मनुस्मृति और इलाहाबाद उच्च न्यायालय

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मनुस्मृति अपने जमाने में हिन्दू धर्म की कानूनी संहिता थी जिसमें चार वर्णों के लिए अपराध के लिए अलग-अलग दण्ड प्रावधान थे। जाहिर है यह वर्ण-जाति वर्चस्व का सबसे संगठित ग्रंथ था। इसीलिए वर्ण-जाति व्यवस्था का विरोध करने वालों के निशाने पर मनुस्मृति आयी। अम्बेडकर ने तो इसका सरेआम दहन किया। 
    
पर जमाना बदला और मनुस्मृति के पुजारी संघ-भाजपा के रूप में फिर से सत्ता पर आ पहुंचे। उनके ‘यशस्वी’ प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सारा कानून-इतिहास बदलने की कवायद शुरू हो गयी। परिणाम यह हुआ कि जिस मनुस्मृति की आलोचना ब्रिटिश काल में अपराध नहीं था वह मोदी काल में घोर अपराध बन गया। 
    
बी.एच.यू. के कई छात्र मनुस्मृति की आलोचना के लिए 15 दिन जेल में काट आये तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2 जजों ने मनुस्मृति को पवित्र पुस्तक घोषित कर उसके पन्ने फाड़ने पर राजद प्रवक्ता प्रियंका भारती पर दर्ज एफआईआर रद्द करने की अर्जी खारिज कर दी। 
    
प्रियंका भारती ने एक टीवी बहस के दौरान कथित तौर पर मनुस्मृति के पन्ने फाड़े थे जिस पर उन पर अलीगढ़ में किसी समुदाय की धार्मिक भावनायें आहत करने का मामला बता धारा 299 के तहत केस दर्ज कर दिया गया। वे इसके खिलाफ हाईकोर्ट गयीं तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायपूर्ति विवेक कुमार बिड़ला और अनीश कुमार गुप्ता ने मनुस्मृति को पवित्र पुस्तक करार दिया। 
    
लगता है इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों के तार सीधे भारतीय कानून के बजाय संघ के नागपुर कार्यालय से जुड़ गये हैं और वे उसके इशारे पर मनुस्मृति को संविधान की जगह मानने लगे हैं। 

आलेख

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संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

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आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

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पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

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उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता