नवादा : दलितों के साथ यह हिंसा कब रुकेगी?

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18 सितम्बर को बिहार के नवादा जिले में दबंगों ने 80 महादलितों के घर फूंक दिये। नवादा जिले के मुफस्सिल थाना क्षेत्र की कृष्णा नगर दलित बस्ती को दबंगां द्वारा न केवल आग के हवाले कर दिया गया बल्कि उनके साथ मारपीट व हवाई फायरिंग भी की गयी। 
    
इस घटना के बाद से इस मुद्दे पर बिहार में राजनीति काफी तेज हो गयी। इस बार जातिगत उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने की बात करने वाली जाति आधारित पार्टियां आमने-सामने थीं। चूंकि जलाई गयी दलित बस्ती महादलितों मांझी व रविदासी समुदाय की थीं व दबंग हमलावर पासवान (दलित जाति), यादव (पिछड़ी जाति) व चौहान (अति पिछड़े वर्ग) जातियों के थे इसलिए इन जातियों पर आधारित पार्टियां एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में जुट गईं। जीतनराम मांझी, चिराग पासवान, लालू यादव सब एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगे। 
    
इस घटना ने दिखाया कि जातिगत उत्पीड़न आज न केवल सवर्ण जातियों द्वारा निचली दलित-पिछड़ी जातियों का हो रहा है बल्कि दलितों-पिछड़ों में ऊपर उठ चुकी जातियों के दबंग भी पीछे छूट गयी जातियों के उत्पीड़न-दमन में लगे हुए हैं। इस घटना ने उन लोगों के दावों का भी खण्डन कर दिया जो दलित आरक्षण को वर्गीकृत करने का यह कहते हुए विरोध कर रहे थे कि दलितों में अभी जातियों के बीच अंतर काफी कम है। 
    
इस घटना में जद (यू)-भाजपा सरकार भी कम दोषी नहीं है। भाजपा शासित राज्यों में दलितों के साथ हिंसा में आमतौर पर ही बढ़ोत्तरी हुई है। पुलिस प्रशासन-सत्ता इन राज्यों में अक्सर ही दबंगां के साथ खड़ी नजर आती रही है। इस घटना में भी 15 वर्षों का भूमि विवाद होने के बावजूद सरकार-प्रशासन ने दलित बस्ती की सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किये थे। जबकि प्रशासन के संज्ञान में यह बात अच्छी तरह से थी कि दबंग जबरन इस बस्ती की भूमि कब्जाना चाहते हैं। 
    
21 वीं सदी में दबी-कुचली जातियों के साथ इस तरह की हिंसा समाज के लिए कलंक सरीखी है। अफसोस की बात यह है कि बीते 10 वर्षों से देश में शासन कर रही संघी सरकार न केवल जाति व्यवस्था को बनाये रखना चाहती है बल्कि उसके राज में दबी कुचली जातियों के प्रति हिंसा में उभार भी हुआ है। जातिगत बराबरी का झण्डा थामे जातिगत राजनीति करने वाली पूंजीवादी पार्टियां भी जातिगत गैरबराबरी से अपना वोट बैंक तो मजबूत करना चाहती हैं पर जातिगत उत्पीड़न पर जमीनी संघर्ष से वे किनाराकसी करती जा रही हैं। नीतिश-चिराग या मांझी की भाजपा के साथ गलबहियां भी दिखलाती हैं कि इन्हें सत्ता की खातिर सवर्ण ब्राह्मणवादी पार्टी से भी जोड़-तोड़ में कोई संकोच नहीं है। कुछ यही हाल मायावती की बसपा का भी नजर आता है। पूंजीवादी राजनीति में जाति आधारित राजनीति का यही हस्र होना था। 
    
जातिगत उत्पीड़न-हिंसा के अंत के लिए जरूरी है कि जाति व्यवस्था का समूल नाश हो। पूंजीवादी व्यवस्था ने यद्यपि जाति व्यवस्था के मूलाधार जाति आधारित पेशा को नष्ट कर दिया है पर सत्ता-संसाधनों पर वर्चस्वशाली जातियों के नियंत्रण के चलते जाति व्यवस्था व उसके उत्पीड़न में कुछ खास कमी आती नहीं दिख रही है। ऐसे में जाति व्यवस्था के समूल नाश के लिए जरूरी है कि सभी जातियों के मजदूर-मेहनतकश एकजुट हो पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के लिए आगे आयें। आज लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था ही जाति व्यवस्था के खात्मे की राह में सबसे बड़ी बाधा बन चुकी है। 

आलेख

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संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

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आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

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