वैचारिक दुश्मन

एक कमजोर हैसियत का इंसान, इतना कमजोर कि दो जून की रोटी के भी लाले पड़े हैं। पर वैचारिक रूप से बिलकुल रूढ़िवादी हो और रूढ़िवाद का प्रचारक भी हो। रूढ़िवादी साहित्यों के अलावा अन्य साहित्य उसे झूठे लगते हों, ये विचार उसमें कूट कूट करके भर गये हों, भौतिकता से इतनी नफरत कि उसके जड़मूल से विनाश की भावना उसके रोम रोम में भर गई हो। रूढ़िवादी परम्परा के एक हिस्से के बतौर दान को सर्वश्रेष्ठ मानव कर्तव्य मानता हो और परम्पराओं से हटकर लीक भर भी इधर-उधर खिसकने की बौद्धिक क्षमता उसमें न हो। अगर उक्त व्यक्ति की वैचारिक परिधि के अंदर कोई भी घूमता रहा तो उस जैसा भला इंसान उसके अलग-बगल झांकने पर भी कहीं भी नहीं मिलेगा। चाहता तो वह आपका भला है, पर अनजाने में आपका दुश्मन होगा। दृृष्टांत के बतौर एक श्लोक का टुकड़ा कह देता हूं- 
  
कर्मना धिकारस्ते मा फलेषु कदाचन,     
    
अर्थात् काम करते जाओ फल की इच्छा मत करो सब कुछ करने, देने वाला सर्वशक्तिमान ऊपर वाला है। इसी में उसका दृढ़ विश्वास है। वह कारखानेदार और मजदूर के किसी अंतर्विरोध पर विश्वास नहीं करता। इस तरह से ये अनजाने में नासमझी में दुश्मन पक्ष का पक्ष पोषक बनकर ‘‘वैचारिक दुश्मन’’ का पदाधिकारी बनने का अधिकारी बन जाते हैं। 
     
ऐसे तमाम लोग जो गरीब हैं, मेहनतकश हैं पर रूढ़िवादी सोच, आध्यात्मिक सोच के शिकार हैं, हमारे चारों ओर मौजूद हैं। अक्सर ये छोटे-मोटे उद्यमों, घरेलू उद्यमों में कार्यरत होते हैं। ये वर्ग संघर्ष या वर्ग अंतरविरोधों से अपरिचित होते हैं और वर्ग सहयोग के प्रस्तोता होते हैं। ये किसी बाबा-संत के पुजारी हो सकते हैं। ये अपने दुख-कष्टों को भाग्य, नियति या ऊपर वाले की इच्छा मान स्वीकारे रहते हैं। ऐसे लोगों का मानसिक फलक बेहद संकुचित होता है। उन्हें यह समझाना कि समाज में अमीरों व मेहनतकशों के हित एक-दूसरे के विरोधी हैं, बेहद कठिन है। 
    
आखिर मेहनतकश समुदाय के लोग क्यों इस कदर रूढ़िवाद-भाग्यवाद-अध्यात्म की चपेट में हैं क्योंकि शासक वर्ग इन्हें वर्गीय तौर पर एकजुट होने से रोकने के लिए दिन-रात इस सबका प्रचार करता है। समाज की जड़ता भी उन्हें ऐसे ही विचारों की ओर ढकेलती है। परिणामस्वरूप वर्ग संघर्ष के उलट ये वर्ग सहयोग पर यकीन कर उसका प्रचार करते रहते हैं। 
    
ऐसे लोगों का काफी धैर्य के साथ ही मानसिक फलक बढ़ाया जा सकता है। उन्हें वर्गीय तौर पर लामबंद कर ही उनके दृष्टि फलक को बढ़ाया जा सकता है। समाज में तीखा हो रहा वर्ग  संघर्ष उनकी गलत सोच को दुरुस्त करने में मदद करेगा। ऐसे लोगों को वैचारिक दुश्मन से वैचारिक दोस्त बनाना सभी बदलाव चाहने वाले लोगों के लिए काफी चुनौतीपूर्ण कार्य है। -देवसिंह, बरेली

आलेख

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संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

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आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

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पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

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