अतीत में धर्म और राजनीति

हिन्दू फासीवादी मध्यकाल के मुसलमान बादशाहों के शासन को भारत की गुलामी के रूप में पेश करते हैं। असल में उनका मतलब होता है कि मुसलमानों ने, कम से कम, मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं को गुलाम बना लिया था। इसके लिए वे उस दौरान मुसलमान शासकों द्वारा हिन्दुओं के साथ भेद-भाव और उनके धार्मिक उत्पीड़न को प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं। वे इस संदर्भ में कुरान, हदीस और शरिया का भी हवाला देते हैं। 
    
यह सही है कि कुरान, हदीस और शरिया की जो व्याख्याएं की गईं वे गैर-मुसलमानों के साथ भेदभाव की वकालत करती थीं। इस्लाम गैर-मुसलमानों को दो श्रेणियों में बांटता था- एक आसमानी किताबों वाले और दूसरे अन्य। आसमानी किताबों वालों में यहूदी, इसाई, पारसी और हिन्दू आते थे। ये संरक्षित लोग थे। इनके साथ जोर-जबर्दस्ती नहीं की जा सकती थी। इन्हें अपने पूजा-पाठ की छूट थी। पर इन्हें एक विशेष कर जजिया देना होता था। वे राज-काज के बड़े पदों पर नियुक्त नहीं हो सकते थे। वे न तो ज्यादा दौलत इकट्ठी कर सकते थे और न शानो-शौकत से रह सकते थे। उनके पहनावे अलग होने थे और उन्हें अलग बस्तियों में रहना था। कुल मिलाकर वे दूसरे दर्जे के लोग थे। जहां तक गैर-आसमानी किताबों वाले लोगों का सवाल है, उनके साथ कुछ भी किया जा सकता था। 
    
जैसा कि हमेशा होता है, व्यवहार में बादशाहों ने इन मामलों में हमेशा व्यवहारवादी रुख अपनाया। वे अपने राज पाट की जरूरतों के हिसाब से चले। इस्लाम की दूसरी सदी से यानी अब्बासी खलीफाओं के समय से इस्लामी दुनिया में गैर-अरबों का प्रभुत्व हो गया और उनकी सभ्यता-संस्कृति की छाप इस पर पड़ गई। गैर-मुसलमानों के साथ मुसलमान शासकों ने वही व्यवहार किया जो आम तौर पर ही शासक करते हैं। तब भी कहना होगा कि कुल मिलाकर इस्लामी दुनिया में गैर-मुसलमानों की स्थिति उससे बेहतर रही जो इसाई दुनिया में गैर-इसाईयों की थी। आज की धारणा के विपरीत सच्चाई यही है कि मध्य काल में इस्लामी दुनिया में गैर-मुसलमानों के प्रति ज्यादा सहिष्णुता बरती गई थी- कम से कम इसाई शासकों की तुलना में।
    
पर इसके बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि धर्म के आधार पर भेदभाव तो था। एक ऐसे समाज में जिसमें धर्म जिंदगी का बेहद अहं हिस्सा हो तथा धर्म और राजनीति आपस में मिले हुए हों, तब अन्यथा हो भी नहीं सकता था। यह सारे ही समाजों में था- इसाई, मुसलमान, हिन्दू सभी समाजों में।
    
मध्यकाल के मुसलमानी शासन में हिन्दुओं के साथ भेदभाव पर हाय तौबा मचाने वाले हिन्दू फासीवादी एक सामान्य सी सच्चाई भूल जाते हैं। यह सच्चाई है स्वयं हिन्दू समाज की स्थिति। तब हिन्दू समाज वर्णों और जातियों में विभाजित था। इनके बीच भयंकर भेदभाव था। शूद्र और अछूत न तो पढ़-लिख सकते थे और न राजपाट के पदों पर जा सकते थे। वे पुरोहित तो बन ही नहीं सकते थे। उन्हें बेहद घटिया माने जाने वाले शारीरिक श्रम में ही लगना था। उन्हें ऊपर के तीन वर्णों की सेवा करनी थी। वे न तो दौलत रख सकते थे और न शानो-शौकत का प्रदर्शन कर सकते थे। अछूतों के लिए और भी कठोर नियम-कानून थे। 
    
महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मध्यकाल में मुसलमान शासक धर्म के आधार पर भेदभाव के नियमों का उल्लंघन कर अपने राजपाट की जरूरतों के हिसाब से चलते थे पर हिन्दू समाज में ऐसा नहीं होता था। यहां हिन्दू शासक शूद्रों और अछूतों के साथ उस तरह का व्यवहारवादी रुख नहीं अपनाते थे। 
    
हिन्दू फासीवादी इसे यह कहकर नहीं टाल सकते कि यह धार्मिक भेदभाव नहीं था। यह धार्मिक भेदभाव ही था। एक तो इसलिए कि हिन्दू धर्म में धर्म का तब मतलब ही था वर्ण और जाति व्यवस्था। अपने धर्म का पालन करने का मतलब था वर्ण-जाति व्यवस्था के हिसाब से चलना। दूसरे इस वर्ण-जाति व्यवस्था को यह मान्यता प्राप्त थी कि इसे स्वयं विधाता ने बनाया है और इसीलिए उसका उल्लंघन नहीं किया सकता। 
    
हिन्दू फासीवादी इतिहास की इस सामान्य सी सच्चाईयों से न केवल मुंह चुराते हैं बल्कि उसे झुठलाने का हर संभव प्रयास करते हैं जिससे इतिहास को हिन्दू-मुसलमान के रूप में पेश किया जा सके। 

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