
रामकथा कहने वाली वाल्मीकि रामायण के बाद कई सारी रामायण आ चुकी हैं। एक शोधकर्ता रामानुजन ने तो दुनिया भर में तीन सौ रामायण का दावा करते हुए किताब लिखी है जिसे हिन्दू फासीवादियों के दबाव में दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटा दिया गया। अब हिन्दू फासीवादी अपनी खुद की रामायण लेकर सामने आये हैं। यह फिल्मी रामायण है और इसका नाम है ‘‘आदिपुरुष’’।
हिन्दू फासीवादियों की यह रामायण उनके चरित्र के बिल्कुल अनुरूप लम्पटों की रामायण है। इसे ‘लंपट रामायण’ का नाम भी दिया जा सकता है। या इसे ‘हिन्दू फासीवादी रामायण’ भी कहा जा सकता है। इसमें राम और हनुमान बिल्कुल वैसे ही हैं जैसा पिछले सालों में हिन्दू फासीवादियों द्वारा गाड़ियों के शीशे पर लगाये गये स्टिकर पर दीखते हैं- गुस्से से भरे हुए।
वे बस भूल जा रहे हैं कि भारत के लंपट पूंजीवाद के विकास ने तथा पिछले तीन-चार दशकों के हिन्दू फासीवादियों के उभार ने इस परंपरा को कब का विकृत कर दिया है। इसको पूरी तरह भ्रष्ट कर उपभोक्तावादी बना दिया गया है। इसमें छिछोरेपन और लंपटपन की भरमार है।
भारत की पुरानी वर्ण व्यवस्था यानी शूद्र-अन्त्यज (पिछड़ा-दलित) तथा स्त्री विरोधी परंपराओं में यदि कभी कुछ अच्छा और सौम्य था भी तो वह कब का हवा हो चुका है। अब तो हिन्दू फासीवादियों के उभार के काल में उसमें बस छिछोरापन और लंपटपन ही बचा है। यदि किसी को इसमें शक हो तो बजरंग दल द्वारा आजकल मजदूर और गरीब बस्तियों में आयोजित किये जा रहे धार्मिक कार्यक्रमों को जाकर देख लें। वैसे भी देश के लोग ‘साध्वी’ रितम्भरा से लेकर ‘साध्वी’ प्रज्ञा और प्राची के रूप में इससे बखूबी परिचित हैं।
लंपट हिन्दू फासीवादियों ने अपनी ‘लंपट रामायण’ इन्हीं लंपटों के लिए बनाई है। उन्हें उम्मीद थी कि उनके लंपट भाई-बंधु इसे हाथों-हाथ लेंगे। पर वे भूल गये कि हिन्दू समाज हमेशा से ही बहुत पाखंडी रहा है। वह वर्ण व्यवस्था वाले समाज का निर्माण करते हुए वसुधैव कुटुम्बकम की बात करता रहा है। वह नारियों की पूजा की बात करते हुए उन्हें सती के नाम पर जलाता रहा है।
इस पाखंडी समाज ने अपने लंपटपन पर रामनामी चादर डालकर अचानक सभ्य-सुशील होने का दिखावा शुरू कर दिया। इसमें हिन्दू फासीवादी भी शामिल हैं। सोशल मीडिया पर दिन-रात अपने लंपटपन का परिचय देने वालों को अचानक मर्यादा पुरुषोत्तम राम वाली रामायण की याद आ गई। ‘लंपट रामायण’ को कोसते हुए मानो वे स्वयं को ही कोसने लगे। वैसे भी हिन्दुओं में समय-समय पर गंगा नहा कर पाप धोने की पुरानी परंपरा है। गंगा स्नान से बाहर आते ही फिर पापकर्म शुरू हो जाता है।
‘लंपट रामायण’ का यह हश्र दो चीजें दिखाता है। एक तो यह कि समाज में अभी भी हिन्दू फासीवादियों के इतने विरोधी मौजूद हैं कि वे उन्हीं के हथियारों से उन्हें घेरकर दायें-बायें झांकने के लिए मजबूर कर सकते हैं, हालांकि यह रणनीति प्रतिगामी है क्योंकि इसमें हिन्दू फासीवादियों के ही हथियारों का इस्तेमाल किया जा रहा होता है। इससे केवल जहालत और पोंगापंथ को ही बढ़ावा मिलता है। इससे सड़ी-गली परंपरा को ही बल मिलता है, कोई नई स्वस्थ परंपरा स्थापित नहीं होती।
दूसरी चीज यह कि लंपट फासीवादी जिस प्राचीन हिन्दू परंपरा की दुहाई देते रहते हैं, कई बार वही उनके गले का फंदा बन जाती है। हैं वे आधुनिक जमाने के लंपट पर बातें हमेशा अतीत की करते हैं। वह अतीत कई बार उनके गले पड़ जाता है। यह कुछ ऐसे ही है जैसे नाइट क्लबों में सुरापान करने वाले को मुंडन करवा कर गौमूत्र सेवन करना पड़े। यह वह विरोधाभास है जिससे लम्पट हिन्दू फासीवादी कभी पार नहीं पा सकते।