इस आक्रोश को फौलादी एकता से दावानल बनाना होगा

अमृतकाल में आसमान छूती बेरोजगारी

उत्तराखंड राज्य की राजधानी देहरादून में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे बेरोजगारों पर पुलिस ने बर्बर हमला किया। पहले पुलिस आधी रात को आई और प्रदर्शन कर रहे बेरोजगारों को उठा ले गई। प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर आरोप लगाया कि वे शराब पीये हुए थे और छात्रा प्रदर्शनकारियों के साथ भी पुरुष पुलिसकर्मियों ने बल प्रयोग किया। ये प्रदर्शनकारी उत्तराखंड में एक के बाद हुए पेपर लीक की जांच सीबीआई से कराने की मांग कर रहे थे। पहले जांच पूरी करने के बाद ही किसी परीक्षा का आयोजन करने की मांग भी बेरोजगार प्रदर्शनकारी कर रहे थे।

पुलिस की आधी रात को प्रदर्शनकारियों को उठाने की घटना के बाद लगभग पूरे उत्तराखंड में छात्रों, नौजवानों और बेरोजगारों के प्रदर्शन हुए। देहरादून में हुए प्रदर्शन पर फिर पुलिस ने लाठीचार्ज किया। कई लोगों को गिरफ्तार किया। पुलिस ने आंदोलन को दबाने के लिए बेराजगारों पर अन्य धाराओं सहित हत्या का प्रयास करने की धारा भी लगा दी। हालांकि यह धारा बाद में हटा दी गई लेकिन यह सरकार और पुलिस के मंसूबों को उजागर कर ही गया। लंबे समय से परीक्षाओं में हो रही धांधली को तो सरकार और पुलिस रोक नहीं पा रही है लेकिन साफ-सुथरी परीक्षा कराये जाने की मांग करने वाले प्रदर्शनकारियों के साथ पुलिस और सरकार अपराधियों जैसा व्यवहार कर रही है। कहां तो पेपर लीक करने वाले गिरोह के मुख्य कर्ता-धर्ताओं को पकड़ने में पुलिस को मुस्तैद होना था लेकिन वे तो बेरोरगारों पर ही टूट पड़े हैं। एक के बाद दूसरे और एक आयोग के बाद दूसरे आयोग से परीक्षा कराये जाने के बाद भी पेपर लीक को सरकार रोक नहीं पा रही है। उत्तराखंड का नाम भी उन राज्यों की सूची में तेजी से ऊपर आ रहा है जहां पेपर लीक होना सामान्य सी बात हो गई है। उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे एक मुख्य मुद्दा रोजगार का था। राज्य से बढ़ते पलायन को रोकने के लिए आंदोलनकारियों ने सोचा था कि उत्तराखंड बनने के बाद यहां के युवाओं को रोजगार मिलेगा। लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के राज में बेरोजगार ठगे गये हैं और उनके सपनों को कुचला गया है। चुनावी सभाओं में मोदी ने कहा था कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम आनी चाहिए लेकिन चुनाव जीतने के बाद भाजपा की सरकार बेरोजगारों को रोजगार देना तो दूर उन पर लाठी चला रही है और उनको जेलों में भेज रही है।

उत्तराखंड जैसे हाल और राज्यों के भी हैं। भर्ती परीक्षाओं के पेपरों का लीक होना पूरेunemployment देश की आम घटना बन चुकी है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार... में पिछले समय में कई-कई भर्ती परीक्षाएं लीक हुई हैं। यूं तो भर्ती परीक्षाओं में व्याप्त यह भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था में आम है। यह तेजी से और शार्टकट से पैसा बनाने और ‘सफलता’ खरीद लेने का आसान जरिया है। लेकिन इसके ही साथ यह बेरोजगारी की भयावहता को भी सामने ला देता है। जब चंद सरकारी नौकरियां ही बची हों तो उसे पाने के लिए लोग भीषण प्रतियोगिता में उतरने को मजबूर हैं। वे इन चंद सरकारी नौकरियों को पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाते हैं। जिसके चलते वे नकल माफिया या पेपर लीक कराने वाले गिरोह के शिकार बन जाते हैं। और जब इसका खुलासा होता है तो कुछ छोटी मछलियां ही फंसती हैं। अक्सर ही वे जेल की सलाखों के पीछे पाये जाते हैं जो पैसा देते हैं। बडे़ मगरमच्छ तो अगले शिकार पर निकल जाते हैं। यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इतने बड़े और व्यापक स्तर पर हो रहा यह खेल बगैर अंदरवाले, बगैर उच्च स्तर के अधिकारियों-मंत्रियों की संलिप्तता के नहीं हो सकता।

सरकारी नौकरी को सुरक्षित समझा जाता है। ये सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान करती है। इसीलिए लोग इसके लिए कई वर्षों तक मेहनत करते हैं और अपनी जमा पूंजी को दांव पर लगा देते हैं। लेकिन 1991 में निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद सरकारी नौकरियों की संख्या निरंतर घटती चली गई हैं। केन्द्र और राज्य सरकार की सरकारी नौकरियों दोनों जगह सरकारी पदों की संख्या सिमटती गई है। उसी अनुरूप बेरोजगारी भी बढ़ती रही है। आज क्या तो शहर और क्या तो गांव तथा क्या तो उच्च शिक्षित हर जगह बेरोजगारी आम है। यह समय के साथ बढ़ती गई है। केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा स्थाई नौकरी के स्थान पर अस्थाई और ठेका पर काम कराये जाने ने बेरोजगारी की समस्या में कोढ़ में खाज का काम किया है। आशा वर्कर, आंगनबाड़ी, भोजनमाता के अलावा विभिन्न विभागों में ठेके पर कार्यरत लोगों को आसानी से देखा जा सकता है। यहां पर कार्यरत लोग काम तो सरकारी करते हैं लेकिन वेतन के नाम पर बहुत मामूली रुपये पाते हैं। आशावर्कर, आंगनबाड़ी और भोजनमाताओं को तो वेतन के स्थान पर मानदेय दिया जाता है। यह पतित होती पूंजीवादी व्यवस्था की 21 वीं सदी में बेगारी के अलावा और कुछ नहीं है। यह बेगारी कोई कंपनी या पूंजीपति नहीं बल्कि नागरिक अधिकारों की रक्षक स्वयं सरकार द्वारा करायी जा रही है। उदारीकरण, निजीकरण के इस दौर में निजी क्षेत्र की कार्य परिस्थितियों और वेतन का अनुमान स्वयं ही लगाया जा सकता है। 1991 से अब तक का समय वह समय है जहां पूंजीवादी सरकारें अपनी जिम्मेदारी से क्रमशः पीछे हटती रही हैं। यह भारत में गरीबी, कुपोषण के बढ़ने का समय भी है। एक अच्छे रोजगार का अभाव इंसानी जीवन को कई संकटों से घेर लेता है।

पहले पहल कांग्रेस के नेतृत्व में उदारीकरण की नीतियों को जमीन पर उतारा गया लेकिन मोदी और भाजपा के सत्ता में आने के बाद इसकी गति बहुत तेज हो गई। मोदी सरकार तो सरकारी संपत्तियों को बेचने के लिए ही इतिहास में याद की जायेगी। 2014 में हर साल 2 करोड़ नौकरियां देने की बात कहने वाले मोदी सत्ता में आने के बाद पकौडा तलने को ही रोजगार कहने लगे तो अमित शाह ने तो इसे चुनावी जुमला कहकर पूंजीवादी लोकतंत्र की असलियत उजागर कर दी। जहां चुनाव जीतने के लिए किसी भी स्तर का झूठ बोलना आम बात है और इस पर कोई इन नेताओं से जवाबदेही भी नहीं ले सकता। पूंजीवादी लोकतंत्र में रोजगार के नाम पर और युवाओं के भविष्य के नाम पर बस जुमले ही उछाले जा रहे हैं। मोदी सरकार का ऐसे जुमले में कोई सानी नहीं है। यूं तो मोदी सरकार ने बेरोजगारी के आंकड़े जारी करने ही बंद कर दिये हैं। लेकिन बेरोजगारी इतनी भयावह है कि वह जब तब सामने आ ही जाती है। राज्यसभा के पूछे गये एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के राज्यमंत्री ने कहा कि केन्द्र सरकार के अलग-अलग विभागों में कुल 9 लाख 79 हजार 327 पद खाली हैं। मार्च 2021 के आंकड़ों के अनुसार रेलवे में 2 लाख 93 हजार 943 पद खाली थे तो गृह मंत्रालय में एक लाख 43 हजार 536 पद खाली थे। सुरक्षा बल में भी दो लाख चौसठ हजार 706 पद खाली थे। अगर इसमें विभिन्न राज्यों के रिक्त सरकारी पदों की संख्या को और जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा और भी अधिक हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार रिक्त पदों का यह आंकड़ा 60 लाख से अधिक का है। यह आंकड़ा वर्ष 2021 का है। आज के समय यह संख्या और बढ़ गयी होगी। इतनी भारी संख्या में रिक्त पदों पर नियुक्ति नहीं करना सरकार के मंसूबों को सामने ला देता है। यह सरकार स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, यंग इंडिया, कौशल विकास आदि का जाप करते हुए बेरोजगारी को भयावह स्तर पर ले जा रही है। बेरोजगारों के दर्द से इनको कोई लेना देना नहीं है। जो मामूली सी भर्तियां निकलती भी हैं उसके लिए एक लंबी और जटिल प्रक्रिया अपनाई जाती है। और इस पर भर्ती परीक्षाओं में भ्रष्टाचार जैसे मर्ज को ला इलाज कर देता है।

ऊपर की तालिका रिक्त पदों की स्थिति को बयां करती है। यह तालिका वर्ष 2014-15 से लेकर 2018-19 तक के स्वीकृत पदों में रिक्तियों को बयां करती है। जाहिर सी बात है कि समय के साथ स्वीकृत पदों की संख्या में वृद्धि होनी चाहिए थी लेकिन यहां तो उल्टी ही गंगा बह रही है। पहले के ही स्वीकृत पद जब नहीं भरे जा रहे हैं तो नये पदों के सृजन का मामला तो और भी मुश्किल हैं। पूंजी की सेवा में नतमस्तक सरकारें आज ऐसा करेंगी यह मुश्किल है। यह आंकड़े रिक्त पदों में वर्षवार क्रमिक बढ़ोत्तरी को दर्शा रहे हैं। (देखें तालिका)

रोजगार के मामले में सरकारों का रुख बेशर्मी भरा है। सरकारें बेशर्मी से कह रही हैं कि नौकरी देना उनका काम नहीं है। पूंजी और पूंजीपतियों की सेवा में नतमस्तक मोदी सरकार तो दो कदम आगे बढ़ते हुए देश के सार्वजनिक उपक्रमों को पूंजीपतियों को सौंपने का अभियान लिये हुए है। अभी हाल ही में अडानी प्रकरण इस बात को साबित कर देता है। कैसे मोदी जी के राज में अडाणी दुनिया का तीसरा सबसे अमीर व्यक्ति बन गया। मोदी सरकार में ही मजदूरों के शोषण को और बढ़ाने के लिए श्रम कानूनों को बदला गया। हर जगह स्थायी नौकरी के स्थान पर नीम, ट्रेनी जैसे अल्पअवधि के रोजगार को बढ़ावा दिया जा रहा है। मालिकों को जब चाहो रखो और जब चाहो निकालो की पूरी छूट दे दी गयी है। इसके अतिरिक्त असंगठित क्षेत्र के तहत काम करने वाली मेहनकतश जनता के लिए तो पहले भी कोई श्रम कानून नहीं थे। लेकिन जब संगठित मजदूरों की हालत खराब होगी, जब उनका शोषण बढ़ेगा तो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों में शोषण और उत्पीड़न की दर और तेज हो जायेगी। यह मोदी सरकार ही है जिसने सेना में भी ठेके की भर्ती शुरू कर दी है। यह सब करने वाले प्रधानमंत्री मोदी बेरोजगारों को स्वरोजगार करने की सलाह दे रहे हैं। उनको दूसरों को रोजगार देने वाला बनने की सलाह दे रहे हैं। असल में वे युवाओं को छल रहे हैं। सरकारी विभागों में रिक्त पदों से जनता पर दोहरी मार पड़ रही है। आईआईटी, आईआईएम, नवोदय विद्यालय, केन्द्रीय विद्यालय सहित स्कूल कालेजों में लाखों पद खाली पड़े हुए हैं। यह शिक्षा के स्तर को गिरा रहे हैं। एक तरफ जिस विभाग या संस्थान में ये पद रिक्त हैं उससे संबंधित सेवा पर इसका नकारात्मक असर पड़ता है। शिक्षा संस्थान, बैकं, स्वास्थ्य सेवाएं जैसी सेवाओं में इनकी गुणवत्ता में गिरावट आई है। वहीं दूसरी तरफ यह सुरक्षित जीवन जीने से लोगों को वंचित कर देता है जो कि रोजगार पाने पर किसी को हासिल होता। रोजगार का सवाल भारतीय समाज में एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। शासकों की बेशर्म बेरुखी जब तब युवाओं को संघर्ष के मैदान में उतरने को मजबूर कर रही है। उत्तराखंड में भर्ती परीक्षा में धांधली के खिलाफ राज्य के युवा सड़कों पर हैं। लेकिन कभी एक राज्य में तो कभी एक साथ कई राज्यों में युवा रोजगार की मांग को लेकर सड़कों पर अपना आक्रोश व्यक्त करते रहे हैं। सेना में ठेका प्रथा- अग्निपथ के विरोध में हुए आंदेलन में तो युवा हिंसक हो गये। इसी तरह रेलवे की भर्ती परीक्षा में अंतिम समय में बदलाव करने के विरोध में भी कई राज्यों के छात्र युवा सड़कों पर आ उतरे। लेकिन बेरोजगारी के खिलाफ बार-बार प्रकट होने वाला यह गुस्सा अंदर ही अंदर बढ़ता जा रहा है। भीषण पुलिसिया दमन को सहते हुए भी बार-बार युवा सड़कों पर उतर रहे हैं। युवा लाठी खा खून से लथपथ हो रहे हैं। वे कठोर धाराओं में मुकदमा सह रहे हैं। वे जेलों में जा रहे हैं। लेकिन इस दमन के बाद भी सरकारें अपनी मन की नहीं कर पा रही है।

बेरोजगारों, युवाओं, छात्रों का यह आंदोलन देश स्तर पर एकजुट न होने के कारण तात्कालिक गुस्से को प्रकट करने तक ही सिमट जाता है। युवा देशव्यापी एकता को बनाकर और देश स्तर पर आंदोलन छेड़ने के बाद ही बेशर्म सरकारों को कुछ रोजगार देने को मजबूर कर सकते हैं। इसके साथ ही पूंजीवादी व्यवस्था को अपने निशाने पर लिये बगैर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। आज के समय में बेरोजगारी के लिए पूंजीवादी व्यवस्था जिम्मेदार है। पूंजीवाद को खत्म किये बगैर बेरोजगारी को खत्म नहीं किया जा सकता। इस व्यवस्था के दायरे में भी जनविरोधी उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों को पलटे बगैर बेरोजगारी को कम नहीं किया जा सकता। प्रगतिशील और क्रांतिकारी विचारों से लैस युवा समाज के गतिरोध को तोड़ने और समाज को आगे बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं। भगत सिंह और उनके साथी इसका प्रतीक उदाहरण हैं। आज अपने इन्हीं पूर्वजों से सीख लेते हुए आगे बढ़ने की जरूरत है।

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