सावित्री बाई फुले एक महान समाज सुधारक और योद्धा थीं जिन्होंने 19वीं सदी में ब्राह्मणवादी वर्जनाओं को साहसपूर्वक तोड़ते हुये सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक अन्धविश्वास के विरुद्ध तीखा संघर्ष किया और लड़कियों-महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया; उन्हें हमारे देश की प्रथम महिला शिक्षक के रूप में भी जाना जाता है। समाज बदलाव की लड़ाई में लगे प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी संगठन प्रति वर्ष उनके जन्मदिवस पर विभिन्न कार्यक्रम कर उनके संघर्षों को याद करते हैं और उनसे प्रेरणा हासिल करते हैं।
हरिद्वार में प्रगतिशील महिला एकता केंद्र और इंकलाबी मजदूर केंद्र ने इस मौके पर एक परिचर्चा का आयोजन किया। परिचर्चा में वक्ताओं ने कहा कि सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में एक किसान परिवार में हुआ था। यह वह दौर था जबकि ब्राह्मणवादी मूल्यों-मान्यताओं के तहत महिलाओं का शिक्षा हासिल करना अशुभ माना जाता था; यहां तक कि शूद्र और दलित जाति के पुरुष भी यदि शिक्षा हासिल करने की कोशिश करते थे तो उन्हें भी सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ता था। ऐसे दौर में सावित्री बाई फुले ने ब्राह्मणवादी प्रतिरोध का साहसपूर्वक मुकाबला करते हुए लड़कियों-महिलाओं को शिक्षित करने का अभियान शुरू किया था।
रामनगर में इस मौके पर व्यापार मंडल कार्यालय में एक विचार गोष्ठी और प्रगतिशील सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें प्रगतिशील महिला एकता केंद्र, इंकलाबी मज़दूर केंद्र, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी और परिवर्तनकामी छात्र संगठन के कार्यकर्ताओं ने भागीदारी की।
विचार गोष्ठी में वक्ताओं ने कहा कि जब सावित्री बाई फुले लड़कियों-महिलाओं को पढ़ाने जाती थीं तो ब्राह्मणवादी सोच से ग्रसित लोग उन पर कीचड़ और गोबर फेंक दिया करते थे। इतना ही नहीं सामाजिक दबाव में ज्योतिबा फुले के पिता ने ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले को घर से ही निकाल दिया था, लेकिन उन्होंने घबराकर पीछे हटने के बजाय हर मुश्किल परिस्थिति का सामना किया और अपने आंदोलन को जारी रखा। उस्मान शेख और फातिमा शेख, जो कि भाई-बहन थे, ने हर मुश्किल घड़ी में उनकी सहायता की।
विचार गोष्ठी के साथ प्रगतिशील सांस्कृतिक कार्यक्रम भी जारी रहा, जिसमें महिलाओं का प्रसिद्ध संघर्षशील गीत ‘‘नारी मुक्ति झंडा हम फहरायेंगे’’, क्रांतिकारी शायर फैज अहमद फैज की नज्म ‘‘ये दाग़ दाग़ उजाला’’ एवं हबीब जालिब की सत्ता को चुनौती देने वाली नज्म ‘‘ऐसे दस्तूर को मैं नहीं मानता’’, जनसंघर्ष का कुमाऊंनी गीत ‘‘लसका कमर बांधा’’ एवं कुमाऊंनी लोकगीत ‘‘उत्तराखंड मेरी मातृभूमि’’ और फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष को समर्पित गीत ‘‘जिओ फिलीस्तीन....’’ इत्यादि गाये गये।
रामनगर में ही इस अवसर पर कालू सिद्ध, नई बस्ती में एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें महिला एकता मंच, समाजवादी लोक मंच, साइंस फार सोसाइटी एवं किसान संघर्ष समिति के कार्यकर्ताओं व क्षेत्र की महिलाओं ने भागीदारी की। कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित लेखक एवं फिल्म निर्माता नीरा जलक्षेत्री ने भारतीय समाज में सावित्री बाई फुले के योगदान पर प्रकाश डालते हुये कहा कि समाज में महिलाओं के साथ गैर बराबरी खत्म हो इसके लिये आवश्यक है कि हर घर से सावित्री बाई फुले निकले।
इसके अलावा रामनगर में ही इस अवसर पर शिक्षक मंडल द्वारा सांस्कृतिक यात्रा निकाली गई।
जसपुर (उधमसिंह नगर) में इस मौके पर एक सभा कर सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष में सावित्री बाई फुले और उनके पति ज्योतिबा फुले के योगदान पर विस्तार से चर्चा की।
लालकुआं में इस मौके पर प्रगतिशील महिला एकता केंद्र और इंकलाबी मजदूर केंद्र द्वारा एक सभा की गई। सभा में वक्ताओं ने कहा कि सावित्री बाई फुले ने 1848 में लड़कियों के लिये पहला स्कूल खोला और 1851 आते-आते उन्होंने तीन स्कूलों की स्थापना की जिनमें करीब 150 युवतियां पढ़ रही थीं। 1852 में उन्होंने महिला सेवा मंडल की स्थापना की जिसका उद्देश्य समाज को महिला शिक्षा और अधिकारों के प्रति जागरुक करना था। सावित्री बाई फुले ने समाज में फैली कुप्रथाओं- अंध विश्वास, बाल विवाह एवं विधवा को विवाह की छूट न होने के विरोध में आवाज उठाई।
बदायूं में इस अवसर पर विचार गोष्ठी एवं प्रगतिशील सांस्कृतिक कार्यक्रम किया गया, जिसमें जनहित सत्याग्रह मोर्चा, क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन, राष्ट्रीय दलित-पिछड़ा अल्पसंख्यक फेडरेशन, प्राइवेट टीचर्स एसोसिएशन से जुड़े लोगों एवं बरेली से आये प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच के कार्यकर्ताओं ने भागीदारी की।
विचार गोष्ठी में सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख के जीवन दर्शन एवं नारी मुक्ति के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई। वक्ताओं ने कहा कि आज भी भू्रण हत्या, दहेज प्रथा, कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ गलत व्यवहार, यौन हिंसा इत्यादि के विरुद्ध एकजुट होकर संघर्ष किये जाने की जरूरत है।
गुड़गांव में हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी 3 जनवरी को सावित्री बाई फुले जन्मोत्सव समिति द्वारा सबरंग मेला आयोजित किया गया।
इसके अलावा 9 जनवरी को फातिमा शेख की जयंती पर जनहित सत्याग्रह मोर्चा के तत्वाधान में रमजानपुर में एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में तमाम छात्र-छात्राओं, जनहित सत्याग्रह मोर्चा के बदायूं से गए साथियों तथा रमजानपुर के ग्रामवासियों ने भागीदारी की। सभा में वक्ताओं ने कहा कि ज्योतिबा राव और सावित्रीबाई के स्त्री शिक्षा और जाति विरोधी विचारों को उस समय समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया। जब अपने विचारों के लिए उन्हें घर से निकाल दिया गया और वे समाज में अलग-थलग पड़ गए तो फातिमा शेख और उनके भाई उस्मान ने ही उन्हें शरण दी। फातिमा शेख ने भी सावित्रीबाई फुले के साथ स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। महिला शिक्षा के प्रति अपने प्रयासों में वह इतनी कटिबद्ध थीं कि वे घंटों उन अभिभावकों को समझाती थीं जो अपनी लड़कियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते थे। उन्हें 19वीं शताब्दी की पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका भी माना जाता है जिन्होंने अन्य मुस्लिम महिलाओं को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित किया।
-विशेष संवाददाता
सावित्री बाई फुले-फातिमा शेख की याद में विभिन्न कार्यक्रम
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।