धनपशुओं की लालसा

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किसी भी औद्योगिक क्षेत्र में आये दिन मजदूर दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। आये दिन कभी किसी मजदूर का हाथ मशीन में आ जाता है तो कभी थोड़ी सी असावधानी उसके जीवन को हमेशा के लिए मुसीबत में डाल देती है। किसी भी औद्योगिक क्षेत्र के सरकारी या ईएसआई अस्पतालों में घायल मजदूरों को देखा जा सकता है। ये औद्योगिक दुर्घटनाएं क्यों होती हैं। इनका सबसे बड़ा कारण है अत्यधिक काम। कभी-कभी तो मजदूर चौबीस तो क्या छत्तीस घण्टों तक लगातार काम करते रहते हैं। काम के घण्टे आम तौर पर ही बारह से चौदह तक हो चुके हैं। कुछ सरकारी और बड़ी कम्पनियों के मेन प्लांट ही इस बात के अपवाद हैं जहां आज भी काम के घण्टे आठ हैं। अन्यथा हर कहीं काम के घण्टे कम से कम 12 हैं।

ऐसे में जब कोई धनपशु काम के घण्टे और अधिक बढ़ाने की मांग करता है तो इसका क्या मतलब है। क्या वह यह चाहता है कि मजदूर और अन्य कर्मचारी असमय ही मौत के मुंह में चले जायें। अभी कुछ समय पहले ही बेंगलुरू में एक जवान कर्मचारी की अत्यधिक काम की वजह से मौत हो चुकी है।

आलीशान घरों में रहने वाले धनपशु जिन्होंने मजदूरों की मेहनत को लूट-लूट कर सारे ऐय्याशी के साधन जुटा रखे हैं वे उपदेश दे रहे हैं कि मजदूरों-कर्मचारियों को हफ्ते में 90 घण्टे काम करना चाहिए। रविवार को भी आराम नहीं करना चाहिए।

पहले इन्फोसिस के मालिक नारायण मूर्ति ने हफ्ते में 70 घण्टे काम की वकालत की फिर उससे बढ़कर एक और धनपशु लार्सन एण्ड टुब्रो (एल एण्ड टी) के अध्यक्ष एस एन सुब्रमण्यम ने सप्ताह में 90 घण्टे के काम की वकालत शुरू कर दी। यह धनपशु मजदूरों-कर्मचारियों के पारिवारिक जीवन को अपमानित ही नहीं कर रहा है बल्कि उसे पूरी तरह से खत्म कर देना चाहता है। कहता है, ‘कौन अपनी बीबी को कितनी देर घूम सकता है’। ये धनपशु अपनी बीबी के अलावा कहां-कहां और क्या-क्या घूरते हैं इसकी असंख्य कहानियां हैं। आये दिन धनपशुओं के व्यक्तिगत जीवन के खुलासे होते रहते हैं।

70-90 घण्टे काम के सप्ताह का मतलब यही निकलेगा कि मजदूर-कर्मचारी न तो आराम कर सकें और न मनोरंजन कर सकें। न अपने पारिवारिक जीवन और न सामाजिक जीवन को जी सकें। मशीन की तरह वे रात-दिन बस पूंजीपतियों की तिजोरी को भरते रहें। होना तो चाहिए था कि काम के घण्टे कम होते और उन लोगों को काम का अवसर मिलता जो बेरोजगार हैं। परन्तु ये धूर्त धनपशु तो मजदूरों-कर्मचारियों को निचोड़ लेना चाहते हैं।

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आलेख

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सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।

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समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।    

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फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।

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यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।