देश में आजकल हिन्दू फासीवादियों की मेहरबानी से देश के इतिहास पर काफी बात हो रही है। कभी देश के नाम पर बात तो कभी देश की गुलामी की बात। आम तौर पर इतिहास की जरा भी कद्र न करने वाले लोग भी इस मामले में अपना ज्ञान बघारते नजर आते हैं। इस सबका कुल परिणाम राजनीतिक चेतना के विकास में हो रहा है। इस तरह हिन्दू फासीवादी न चाहते हुए प्रगति के वाहक बन रहे हैं। यह एक नकारात्मक का सकारात्मक परिणाम है।
हिन्दू फासीवादियों का कहना है कि देश बारह सौ साल तक गुलाम रहा। कभी-कभी वे आठ सौ साल की गुलामी की भी बात करते हैं। उनकी बारह सौ साल की गुलामी मुहम्मद-बिन-कासिम के सिंध पर सन् 711 से शासन से शुरू होती है तो आठ सौ साल की गुलामी दिल्ली पर मुसलमान शासकों के काबिज होने से। दोनों ही मामलों में इसमें कोई भी भ्रम नहीं है कि वे गुलामी की शुरूआत मुसलमानी शासन से मानते हैं, भले ही मुसलमान शासक बाहर से आकर यहीं बस गये हों या फिर यहीं पैदा हुए और मरे हों।
भारत के इतिहास पर थोड़ी सी नजर डालते ही यह पता चल जाता है कि संघ के हिन्दू फासीवादियों के लिए देश की गुलामी का संबंध इस्लाम धर्म से है। अन्यथा या तो इन्हें देश की ढाई हजार साल की गुलामी की बात करनी चाहिए (छठी सदी ईसा पूर्व से) या फिर केवल दो सौ साल की (अंग्रेजी शासन)। यही नहीं इन्हें पूर्वी एशिया के देशों को भारत द्वारा या हिन्दुओं-बौद्धों द्वारा गुलाम बनाये जाने की भी बात करनी चाहिए।
इन बातों का क्या मतलब है?
संघ के हिन्दू फासीवादी अक्सर अखण्ड भारत की बात करते हैं। इनका हिन्दू राष्ट्र का सपना अखण्ड भारत का भी सपना है। यह अखण्ड भारत अफगानिस्तान से लेकर इण्डोनेशिया तक को समेटता है जिसमें नेपाल और श्रीलंका भी शामिल हैं। कम से कम आजादी पूर्व का भारत (वर्तमान भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) तो उनका अखण्ड भारत है ही। इस सीमित अखण्ड भारत के इतिहास पर एक नजर डालें।
भारत के जिस इंडिया नामक नाम पर आज इतना बनावटी हंगामा मचा हुआ है उसके बारे में यह जगजाहिर है कि वह ईरानियों द्वारा भारत को दिये गये नाम ‘हिन्दुस’ से निकला है जिसे यूनानियों ने ‘इंडिका’ बना दिया और फिर अंग्रेजों ने इंडिया। लेकिन ईरानियों को भारत का यह नाम रखने की जरूरत क्यों पड़ी? इसकी वजह यह थी कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ईरानियों का फारसी साम्राज्य (अखमनी साम्राज्य) भारत के सिन्धु तट तक फैल गया था। यह पश्चिम में सीरिया तक फैला था। राजा दारा ने जब अपने साम्राज्य को बीस प्रदेशों में बांटा तो उसमें से एक प्रदेश का नाम उसने हिन्दुस रखा जो सिन्धु नदी के पश्चिमी तट पर दक्षिण में था। उत्तर में एक अन्य प्रदेश गान्धार था तथा इनके पश्चिम में सत्तगीडिया। ये तीनों आज के पाकिस्तान में पड़ते हैं। गौरतलब है कि अखमनी सम्राट पारसी धर्म मानते थे और उसे ईरान में स्थापित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
अखमनी साम्राज्य अगले दो सौ सालों तक रहा और अंत में इसे सिकन्दर ने नष्ट कर उसी पर अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया। प्रसिद्ध है कि कैसे सिकन्दर जीतता हुआ सिन्धु नदी के पार तक पहुंचा पर उससे आगे बढ़ने से उसके सैनिकों ने इंकार कर दिया। सिकन्दर वापस लौट गया पर उसका साम्राज्य सिन्ध तक कायम रहा। सिकन्दर के मरने के बाद जब उसका साम्राज्य कई हिस्सों में बंट गया तो सिन्ध तक का इलाका पूर्वी हिस्से में बना रहा जिसे बाद में सेल्यूकी साम्राज्य कहा गया। यह पहली शताब्दी ईसा पूर्व तक बना रहा यानी करीब दो-ढाई सौ साल तक। इस तरह सिन्ध तक के इलाके पर ईरानियों के बदले यूनानियों का शासन हो गया। यूनानी अपनी ही तरह के देवी-देवताओं को मानने वाले लोग थे। बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य से सेल्यूकस की लड़ाई के बाद समझौते के तौर पर सेल्यूकस ने अपनी लड़की की शादी चन्द्रगुप्त से की और सिन्ध वाला क्षेत्र उसे दे दिया। मौर्य शासन के विघटन के बाद यह फिर यूनानी-बैक्ट्रियाई शासन के अधीन चला गया।
इसके बाद इस इलाके पर उन लोगों ने कब्जा किया जिन्हें इतिहास में शक के नाम से जाना गया है। ये कैस्पियन सागर के आस-पास के इलाके के खानाबदोश लड़ाकू लोग थे। अपने इलाके से दक्षिण पूर्व की ओर चलते हुए उन्होंने उत्तरी पूर्वी ईरान, अफगानिस्तान तथा फिर सिन्ध-गुजरात तक कब्जा किया। भारतीय इलाके के शकों ने बाद में हिन्दू धर्म को स्वीकार कर लिया। भारतीय इतिहास में इनका जिक्र अक्सर उत्तरी और पश्चिमी क्षत्रपों के नाम से आता है। क्षत्रप और क्षत्रपी शब्द राजा दारा के फारसी साम्राज्य के प्रदेशों में विभाजन से चलन में आया था जिन्हें क्षत्रपी कहा गया था।
इसके बाद इस इलाके में कुषाण आये। कुषाण शकों के बदले उत्तर-पूर्वी इलाके से आये थे और यूपेत्री (ल्नमी.वीप) कबीले के वंशज थे। ये भी खानाबदोश लड़ाके थे। कुषाणों ने अपना जो साम्राज्य कायम किया वह अपने शिखर पर केन्द्रीय एशिया से लेकर उत्तर भारत में बनारस तक फैला था। बाद में मथुरा उनकी राजधानी रहा। शुरूआती कुषाण यूनानी देवी-देवताओं वाले धार्मिक विचारों को मानते थे। बाद में उन्होंने पारसी, बौद्ध तथा हिन्दू धार्मिक विचारों को भी अपना लिया। उनके शासन काल में (पहली से तीसरी सदी) में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार हुआ। यह ध्यान रखना होगा कि सिंध के दक्षिणी हिस्से में इस काल में शक क्षत्रपों का शासन बना रहा।
तीसरी सदी के अंत तथा चौथी सदी की शुरूआत में कुषाण शासन का किदारा हूणों, सासानी साम्राज्य तथा गुप्त साम्राज्य ने खात्मा कर दिया। तीसरी सदी के मध्य में ईरान में अखमनी साम्राज्य की तरह ही सासानी साम्राज्य का उदय हुआ। पूरब में यह साम्राज्य सिन्धु नदी तक फैल गया। अगले चार सौ सालों तक यह साम्राज्य कायम रहा जिसे अंततः सातवीं सदी के मध्य में नये पैदा हुए इस्लाम के मानने वाले अरबों ने नष्ट किया और अपना साम्राज्य कायम किया। सिन्धु नदी के पूर्व में गुप्त वंश का साम्राज्य कायम हुआ जो चौथी-पांचवीं सदी में बना रहा। किदारा व हूणों ने उत्तर-पश्चिम में कुषाण शासन को नष्ट किया था पर बाद में वे स्वयं सासानी साम्राज्य के भाड़े के सैनिक बन गये। सासानी सम्राट पहले के अखमनी सम्राटों की तरह ही पारसी धर्म को मानते थे।
छठी सदी में उत्तर-पश्चिम से हूणों ने भारत की ओर हमला किया। वे कोई अपना स्थाई साम्राज्य तो कायम नहीं कर पाये पर गुप्त वंश के शासन को नष्ट करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इसके बाद वह हुआ जिसकी वजह से संघ के हिन्दू फासीवादी भारत की बारह सौ साल की गुलामी की बात करते हैं। जैसा कि पहले कहा गया है सातवीं सदी के मध्य में नये इस्लाम को स्वीकार करने वाले अरबों ने सासानी साम्राज्य को नष्ट कर अपना साम्राज्य कायम किया था। इसके उमैय्या वंश ने दमिश्क को अपनी राजधानी बनाया। आज के अफगानिस्तान तक यह साम्राज्य फैला हुआ था।
उमैय्या वंश के खलीफा अल हजीज ने 711 ईसवी में अपने भतीजे मुहम्मद-बिन कासिम को, जो पूर्वी इलाके का शासक था, सिंध पर हमला करने के लिए भेजा जिसका राजा तब दाहिर था। कहा जाता है कि हमले की असल वजह अरब जहाजों पर हमला करने वाले समुद्री लुटेरों का सिंध में छिपना था जिनके खिलाफ कार्रवाई करने से दाहिर ने इंकार कर दिया था। दाहिर को पराजित कर सिन्ध पर कब्जा करने के बाद जो शासन कायम हुआ उसमें हिन्दुओं को पर्याप्त जगह मिली। इस्लाम में धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहन तो दिया गया पर हिन्दुओं का उत्पीड़न नहीं किया गया। धार्मिक तौर पर कुल मिलाकर यह उदार शासन था। तब से बाद तक सिन्ध तक का इलाका मुसलमानी शासन के तहत रहा।
इसके बाद का इतिहास तो जाना पहचाना है जो 1192 में गौर के महमूद की विजय और दिल्ली पर मुसलमानी शासन से शुरू होता है। गौर अफगानिस्तान और उत्तर-पूर्वी ईरान का इलाका था। दिल्ली पर हमला करने के पहले महमूद का शासन सिन्ध तक कायम हो गया था।
इतिहास के इस संक्षिप्त से वर्णन से स्पष्ट है कि जो आज पाकिस्तान का इलाका है वह केवल आठवीं सदी से विदेशी शासकों के अधीन नहीं आया। बल्कि वह उसके पहले के बारह सौ सालों से (छठी शताब्दी ईसा पूर्व से) लगभग लगातार विदेशी शासकों के अधीन रहा। अखमनी, सेल्यूकी और सासानी सम्राट तो बहुत दूर से इस पर शासन कर रहे थे। इसके बरक्स शक और कुषाण इसी इलाके में बस कर इस पर शासन कर रहे थे। ये सारे भांति-भांति के धर्मों के मानने वाले लोग थे।
इन भांति-भांति के लोगों के शासन का भारत की सभ्यता-संस्कृति के निर्माण में बड़ा योगदान है। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान, इंडिया शब्द इन्हीं से पैदा हुए।
उपरोक्त ऐतिहासिक तथ्य से स्पष्ट है कि संघ के हिन्दू फासीवादी कैसे इतिहास की विकृत व्याख्या करते हैं। वे बारह सौ साल की गुलामी की बात करते हैं, ढाई हजार साल की गुलामी की नहीं। ऐसा वे इसलिए करते हैं कि खास धर्म को निशाना बनाया जा सके। अखमनी, सेल्यूकी और सासानी सम्राटों ने भारत के एक हिस्से पर कब्जा कर शासन किया तो वह भारत की गुलामी नहीं थी। पर जब अरबों ने उसी इलाके पर कब्जा कर शासन किया तो वह गुलामी हो गया क्योंकि अब शासक मुसलमान थे।
यह हिन्दू फासीवादी नजर इतनी विकृत है कि वह देश की गुलामी की बात तब भी करती है जब शासक यहीं पैदा हो रहे थे और मर रहे थे तथा भारत से बाहर उनका कोई संबंध नहीं रह गया होता था। इन शासकों का बस यही गुनाह होता था कि वे मुसलमान थे। अकबर से लेकर बहादुर शाह जफर तक मुगल बादशाहों का भारत से बाहर कहीं संबंध नहीं था। पर हिन्दू फासीवादियों की नजर में ये विदेशी थे और उनका शासन देश की गुलामी।
संघ के हिन्दू फासीवादी देश की गुलामी की बात करने के साथ पलटकर ठीक उलटी बात भी करते हैं। वे जिस वृहत्तर अखंड भारत की बात करते हैं उसमें पूरब में इंडोनेशिया तक का क्षेत्र आता है। यह क्षेत्र भारत का हिस्सा क्यों होना चाहिए? क्योंकि इस क्षेत्र पर हिन्दू धर्म का कुछ प्रभाव है। और चूंकि हिन्दू फासीवादियों के लिए धर्म ही सब कुछ है तो मसला तय हो जाता है।
नृजातीय और भाषाई तौर पर भारत के पूरब वाले क्षेत्र (बर्मा से लेकर इंडोनेशिया तक का) भारत से कोई संबंध नहीं है। यहां से लोग वहां नहीं गये। बल्कि इसका उलटा हुआ। इन क्षेत्रों में बसने वाले लोग चीनी और आस्ट्रो-एशियाई मूल के लोग हैं। उनकी भाषा भी वही है। इनमें से कुछ भारत आये और यहां बस गये। पूर्वी व केन्द्रीय भारत के आदिवासी (संथाल, मुण्डा इत्यादि) आस्ट्रो-एशियाई मूल के हैं तो उत्तर-पूर्व के लोग चीनी (तिब्बती-बर्मी) मूल के। इसलिए अगर बात करनी ही हो तो भारत का भारत से पूर्व के क्षेत्र पर अधिकार नहीं बनता पर उलटा जरूर बनता है।
चूंकि भारत के पूर्वी क्षेत्र और दक्षिण-पूर्वी एशिया के बीच इस तरह का संबंध था तो स्वाभाविक ही था कि समय के साथ भारत की भाषा-संस्कृति और धर्म का उस क्षेत्र पर कुछ प्रभाव पड़ता। यह मुख्यतः व्यापार के रास्ते हुआ। क्रमशः इस इलाके में पहले बौद्ध और फिर हिन्दू (ब्राह्मण) धर्म का प्रसार हुआ। बाद के समय में कुछ स्थानीय राजाओं ने इन्हें अपना कर इनका प्रसार भी किया। अंत में जब चोल वंश जैसे राजाओं ने इस क्षेत्र में अपने साम्राज्य का प्रसार किया तो इससे भी भारतीय संस्कृति व धर्म वहां और फैले।
हिन्दू फासीवादियों की गुलामी की धारणा से देखें तो दक्षिण-पूर्वी एशिया के ये क्षेत्र भारत के गुलाम बन गये थे। पर यहां संघी पलटी मार जाते हैं और इस क्षेत्र को भारत का हिस्सा घोषित कर देते हैं। यहां संघ के हिन्दू फासीवादी एकदम नंगे रूप में साम्राज्यवादी बन जाते हैं। उन्हें सिंध के इलाके में अरबों और इस्लाम का प्रसार स्वीकार नहीं है पर वे स्वयं इंडोनेशिया तक अपना और अपने धर्म का प्रसार मानते हैं।
हिन्दू फासीवादियों की विकृत और घृणित दृष्टि से अलग इतिहास को देखें तो अभी तक का इतिहास लोगों के इधर-उधर आने-जाने से, व्यापार के जरिये आदान-प्रदान से तथा अंत में युद्धों व साम्राज्यों के बनने-बिगड़ने से बना है। दुनिया भर की सभी सभ्यता-संस्कृतियों में इन सबकी इस या उस हद तक भूमिका रही है। इन सबके जरिये जो मिश्रण हुआ है उसी का कुल परिणाम है आज का समाज। इसीलिए आज किसी शुद्ध ‘नस्ल’ या संस्कृति की बात करना बेमानी है।
भारत में भी यही हुआ है। भारत में हजारों सालों से भांति-भांति के लोग भांति-भांति की भाषा-संस्कृति और धार्मिक विश्वास लेकर आये। इसी कारण आज देश में कुल चार भाषाई परिवार हैं और सैकड़ों भाषाएं। इन सबके बीच आदान-प्रदान, संघर्ष-समझौते और मिश्रण से ही क्रमशः हजारों सालों में भारतीय समाज बना है।
इस तथ्य को नकारकर किसी शुद्ध भारतीय संस्कृति तथा हिन्दू धर्म की बात करना और इसे मुसलमान शासकों द्वारा पददलित घोषित करना परले दर्जे की धूर्तता है जिसका निश्चित राजनीतिक उद्देश्य है। इसी राजनीतिक उद्देश्य के लिए भारतीय इतिहास का एक खास संस्करण तैयार किया जा रहा है जिसका वास्तविक इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है। इस जालसाजी का हर तरह से भंडाफोड़ किया जाना चाहिए। इतिहास निर्माण के लिए जरूरी है कि संघियों को इतिहास हथियाने से रोका जाये।
इतिहास में एक छोटा सा सबक
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
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