मुख्य अतिथि की तलाश

भारत में हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। नई दिल्ली में भव्य परेड होती है। इस परेड के दौरान भारत की सैन्य ताकत का खुला प्रदर्शन होता है। साथ ही भारत की सांस्कृतिक विविधता का सरकारी आयोजन से प्रदर्शन होता है। भारत के राष्ट्रपति गणतंत्र दिवस की परेड की सलामी लेते हैं। गणतंत्र दिवस के दिन एक और व्यक्ति होता है जिसका प्रदर्शन भी इतना ही आवश्यक होता है जितना कि सैन्य शक्ति, सांस्कृतिक विविधता इत्यादि का होता है। यह व्यक्ति होता है- मुख्य अतिथि। 
    
मुख्य अतिथि ऐसा होना चाहिए जिससे भारत की धाक पूरी दुनिया में जमे। मुख्य अतिथि ऐसे देश का राष्ट्र प्रमुख होना चाहिए जिसकी दुनिया में तूती बोलती हो। मुख्य अतिथि अगर किसी गरीब देश का, अफ्रीका के किसी अनजान देश का या फिर भारत के पड़ोसी देश मालदीव, नेपाल, भूटान का होगा तो गणतंत्र दिवस का आयोजन फीका-फीका सा हो जायेगा। पाकिस्तान का राष्ट्र प्रमुख तो गणतंत्र दिवस का मुख्य अतिथि कभी नहीं हो सकता है। कुछ-कुछ यही बात चीन पर भी लागू हो जाती है। 
    
मोदी सरकार ने इस साल के चुनावी वर्ष को देखते हुए मुख्य अतिथि के लिए दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक-सैनिक-राजनैतिक ताकत अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन को बुलाया था। जो बाइडेन के साथ-साथ और भी मुख्य अतिथि नम्बर-दो और नम्बर-तीन भी होने थे। ‘क्वाड’ की बैठक भी होनी थी। ‘क्वाड’ में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान और भारत है। इसका अघोषित लक्ष्य चीन पर लगाम लगाना है। 
    
सभी कुछ ठीक ही चल रहा था पर कुछ इन देशों के भीतर ऐसा घटा कि पहले अमेरिका के राष्ट्रपति ने मुख्य अतिथि बनने से इंकार किया। फिर जापान ने फिर आस्ट्रेलिया के भी प्रधानमंत्री ने आने से इंकार कर दिया। यकायक मुख्य अतिथि की समस्या खड़ी हो गयी। जनवरी में गणतंत्र दिवस मनाया जाना है और नवम्बर के अंत तक मुख्य अतिथि का अता-पता नहीं मिल रहा था। दिक्कत हो रही थी किसे बनाएं मुख्य अतिथि। 
    
फिर आनन-फानन में दुनिया की चौथी-पांचवीं ताकतों से सम्पर्क हुआ। और फिर पता लगा कि एक ऐसे देश के राष्ट्रपति मुख्य अतिथि होंगे जिनकी सेना को अलग-अलग देशों से खदेड़ा जा रहा है। दूसरे के गणतंत्र को हड़पने वाले हमारे देश के गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि होंगे। फ्रांस की फौज को दिसम्बर माह में अफ्रीका महाद्वीप के एक देश नाइजर से चलता कर दिया गया। मुंह लटकाये फ्रांसीसी फौजी हो-हल्ला मचाते नाइजरवासियों के बीच से अपने घर को लौट रहे थे। फ्रांस की फौज को और देशों में भी नफरत की निगाह से देखा जा रहा है। खदेडी गयी फौज (नाइजर, माली, बुकिना फासो से) का प्रमुख हमारे देश के गणतंत्र दिवस की परेड को मजे से देखेगा। मोदी सरकार फ्रांस के साथ राफेल की तर्ज पर नये समझौते करेगी। गणतंत्र दिवस की परेड में फ्रांसीसी हथियार भी होंगे। फ्रांस की सेना-हथियार नाइजर में तो कामयाब हुए नहीं पर भारत का मीडिया, मोदी जी के लग्गुए-भग्गुए इतरा सकते हैं कि हमें कैसे-कैसे हथियार फ्रांस से मिले हैं। जो भी हो मुख्य अतिथि आखिर में मिल गया है। सब लोग खुश होकर ताली बजायें। 

आलेख

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संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

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आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

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पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

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