह अच्छा ही हुआ है। राजनीतिक लड़़ाईयां न्यायालय के जरिये नहीं लड़ी जातीं। न्यायालय तो सत्ता के साथ चलते हैं। हिन्दू फासीवादियों के खिलाफ लड़ाई गलियों-सड़कों की, चौक-चौराहों की है। इसे मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मजदूरों-मेहनतकशों की एकता से ही लड़ा जा सकता है। किसी भी तरह का भ्रम इस मामले में खतरनाक है। इस तरह का भ्रम टूट जाना अच्छा है।  

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