परिसीमन : उपजती आशंका और बढ़ता तनाव

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आजकल दक्षिण भारत के राज्यों में खासकर इन राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं में बहुत बेचैनी है। यह बेचैनी कभी परिसीमन, कभी नई शिक्षा नीति, कभी भाषा के सवाल पर फूट पड़ती है। इनमें भी सबसे ज्यादा क्षोभ व आक्रोश संभावित जनगणना (जो कि 2026 में होनी है) के बाद किये जाने वाले परिसीमन को लेकर है। परिसीमन के बाद दक्षिण के राज्यों का संसद में प्रतिनिधित्व घट जायेगा। दक्षिण भारत के राज्यों के सांसदों की संख्या गिरने का एक मतलब यह होगा कि उनकी आवाज संसद में कम सुनी जायेगी, प्रतिनिधित्व कम होगा। और दूसरा मतलब यह होगा कि दक्षिण भारत की पार्टियां की केन्द्र में गठबंधन सरकार के दौर में सौदेबाजी की क्षमता कम हो जायेगी। वैसे ही पहले से दक्षिण भारत के राज्यों का केन्द्र पर सौतेले व्यवहार का आरोप है। उनका तर्क है कि वे केन्द्र के खजाने में करों का जितना बड़ा योगदान करते हैं उसके अनुरूप उन्हें केन्द्र से अनुदान व सहायता नहीं मिलती है। इन बातों में सच्चाई का अंश है। 
    
परिसीमन के बाद संसद में दक्षिण भारत के सांसदों की संख्या के गिरने व उत्तर भारत के राज्यों खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश आदि के सांसदों की संख्या के बढ़ने का कारण जनसंख्या है। दक्षिण भारत के राज्यों की प्रजनन दर 2 से नीचे (आंध्र प्रदेश : 1.70, कर्नाटक : 1.70, केरल : 1.80, तमिलनाडु : 1.80, तेलंगाना : 1.82) है। इसके उलट उत्तर भारत के राज्यों की प्रजनन दर 2 अंक(तथ्य : जनसत्ता 9 मार्च) से ऊपर (बिहारः 3.0, उत्तर प्रदेशः 2.35, मध्य प्रदेशः 2.0, राजस्थानः 2.0) है। क्योंकि भारत में ‘एक नागरिक, एक वोट’ का सिद्धान्त काम करता है इसलिए इसका उपरोक्त परिणाम परिसीमन के बाद निकलना है। वर्तमान ढांचे में ऐसा होना ही होना है। दक्षिण भारत के राज्य तो भी मुखर हैं। परन्तु अपेक्षाकृत कम जनसंख्या वाले राज्य, जो कि मुखर नहीं हैं, उनके साथ भी ऐसा ही होना है। ज्यादा जनसंख्या मतलब संसद में ज्यादा सांसद हैं। 
    
‘एक नागरिक, एक वोट’ के सिद्धान्त की सीमा व अंतरविरोध वैसे ही सामने आने लगते हैं जैसे ही इसे भारत जैसे बहुराष्ट्रीय देश में लागू किया जाता है। भारत का संविधान इसे ‘राज्यों का संघ’ भले ही कहता हो परन्तु यहां हर कदम पर ‘संघवाद’ के स्थान पर ‘केन्द्रवाद’ हावी है। अधिक जनसंख्या वाले राज्य ‘एक नागरिक, एक वोट’ के सिद्धान्त में संसद व सरकार में प्रमुख व ताकतवर होते हैं जबकि कम जनसंख्या वाले राज्य कमजोर और गौण होते हैं। क्योंकि आजादी के बाद भारत के बड़े पूंजीपति वर्ग की जरूरत कठोर केन्द्रवाद की थी इसलिए उन्होंने भारत के संविधान में भले ही भारत को ‘राज्यों का संघ’ कहा हो परन्तु उसी संविधान से लगातार केन्द्र, राज्यों पर हावी होता गया। आज के हिन्दू फासीवादी शासक तो ‘संघ’ की धारणा की ऐसी-तैसी करने में बड़ी ही चालाकी और धूर्तता से लगे हुए हैं। इनका ‘एक देश, एक भाषा’, आदि बातों का स्वाभाविक नतीजा राज्यों या दूसरे शब्दों में राष्ट्रीयताओं की विविध विशिष्टताओं, अधिकारों आदि का बलपूर्वक खात्मा करना है। ऐसे में परिसीमन के बाद हिन्दू फासीवादियों की क्षमता में काफी वृद्धि हो जायेगी। पहले से ही केन्द्र का हर मामले में वर्चस्व और अधिक बढ़ जायेगा। हिन्दू फासीवादी जो चाहते हैं वह आसानी से मिल जायेगा। 
    
ऐसे में समाधान का कोई रास्ता वर्तमान पूंजीवादी संवैधानिक-राजनैतिक ढांचे में सम्भव नहीं है। या तो परिसीमन के बाद केन्द्र धक्कड़शाही का रुख अपनाता जायेगा। या फिर बड़े प्रतिरोध के बाद परिसीमन के सवाल को टाल दिया जायेगा। ऐसी सूरत में ‘एक नागरिक, एक वोट’ का सिद्धान्त कहीं कोने में पड़ा रहेगा। 

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।