ट्रम्प-पुतिन समझौता वार्ता : जेलेन्स्की और यूरोप अधर में

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ट्रम्प ने अपने राष्ट्रपति पद के चुनाव प्रचार के दौरान दावा किया था कि वे राष्ट्रपति बनने के 24 घण्टे बाद यूक्रेन में युद्ध बंद करा देंगे। यह उनका बड़बोलापन था। लेकिन ट्रम्प ने अपने शपथ ग्रहण के थोड़े दिनों बाद पुतिन के साथ लम्बी फोन वार्ता की। यह वार्ता यूक्रेन युद्ध समाप्त करने सहित अमरीका-रूस सम्बन्धों को सामान्य करने से ताल्लुक रखती थी। इसके बाद दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की साउदी अरब की राजधानी रियाद में वार्ता हुई। इस वार्ता में यूक्रेन और यूरोप के देशों को नहीं शामिल किया गया। इस वार्ता के बाद दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने इसे सकारात्मक कदम बताया और इसे आगे जारी रखने की बातें कीं। ये उम्मीद जतायी गयी कि निकट भविष्य में रूस और अमरीका के बीच - पुतिन और ट्रम्प के बीच - शीर्ष वार्ता होगी। 
    
इसके बाद, जेलेन्स्की और यूरोपीय संघ के देशों के बीच खलबली मच गयी। जेलेन्स्की ने कह दिया कि वे ऐसे किसी भी समझौते को स्वीकार नहीं करेंगे जिसे यूक्रेन की गैर हाजिरी में तय किया गया हो। यूरोपीय संघ के देशों ने भी यही बात की। उन्होंने कहा कि यूरोपीय देश के बारे में समझौता वार्ता बिना यूरोपीय देशों की उपस्थिति के स्वीकार नहीं होगी। फ्रांस के राष्ट्रपति ने आनन-फानन में उन यूरोपीय संघ के देशों की आपातकालीन बैठक आहूत कर ली जो युद्ध को उस समय तक जारी रखने के पक्ष में थे जब तक युद्ध के मैदान में रूस को पराजित नहीं कर दिया जाता। यह ज्ञात हो कि इस आपातकालीन बैठक में हंगरी और स्लोवाकिया को नहीं बुलाया गया क्योंकि वे यूरोपीय संघ के भीतर इस युद्ध का विरोध करते आ रहे थे। 
    
28 फरवरी की रात दुर्लभ खनिजों पर समझौते के लिए जेलेन्स्की व ट्रम्प की व्हाइट हाउस में वार्ता हुई। यह वार्ता बेहत कड़वे तरीके से समाप्त हुई। ट्रम्प ने जेलेन्स्की पर तीसरे विश्व युद्ध की संभावना से खेलने का आरोप लगाया। साथ ही ट्रम्प ने जेलेन्स्की पर अमेरिका के अपमान का भी आरोप लगाया। ट्रम्प जहां यूक्रेन से एकतरफा युद्ध विराम चाह रहे थे वहीं जेलेन्स्की यूक्रेन की ठोस सुरक्षा गारण्टी के साथ युद्ध विराम की बात कर रहे थे। अंत में जेलेन्स्की को वार्ता बीच में छोड़ कर उठ कर जाना पड़ा। वार्ता में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प व उपराष्ट्रपति वेंस ने कई बार जेलेन्स्की को डांट पिलाई। 
    
ट्रम्प शासन के अंतर्गत अमरीकी साम्राज्यवादी हर हालत में रूस के साथ समझौता करके इस युद्ध को रोकना चाहते हैं। वे इसे इसलिए नहीं रोकना चाहते कि वे शांति के पुजारी हो गये हैं। वे इसे इसलिए रोकना चाहते हैं कि वे जानते हैं कि इस युद्ध में नाटो और अमरीकी साम्राज्यवादियों की पराजय होने जा रही है। वे अपनी आसन्न पराजय और उससे पड़ने वाले प्रभाव से अपने को बचाना चाहते हैं। इसलिए ट्रम्प शासन के अंतर्गत अमरीकी साम्राज्यवादियों ने सारा दोष जेलेन्स्की पर डालना शुरू कर दिया। ट्रम्प ने अपने सार्वजनिक बयान में यह कहा कि जेलेन्स्की को खुद यूक्रेन की जनता नापसंद करती है, कि उन्हें सिर्फ 4 प्रतिशत यूक्रेनी जनता चाहती है। जेलेन्स्की मार्शल ला के सहारे सत्ता में बने हुए हैं। ट्रम्प ने यहां तक कह दिया कि जेलेन्स्की के पास युद्ध को समाप्त करने के लिए तीन साल का समय था। उन्होंने इसे समाप्त नहीं किया। बल्कि वे अमरीकी हथियारों और पैसे के बल पर इसे चला रहे थे। ट्रम्प ने यहां अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा इस युद्ध को शुरू करने और इसे जारी रखने में निभायी गयी अग्रणी भूमिका को बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया। दरअसल, रूस-यूक्रेन युद्ध 24 फरवरी, 2022 में नहीं शुरू हुआ था। यह 2014 में उस समय शुरू हो गया था जब यानुकोविच की सत्ता को अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा आयोजित मैदान विद्रोह कराके हटा दिया गया था। ट्रम्प इसे छिपाकर सारा दोष जेलेन्स्की के मत्थे डाल देना चाहते हैं। ट्रम्प ने यह भी कह डाला कि जेलेन्स्की को रूस के विरुद्ध युद्ध शुरू ही नहीं करना चाहिए था। 
    
ट्रम्प यूक्रेन की दुर्लभ मृदा और खनिज सम्पदा पर नियंत्रण करने की अपनी योजना को आगे बढ़ा रहे हैं। वे कहते हैं कि अमरीका ने 350 अरब डालर की रकम यूक्रेन में खर्च की है, वे इसकी वापसी चाहते हैं। इसके लिए वे जेलेन्स्की और वहां की सत्ता से वहां की खनिज सम्पदा पर नियंत्रण चाहते हैं। ट्रम्प अपनी साम्राज्यवादी लूट की आकांक्षा का खुलेआम इजहार कर रहे हैं। इससे रूस-यूक्रेन युद्ध का असली मकसद साफ हो जाता है। अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन का इस युद्ध में समर्थन किसी पवित्र इच्छा से नहीं, रूसी अतिक्रमण के विरुद्ध यूक्रेनी अवाम की किसी न्यायपूर्ण संघर्ष को समर्थन देने के लिए नहीं, बल्कि यूक्रेन की खनिज सम्पदा और दुर्लभ मृदा पर नियंत्रण करने के लिए कर रहे थे। यही कारण है कि जब रूस और यूक्रेन के बीच समझौता होने ही वाला था, तब अमरीकी साम्राज्यवादियों के दूत बनकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जानसन ने इस समझौते को सम्पन्न होने से रोक दिया। अमरीकी साम्राज्यवादी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी यह कहने लगे कि यूक्रेन इस युद्ध को अंतिम यूक्रेनी के जिन्दा रहने तक लड़ता रहेगा और अमरीकी, ब्रिटिश और यूरोपीय साम्राज्यवादी इस युद्ध को जारी रखने के लिए हर तरह से यूक्रेन की मदद करते रहेंगे। 
    
अब ट्रम्प इन सब बातों को भुलाकर इस युद्ध को जारी रखने की जिम्मेदारी सिर्फ जेलेन्स्की पर डालकर अमरीकी व यूरोपीय साम्राज्यवादियों की भूमिका पर पर्दा डालना चाहते हैं। इस तरह वे अपने को शांति का दूत स्थापित करके यूक्रेन में अपनी साम्राज्यवादी लूट को सुनिश्चित करना चाहते हैं। 
    
ट्रम्प के नेतृत्व में अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए अब यूरोपीय साम्राज्यवादियों का उतना महत्व नहीं रह गया है जितना सोवियत संघ के दौर में था। यूरोपीय संघ और नाटो देशों को ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में ही यह चेतावनी दे चुके थे कि उनकी सुरक्षा के लिए अमरीका नाटो में बहुत ज्यादा खर्च कर रहा है। यूरोपीय देशों को अपने सकल राष्ट्रीय उत्पाद का कम से कम 2-3 प्रतिशत रक्षा बजट में लगाना चाहिए। अब ट्रम्प प्रशासन इसे 5 प्रतिशत करने की मांग कर रहा है। ट्रम्प की सबसे पहले अमरीका का हित की नीति के तहत यूरोपीय देशों से अमरीका में होने वाले निर्यात पर तटकर बढ़ाने की घोषणा की गयी है। इससे यूरोपीय संघ के देशों में अमरीका पर होने वाले निर्यात पर असर पड़ेगा। रूस-यूक्रेन युद्ध में अमरीकी साम्राज्यवादियों की हां में हां मिलाते हुए यूरोपीय साम्राज्यवादी इसलिए शामिल हुए थे कि उन्हें भी यूक्रेन लूट में एक हिस्सा मिलेगा और रूस की पराजय के बाद, रूस के टुकड़े होंगे तथा यूरोपीय संघ के बड़े देशों का भी अमरीकी साम्राज्यवादियों की छत्रछाया में बड़ा आर्थिक व राजनीतिक लाभ होगा। लेकिन इसका हश्र उलटा हुआ। यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने मिंस्क प् और विशेष तौर पर मिंस्क प्प् समझौता जानबूझकर लागू नहीं होने दिया। इन समझौतों के तहत रूसी भाषी क्षेत्रों को यूक्रेन के अंतर्गत स्वायत्तता मिलती थी। यूरोपीय संघ के देश जर्मनी और फ्रांस ने इसे लागू करने की गारण्टी ली थी। बाद में जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने एक बयान में कहा था कि हमने इसे इसलिए नहीं लागू होने दिया क्योंकि हम चाहते थे कि इस दौरान यूक्रेन को अपनी सैनिक तैयारी करने का मौका मिल सके और वह रूस से लड़ने में सफल हो सके। 
    
अब जब अमरीकी साम्राज्यवादी यूरोपीय संघ और नाटो को उतना महत्व नहीं दे रहे हैं तो इसका मतलब स्पष्ट है कि अब यूरोपीय संघ के देशों के पास ऐसा कुछ ज्यादा नहीं है जो अमरीकी साम्राज्यवादियों के विश्वव्यापी वर्चस्व में योगदान दे सके। 
    
यह एक महत्वपूर्ण कारण रहा है कि अभी हाल ही में सम्पन्न म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में अमरीकी उपराष्ट्रपति जे डी वेन्स ने कहा कि यूरोप का बड़ा दुश्मन कोई बाहरी, रूस या चीन नहीं है बल्कि खुद यूरोप के अंदर है। वह यूरोपीय संघ है। उन्होंने रोमानिया के चुनावों को निरस्त करने के यूरोपीय संघ के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा कि इसे विदेशी हस्तक्षेप के नाम पर निरस्त करना उदार लोकतंत्र पर हमला है। यह यूरोपीय संघ का घोर गलत कदम था। उन्होंने खुलकर जर्मनी की दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी का समर्थन किया। इसके पहले मस्क एएफडी के लिए प्रचार कर चुके थे।
    
दरअसल, ट्रम्प के अंतर्गत अमरीकी साम्राज्यवादी रूस के साथ सम्बन्धों को सामान्य करते हुए उसके साथ अपनी एकता इसलिए बढ़ाना चाहते हैं कि वे रूसी और चीनी साम्राज्यवादियों के बीच बढ़ रही एकता में दरार डालना चाहते हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों की निगाह में चीन उनका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी और दुश्मन है। उनकी निगाह में चीन, रूस, ईरान और उत्तरी कोरिया के बीच बढ़ रही एकता के लिए खुद ट्रम्प के पहले के शासन जिम्मेदार रहे हैं। हालांकि कई पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों ने चीन को दीर्घकालिक बड़ा दुश्मन घोषित कर रखा था। लेकिन ट्रम्प को यह अहसास बढ़ गया है कि चीन से निपटने के लिए रूस और चीन के बीच दरार डालना आवश्यक है। अपने इस रणनीतिक नजरिये को पूरा करने के लिए ट्रम्प हर हालत में रूस के साथ सम्बन्धों को सुधारने के पहले कदम के बतौर रूस-यूक्रेन युद्ध का खात्मा चाहते हैं। इस खात्मे में यूरोपीय संघ और नाटो की भूमिका उतनी ही हो सकती है जितनी वे अमरीका की इस नीति को अनुसरण करने में दिलचस्पी रखेंगे। 
    
यदि यूरोपीय संघ के देश और नाटो मूलतया रूस की शर्तों को मानकर अमरीका द्वारा प्रस्तुत रूस के साथ समझौते को स्वीकार करते हैं तो इसका साफ मतलब यूरोपीय संघ और नाटो की पराजय होगा। जेलेन्स्की का पत्ता साफ होना तो तय हो गया है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने साम्राज्यवादी प्रभुत्व के इलाकों को मुख्यतया अपने पड़ोसी देशों- पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों- और हिन्द प्रशांत क्षेत्र में केन्द्रित करना चाहते हैं। इसलिए ट्रम्प सत्ता में आते ही ग्रीनलैण्ड, कनाडा, पनामा कैनाल, मैक्सिको आदि में आक्रामक रुख, एक कब्जाकारी का रुख अपनाये हुए हैं। इसी प्रकार, पश्चिम एशिया में वे ईरान के विरुद्ध हर हालत में इजरायल के आक्रामक रवैय्ये का समर्थन कर रहे हैं। गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को उजाड़कर वहां अय्याशी का अड्डा बनाने की योजना पेश कर रहे हैं। दूसरी तरफ, यूक्रेन में रूस के साथ समझौता करने की पेशकश कर रहे हैं। 
    
इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।
    
जहां तक यूरोपीय संघ और नाटो में शामिल देशों का सवाल है, ये सभी विकसित पूंजीवादी देश हैं। ये छोटी-बड़ी साम्राज्यवादी शक्तियां हैं। इसमें शामिल 27 देशों की कोई एकीकृत नीति नहीं है और इसे बनने में बड़ी बाधायें हैं। जिस प्रकार, अमरीकी साम्राज्यवादी सबसे पहले अमरीकी हित को ध्यान में रखकर चल रहे हैं, उसी प्रकार जर्मन, फ्रांसीसी और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादी भी सबसे पहले अपने हित को केन्द्र में रखकर अपनी नीतियां बनाने को अभिशप्त हैं। इसलिए इनका आपसी टकराव भी रहता है। अभी तक अमरीकी साम्राज्यवादियों की छत्रछाया में रहने के चलते इनकी एकजुटता दिखाई पड़ती थी, वह अब कमजोर हो गयी है। इनके सामने एक ताकतवर पड़ोसी रूसी साम्राज्यवादी मौजूद हैं। अब इनके समक्ष इस ताकतवर पड़ोसी से स्वतंत्र रूप से, यानी अमरीकी साम्राज्यवादियों से स्वतंत्र, निपटने की एक नयी समस्या है। वे इससे कैसे निपटते हैं, इस पर यूरोपीय राजनीति की दिशा काफी हद तक निर्भर करती है। 
    
इस समय अमरीकी साम्राज्यवादी अपनी इस उम्मीद में कि रूस और चीन के बीच दूरी को चौड़ा कर सकेंगे, रूस के साथ सम्बन्ध बना रहे हैं। रूसी और चीनी साम्राज्यवादी भी इसके प्रति सचेत हैं। हां, इससे अंतर्साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा एक नए चरण में प्रवेश कर सकती है जिसका एक ध्रुव अमरीकी साम्राज्यवाद होगा और दूसरा ध्रुव चीनी-रूसी साम्राज्यवाद। अब यूरोपीय साम्राज्यवादियों का अपना कोई ध्रुव बनता प्रतीत नहीं होता और न ही वे निकट भविष्य में अमरीकी ध्रुव से पूर्णतया मुक्त होंगे। हां, इसमें दरार जरूर पड़ गयी है।  

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