अपने विरोधियों को एक करते मोदी

पटना बैठक

23 जून को पटना में देश के प्रमुख विपक्षी पार्टियों की एक लम्बी बैठक हुयी। इस बैठक के बाद विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने साझा प्रेस सम्मेलन कर यह संदेश देने की कोशिश की कि वे आगामी आम चुनाव में भाजपा को हराने के लिए ‘एकजुट होकर’, पूरी तरह से तैयार हैं। कहा गया कि अगली बैठक जुलाई में शिमला में होगी। शिमला की बैठक में विपक्षी पार्टियां भाजपा को हराने के लिए ठोस रणनीति तय करेंगी। 
    
भाजपा के नेताओं ने विपक्षी पार्टियों का किस्म-किस्म ढंग से मजाक उड़ाया। किसी ने कहा कि इस बारात में हर कोई दूल्हा है। लालू प्रसाद यादव ने अपने अंदाज में इस बात का जवाब यूं दिया कि ‘अब राहुल को दूल्हा बन जाना चाहिए।’ पटना की बैठक का नजारा रंग-बिरंगा था। हिन्दुत्ववादी शिवसेना, समाजवादी नीतीश-लालू-अखिलेश से लेकर अपने को कम्युनिस्ट कहने वाले भाकपा-माकपा आदि भी इसमें शामिल थे। यहां तक कि दीपांकर भट्टाचार्य जैसे तथाकथित मार्क्सवादी लेनिनवादी भी थे। भ्रष्टाचार के आरोप में घिरी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में बनी आप पार्टी भी थी। विपक्षी दलों की पटना बैठक में कईयों का कद ऊंचा हो गया तो कईयां को अपना कद छोटा करना पड़ा ताकि बाकी के साथ मंच साझा कर सकें। और इसी तरह कईयों को लगा कि कांग्रेस को केन्द्र में रखकर होने वाली इस बैठक में जायेंगे तो कहीं उनका कद ही गायब न हो जाये। सबसे अजीब स्थिति आप पार्टी की थी। उनके नेता प्रेस कांफ्रेंस से गायब थे। वह कांग्रेस पार्टी से केन्द्र सरकार द्वारा लाये गये एक अध्यादेश के विरोध के लिए उसका समर्थन चाहती है। परन्तु कांग्रेस पार्टी आप पार्टी की सौदेबाजी की चाल में उलझने से बच रही है। आप पार्टी का चुनावी विकास कांग्रेस की कीमत पर ही हुआ है। विपक्षी दलों की बैठक का मूल स्वर मोदी सरकार की तानाशाही था। इसे किसी ने हिन्दुत्ववादी कारपोरेट की सरकार की तानाशाही तो किसी ने कहा कि ‘‘गांधी के मुल्क को गोडसे का मुल्क नहीं बनने देंगे’’।     
    
विपक्षी दलों की इस एकता की कवायद ने जहां भाजपा को एक हद तक चौकन्ना और चिंतित कर दिया। वहीं वाम उदारवादी हलकों में एक आशा, उत्साह का संचार कर दिया। वे भाजपा-संघ के फासीवाद को, इनके फासीवादी मंसूबों को ‘चुनाव में जीत’ हासिल करके पराजित करने का मंसूबा पालते हैं। ये लोग भूल जाते हैं कि अतीत में कई दफा ये मंसूबे पाले जा चुके हैं। 2004 में तो एक हद तक कामयाबी हासिल कर भी चुके हैं परन्तु भाजपा-संघ की ताकत में कमी चुनावी हार से खास नहीं आयी। 2014 में उन्होंने वापसी की और पहले से भी ज्यादा वीभत्स और क्रूर ढंग से अपनी कार्यसूची को लागू किया। राम मंदिर, धारा 370, विभिन्न संस्थानों में हिन्दू फासीवादियों को बिठाने से लेकर समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर वे सभी चालें चल चुके हैं। 
    
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का लगभग देशव्यापी नेटवर्क है। लाखों की संख्या में स्वयं सेवक हैं और बीसियों संस्थाएं हैं। भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, सेवा भारती, भारत विकास परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे फासीवादी राजनीति पर चलने वाले संगठनों के दम पर संघ अपना वैचारिक, सामाजिक प्रभुत्व बनाकर रखता है। मीडिया के अधिकांश हिस्से में संघ के नुमाइंदे मौजूद हैं। इस हिन्दू फासीवादी संस्था के पास संसाधनों का कोई अभाव नहीं है। इसके खजाने में अरबों-खरबों रुपये हैं। विदेशों में काम करने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अलग से संस्थाओं का जाल बिछाया हुआ है। संयुक्त राज्य अमेरिका सहित पूरी दुनिया में संघ की विदेशी शाखा ‘हिन्दू स्वयं सेवक संघ’ के दफ्तर हैं। ये संघ के कार्यक्रमों के लिए तरह-तरह से पैसा जुटाते हैं। विदेशों में ‘मोदी-मोदी’ के नारे लगाने के लिए भीड़ का इंतजाम यही एच एस एस करता है। 
    
जाहिरा तौर पर हिन्दू फासीवादी संगठन का विस्तार मोदी राज में तेजी से हुआ है। और अपने जन्म शताब्दी वर्ष (1925-2025) में संघ अपने फासीवादी मंसूबों को नये सिरे से परवान चढ़ाना चाहता है और इसके लिए वे किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। 
    
विपक्षी दलों की एकता अधिक से अधिक चुनावी जीत हासिल कर सकती है। परन्तु यह जीत हिन्दू फासीवाद की जड़ों में मट्ठा नहीं घोल सकती। 
    
विपक्षी दलों की एकता का रास्ता कांटों से भरा है। और भले ही राहुल गांधी कितनी ही विचारधारा के संघर्ष की बात करे असल में भाजपा-संघ की जमीन को स्वयं ये भी अपने पूर्वजों की तरह खाद-पानी मुहैय्या कराते रहे हैं। ये उनको फलने-फूलने का पूरा अवसर देते रहे हैं। 
    
हिन्दू फासीवाद के मुख्य सहयोगी-समर्थक इस दफा अम्बानी-अडाणी जैसे एकाधिकारी घराने हैं। अम्बानी-महिन्द्रा जैसे खरबपतियों को मोदी के साथ अमेरिका की राजकीय यात्रा में देखा गया है। बदनाम अडाणी इस वक्त मोदी के साथ नहीं था परन्तु जिस गति से अडाणी को क्लीन चिट भारत में मिली उससे साफ है कि मोदी का हाथ अडाणी के साथ बना हुआ है।  

आलेख

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।