5 दिसम्बर को जर्मनी की राजधानी बर्लिन में सीनेट के सामने हजारों अध्यापकों, आर्टिस्ट, सार्वजनिक कर्मचारियों और सांस्कृतिक कर्मियों, देखभाल करने वालों ने प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन सीनेट द्वारा सार्वजनिक व्यय के बजट में कटौती के खिलाफ था। बर्लिन शहर के शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य के बजट में सरकार की अरबों यूरो कटौती की मंशा है। इस प्रदर्शन में करीब 5000 लोग शामिल रहे।
ट्रेड यूनियन, सामाजिक संगठनों और स्कूलों ने सीनेट के सामने ‘‘हैश अनकटेबल’’ (#uncuttable) नारे के साथ प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में कई प्राइमरी स्कूल के बच्चे, उनके माता-पिता और अध्यापक भी शामिल रहे।
ज्ञात हो कि बर्लिन की सीनेट द्वारा शिक्षा के बजट में 37 करोड़ यूरो, डे केयर सेंटर के विस्तार के बजट में 1.4 करोड़ यूरो की कमी की जानी है। इसी तरह सांस्कृतिक क्षेत्र में मिलने वाले बजट में 12 प्रतिशत की कमी की जानी है। पर्यावरण और परिवहन आदि के बजट में 20 प्रतिशत की कमी की जानी है जो 66 करोड़ यूरो बैठती है। छात्र यूनियन के बजट में भी .75 करोड़ यूरो की कमी की जानी है।
जर्मनी की सरकार बर्लिन शहर के बजट में कटौती क्यों कर रही है उसकी वजह साफ है। बजट कटौती से बचे पैसे का इस्तेमाल सरकार रूस-युक्रेन युद्ध में करना चाहती है। इसी तरह गाजा युद्ध में भी इस पैसे का इस्तेमाल होगा। प्रदर्शनकारी इसी बात को उठा रहे हैं कि आखिर सरकार सार्वजनिक भलाई के कामों से पैसा बचाकर युद्ध में क्यों लगा रही है। युद्ध से आम जनता को कुछ भी हासिल नहीं होगा। हां, हथियार उद्योग को जरूर इससे फायदा पहुंचेगा।
कुछ सामजिक कार्य करने वाले संगठनों ने यह सवाल उठाया है कि कोविड काल में इन सामाजिक संगठनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सामाजिक काम करने वाले संगठनों के बजट में कमी समाज में अच्छे परिणाम नहीं देगी।
जर्मनी की सीनेट द्वारा बजट कटौती के पीछे जर्मनी की खराब होती अर्थव्यवस्था भी है। रूस-युक्रेन युद्ध की वजह से रूस द्वारा प्राकृतिक गैस की आपूर्ति बंद कर दी गयी थी। इसके बाद अन्य देशों से गैस मंगाने के कारण गैस के आयात खर्च में 40 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी। इसकी पूर्ति भी सार्वजनिक क्षेत्र के बजट में कमी करके की जाएगी।
इसी तरह जर्मनी का औद्योगिक उत्पादन पिछले दो वर्षों से गिर रहा है। इसका असर भी बजट पर पड़ रहा है। और इसका खामियाज़ा आम जनता को उठाना पड़ रहा है।
जर्मनी में बजट कटौती के खिलाफ प्रदर्शन
राष्ट्रीय
आलेख
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।