‘‘हमारे देश में सामाजिक असमानता का एक इतिहास रहा है।...हमने अपने साथी इंसानों को सामाजिक व्यवस्था में पिछड़ा बनाये रखा। वे जानवरों की तरह रहते रहे और हमने उनकी परवाह नहीं की। यह सब दो हजार साल तक चलता रहा।...यदि समाज के इस हिस्से ने दो हजार साल तक भेदभाव झेला तो हम दौ सौ साल तक कुछ तकलीफ क्यों नहीं झेल सकते?’’
ये सद्वचन किसी और के नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के हैं। इसके द्वारा उन्होंने सवर्णों का आह्वान किया कि उन्हें दलितों-पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को बर्दाश्त करना चाहिए। ये वही भागवत हैं जो समय-समय पर जातिगत आरक्षण पर पुनर्विचार की आवाज उठाते रहे हैं।
संघ मुखिया के इस संबोधन में ‘हम’ शब्द का प्रयोग गौरतलब है। यह दिखाता है कि बोलने वाला और सुनने वाले दोनों दलित-पिछड़े नहीं हैं। वे सवर्ण हैं। बताया जाता है कि यह संबोधन छात्रों को था। तब जरूर ही वे छात्र अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा इकट्ठा किये गये सवर्ण छात्र रहे होंगे।
इस छोटे से वक्तव्य से कई बातें निकलती हैं। अभी हाल ही में संघ-भाजपा ने डीएमके नेता उदयनिधि के सनातन धर्म को लेकर उस आह्वान पर खूब हो-हल्ला मचाया कि वह सामाजिक असमानता की वकालत करता है और उसका मलेरिया की तरह ही उन्मूलन कर दिया जाना चाहिए। अब संघ प्रमुख ने खुद ही स्वीकार कर लिया कि हिन्दू धर्म में कम से कम दो हजार साल से इस हद तक सामाजिक भेदभाव होता रहा है कि समाज का एक हिस्सा जानवरों की जिन्दगी जीता रहा।
इस बात का खास महत्व इसलिए है कि स्वयं संघ परिवार भारत में जातिगत भेदभाव और छूआछूत को लेकर लम्बे समय से एक मनगढ़न्त कहानी सुनाता रहा है। उसका कहना रहा है कि भारत की वर्ण व्यवस्था एक आदर्श समाज व्यवस्था थी जो मूलतः श्रम-विभाजन की व्यवस्था थी। समाज भांति-भांति के काम करने वालों में विभाजित था जिनके बीच कोई भेदभाव और ऊंच-नीच नहीं थी। जाति व्यवस्था और छूआछूत जैसी कोई चीज नहीं थी। ये सब तो हिन्दू समाज में तब आये जब भारत में विदेशी मुसलमानों का शासन कायम हुआ। उन्होंने ही यहां जातियों के बीच भेदभाव और छूआछूत पैदा किया।
हिन्दू समाज में वर्ण-जाति व्यवस्था और छूआछूत के बारे में यह एकदम मनगढ़न्त कथा है पर यह संघियों के बीच खूब प्रचलित है। संघी इसे खूब प्रचारित भी करते हैं। इस कथा की खूबी यह है कि यह हिन्दू समाज की सबसे घृणित प्रथा के लिए भी मुसलमानों को जिम्मेदार ठहरा देती है।
सच्चाई यह है कि भारत में जाति प्रथा, जातिगत भेदभाव और छूआछूत कम से कम गौतम बुद्ध के जमाने से मौजूद है। बौद्धों की जातक कथाओं में इसके प्रमाण मिल जायेंगे। इसका वर्णन मेगास्थनीज की इंडिका तथा फाह्यान और ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत में भी मिल जायेगा। ये सब दुनिया में इस्लाम के पैदा होने या भारत में इस्लाम के आने के पहले (ह्वेनसांग के मामले में) हैं। इस सब को ही मनुस्मृति में सूत्रबद्ध किया गया।
जिसे सनातन हिन्दू धर्म कहते हैं वह असल में मध्य काल का वह हिन्दू धर्म है जो मनुस्मृति जैसी स्मृतियों तथा पुराण कथाओं पर आधारित है। पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, इत्यादि इसके मुख्य हिस्से हैं। सामाजिक तौर पर यह वर्ण-जाति व्यवस्था तथा ऊंच-नीच पर टिका है। इसका वेदों से कोई लेना-देना नहीं है जो मुख्यतया हवन-यज्ञ को ही सब कुछ मानते थे।
इसलिए जब उन्नीसवीं सदी के बाद वाले हिस्से में दयानन्द सरस्वती ने वेदों की ओर वापसी का नारा देते हुए हिन्दू समाज में अपना आर्य समाजी सुधार आंदोलन शुरू किया तो उन्होंने इसी मूर्ति पूजा, पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार इत्यादि को अपना निशाना बनाया। उन्होंने जातिगत भेदभाव और छूआछूत को भी निशाना बनाया। तब उनका विरोध करने वाले परंपरागत पंडे-पुरोहितों ने अपने रीति-रिवाजों और विश्वासों को सनातन धर्म घोषित कर अपनी रक्षा की। उन्नीसवीं सदी के अंत तथा बीसवीं सदी की शुरूआत के आर्य समाज और सनातन धर्म के संघर्ष में सनातनी हिन्दू समाज की सारी कुरीतियों के रक्षक के रूप में सामने आये जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था की रक्षा भी थी। यह याद रखना होगा कि हिन्दू फासीवादी आंदोलन के जन्म का एक लक्ष्य (हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के रूप में) आर्य समाजियों और सनातनियों के इस आपसी संघर्ष से ऊपर उठकर हिन्दुओं को मुसलमानों के खिलाफ गोलबंद करना था।
इतिहास की इन सामान्य सच्चाईयों की रोशनी में संघ के वर्तमान मुखिया के हालिया सद्वचन का वास्तविक मतलब समझा जा सकता है। सारे सामाजिक दबाव के बावजूद संघ परिवार आज भी यह नहीं कहता कि वह वर्ण-जाति व्यवस्था का खात्मा चाहता है। वह बस सामाजिक समरसता की बात करता है। इसका मतलब यह है कि जातियां बनी रहें, बस छूआछूत न हो। इससे भी आगे वह वर्ण व्यवस्था के आदर्श में आज भी विश्वास करता है।
संघ परिवार का यह विश्वास और उद्देश्य समाज की उस गति से टकराता है जिसमें शोषित-उत्पीड़ित जातियों के लोग जाति व्यवस्था के खात्मे के अलावा कोई और रास्ता नहीं देखते। ऐसे में इन्हें अपने पीछे गोलबंद करने के लिए संघियों को कोई और रास्ता नहीं सूझता सिवाय इसके कि वे इस सवाल पर रोज रंग बदलें। इसीलिए वही मोहन भागवत कभी जातिगत आरक्षण पर पुनर्विचार की बात करते हैं तो कभी इसके दो सौ साल जारी रहने की। अभी चुनावों के मद्देनजर उनका दूसरा रंग सामने है।
गिरगिट के रंग अनेक
राष्ट्रीय
आलेख
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7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
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