सुरंग में फंसे 41 मजदूर लेकिन देश में शांति है

सुरंग और अंधी सुरंग में क्या फर्क होता है? जिसमें 41 मजदूर फंसे हों उस सुरंग को अंधी सुरंग कहते हैं। आठवें दिन उनकी संख्या ज्ञात होती है कि 41 हैं। वैसे तो एक संख्या ज्यादा होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम अंधेरे में मर रहे हो और इधर ड्रिल मशीनें फेल हो जा रही हैं तुम्हें ड्रिल करके बाहर निकालने के लिए। वैसे तो तुम सुरंग के अन्दर फंसे हुए हो लेकिन अगर तुम बाहर भी होते तो इस बात को नहीं समझ सकते थे कि तुम्हारी जिन्दगी एक पूंजीपति सहारा की मौत से ज्यादा भारी है। लाखों टन लुगदी उसकी मौत की खबर पर बिकी। उसकी मौत पर उसके बेटे उसे मुखाग्नि देने नहीं आ सके। लेकिन उसकी मौत पर एक वर्ग बहुत दुखी है कि उनका आदर्श चला गया। उसके गबन और घोटाले पर कोई बात नहीं। 
    
तुम्हारे सुरंग में फंसने का समय भी सही नहीं था। खुशियों के त्यौहार दीपावली के दिन तुम सुरंग में फंस गये वह भी सुबह के पांच बजे। तुम उस दिन पहाड़ को काटकर सुरंग बना रहे थे। जहां से कारें जायेंगी और उसमें बैठे लोग चारधाम यात्रा का लुत्फ लेंगे। तुम्हारे फंसने का थोड़ा अफसोस तो है लेकिन तुम्हारी खातिर पूजा-पाठ तो नहीं छोड़ा जा सकता। टीम इंडिया वर्ल्ड कप खेलने में व्यस्त है और देश के लोगों का जुनून अभी क्रिकेट का वर्ल्ड कप है। प्रधानमंत्री तेजस में उड़ान भर रहे हैं। 
    
तुम अन्दर फंसे रहो लेकिन बाहर बहुत सारे प्लान हैं तुम्हें निकालने के लिए न सही, अखबारों में छापने के लिए ही सही। आज जिस सुरंग में तुम फंसे हो वह उत्तरकाशी धाम को जायेगी। और ये सुरंग पूरी होने के बाद लोग चार धाम की यात्रा पर जायेंगे। ये सुरंग पूरी होने के बाद सुरंग के मुहाने पर देश-प्रदेश के पार्टी नेताओं और मंत्रियों का जमघट लगेगा, इसके उद्घाटन के लिए। देश में धर्म और पर्यटन के नाम पर धार्मिक पर्यटन ही है। सुरंग, सड़कें, उद्योग, पर्यटन सब विकास के लिए हैं और विकास के लिए बलि तो देनी ही पड़ती हैं। बिना बलि दिये विकास नहीं हो सकता। सबसे ज्यादा संख्या में जो लोग होते हैं बलि तो उन्हीं की दी जायेगी। मजदूर ही सबसे ज्यादा हैं आज की आबादी में। 
    
14 दिन से अन्दर बिना किसी बिस्तर और ठंड में बिना रजाई-गद्दे के जीवन कैसा होगा? बाहर ये सोचने वाले बहुत कम लोग हैं। किसी भी योग से बढ़कर होगा अन्दर फंसे मजदूरों का जीवन। तुम्हारे बगैर भी दिवाली मनायी गयी, छठ पूजा और गुरू पर्व भी। संसद में इस पर कोई बात नहीं है। कितना साफ-सुथरा है विकास का मापदंड। विकास के लिए सरकार और मोदी जिम्मेदार हैं और कुछ गलत हो जाये तो किसी ठेकेदार/कंपनी पर जिम्मेदारी डालकर खुद ही शासक इंसाफ भी कर देते हैं। जब मामला ठंडा हो जाता है तो फिर वही विकास की गति शुरू हो जाती है। 
    
दिल्ली-मुम्बई जैसे शहरों में विकास करके उसे गैस चैम्बर जैसी हालत में पहुंचा दिया गया है और अब वही हाल पहाड़ों का होगा। जिंदा रहने के लिए तुम्हें चाहिए था रोजगार और रोजगार देने वाले तुम्हारी जिंदगी खतरे में डालकर मुनाफा कमाते हैं। अर्थशास्त्र के हिसाब से कंपनी रिस्क लेती है बिजनेस करने के लिए और उसी रिस्क की वजह से उसे मुनाफा होता है लेकिन असली रिस्क तो मजदूर ही उठाता है अपनी जिंदगी की बाजी लगाकर। बार्डर पर सैनिक ही विषम परिस्थ्तियों में काम नहीं करते हैं बल्कि उससे ज्यादा विषम और कठिन तथा खतरे वाली जगह पर मजदूर काम करते हैं और उनकी मौतें भी उनसे कहीं ज्यादा होती हैं। लेकिन मजदूरों की जान की कोई कीमत नहीं समझी जाती।
    
आज विकास की मांग है कि लोहा, सीमेंट, बजरी के साथ तुम्हारी हड्यिं और खून की भी जरूरत है। पहले शायद तुम्हारे पसीने से यह काम चल जाता था। ये विकास मजदूर और पर्यावरण के लिए बहुत खतरनाक हो गया है। इस विकास की दिशा बदलने की जरूरत है। 
        -एक पाठक, फरीदाबाद
 

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