पेंशन और छुट्टा पूंजीवाद

    फ्रांस में पेंशन सुधारों के खिलाफ लगभग समूचा मजदूर वर्ग बीते कई महीनों से संघर्ष कर रहा है। फ्रांसीसी मजदूर वर्ग काम करने की उम्र 62 से 64 वर्ष किये जाने के सरकारी फरमान को स्वीकारने को तैयार नहीं हैं पर सरकार भी पीछे हटने को तैयार नहीं दिख रही है। 
    मजदूरों की मजदूरी और पेंशन पर हमला केवल फ्रांस की ही परिघटना नहीं है। यह वैश्विक परिघटना है। बीते 3-4 दशकों की उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का यह महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। इन नीतियों का सार ही रहा है पूंजी द्वारा श्रम पर हमला, श्रम द्वारा हासिल कल्याणकारी राज की सुविधाओं का खात्मा। इन हमलों के भांति-भांति के तौर-तरीके रहे हैं। इनमें मजदूरों की वास्तविक मजदूरी गिराना, काम का बोझ बढ़ाना, कार्य परिस्थितियां बुरी बनाना, सार्वजनिक स्वास्थ्य-शिक्षा आदि पर सरकारी खर्च घटाना, पेंशन गिराना, पेंशन हेतु सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाना, पेंशन को प्राइवेट संस्थानों के हवाले करना आदि भांति-भांति के कदम शामिल रहे हैं। भारत से लेकर फ्रांस तक में इन कदमों के कुछ न कुछ अंश दिखाई देते रहते हैं। 
    फ्रांस में जब मजदूर पूरी पेंशन के लिए 2 वर्ष अतिरिक्त काम कराने के विरोध में सड़कों पर उतरते हैं और भारत में जब सरकारी कर्मचारी पुरानी पेंशन स्कीम की बहाली की मांग करते हैं तो वे दरअसल पूंजी द्वारा श्रम पर बोले गये इन हमलों का अलग-अलग तरह से प्रतिकार कर रहे होते हैं। 
    एक उम्र तक काम करने के बाद जीवन निर्वाह हेतु पेंशन का इंतजाम किसी भी व्यक्ति का अधिकार होना चाहिए। पेंशन के तरह-तरह के मॉडल दुनिया भर में प्रचलित रहे हैं। ये व्यक्ति के वेतन का एक अंश पेंशन फण्ड में देने से लेकर प्राइवेट बीमा फण्डों में निवेश तक के अलग-अलग स्वरूप वाले रहे हैं। जिन देशों में कल्याणकारी राज जितना मजबूत रहा है वहां पेंशन उतनी बेहतर व ज्यादा आबादी को हासिल रही है। मसलन स्कैन्डेनवियाई देशों में यह बड़ी आबादी को हासिल है तो भारत में नाम मात्र की आबादी को। 
    पेंशन के मामले में यूरोपीय-स्कैन्डेनवियाई देश बीते 2-3 दशकों से मूलतः इस नीति पर चलते रहे हैं कि कर्मचारियों की काम की उम्र बढ़ाई जाये। साथ ही वास्तविक पेंशन राशि गिरायी जाए। आज तमाम देशों में सेवानिवृत्ति की उम्र 67 वर्ष तक पहुंचायी जा चुकी है। पेंशन पर अपने इन हमलों के पीछे सरकारों के तर्क मूलतः इस प्रकार रहे हैं। चूंकि इन देशों में वृद्ध आबादी की तादाद कार्यरत आबादी के सापेक्ष बढ़ रही है इसलिए सरकारों पर पेंशन का बोझ बढ़ रहा है। लोगों की सेवानिवृत्ति के बाद जीने की उम्र बढ़ रही है जो पेंशन पर खर्च बढ़ा रही है। इन तर्कों में एक हद तक सच्चाई होने के बावजूद वास्तविकता यही है कि आज के छुट्टे पूंजीवाद में सरकारें मजदूरी व पेंशन मद में लगातार कटौती को उतारू रही हैं और इन बहानों के इस्तेमाल से भी वे इन मदों में कटौती ही कर रही हैं। यह कटौती कहीं सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाकर तो कहीं पेंशन की राशि घटाकर तो कहीं पेंशन को प्राइवेट हाथों में सौंप कर की जा रही है। 
    इसीलिए पेंशन सरीखी सुविधा जो कल्याणकारी राज का अहम हिस्सा है को अगर मजदूर वर्ग को बचानी है तो उसे इसे व्यापक स्वरूप में देखना होगा। 
    लगभग एक सदी पूर्व दुनिया भर में संगठित मजदूर आंदोलन आगे बढ़ रहा था। पूंजीपति वर्ग इस संगठित मजदूर आंदोलन के आगे तरह-तरह की रियायतें देने, तमाम कानूनी सहूलियतें देने को मजबूर हो रहा था। 1917 की रूस की अक्टूबर समाजवादी क्रांति ने मजदूर आंदोलन की शक्ति व चेतना में भारी इजाफा कर दिया था। दुनिया भर के पूंजीपति अपने-अपने यहां समाजवादी क्रांति रोकने के लिए कल्याणकारी राज कायम करने को मजबूर हुए। एक तरह से पूंजीपति वर्ग ने मजदूरों को मजदूरी, पेंशन, आवास सरीखी सहूलियतें दे उन्हें क्रांति से विमुख करने में सफलता पा ली। 
    पिछली सदी के दूसरे-तीसरे दशक में खड़ा हुआ यह कल्याणकारी राज का माडल तब तक फलता-फूलता रहा जब तक दुनिया में समाजवादी राज और मजबूत संगठित मजदूर आंदोलन मौजूद रहा। 1970 के दशक का अंत आते-आते जहां समाजवादी देशों में पूंजीवादी पुनर्स्थापना हो गयी वहीं इन देशों का संगठित मजदूर आंदोलन भी कमजोर पड़ गया। ऐसी स्थिति में पूंजीपति वर्ग ने अपने गिरते मुनाफे की समस्या का हल मजदूर वर्ग पर हमला बोलने में देखा। उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के नाम से यह हमला पूरी दुनिया में पूंजी द्वारा श्रम पर बोल दिया गया। यह हमला आज भी जारी है। 
    इस हमले के तहत मजदूर वर्ग ने जो भी सुविधायें लड़कर हासिल की थीं वे सभी एक-एक कर छीनी जाने लगीं। स्थाई काम, बेहतर मजदूरी, पेंशन, मुफ्त शिक्षा-स्वास्थ्य सेवायें आदि-आदि ऐसे ढेरों प्रावधान थे जिन्हें पूंजीपतियों व उनकी सरकारों ने कटौती कार्यक्रमों की आड़ में छीन लिया। कल्याणकारी राज पर पूंजी द्वारा बोले गये हमलों को जायज ठहराने के नये-नये तर्क गढे व प्रचारित किये जाने लगे। पूंजी द्वारा बोले गये इन हमलों का मुकाबला करने में दुनिया भर का मजदूर वर्ग कुछ खास कारगर नहीं रहा है। उसने फ्रांस के मौजूदा संघर्ष सरीखे देशव्यापी प्रतिरोध तो खड़े किये हैं पर वह पूंजी को माकूल जवाब देने में विफल रहा है। 
    यह विफलता आज क्रांतिकारी सिद्धांतों पर लामबंद मजबूत मजदूर आंदोलन के उपस्थित न होने के चलते पैदा होती है। आज पेंशन सुधारों के खिलाफ लड़ रहे मजदूर अगर बीते 3-4 दशक की उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के साथ मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था को निशाने पर नहीं लेंगे तो वे अपने पेंशन के हक को भी नहीं बचा पायेंगे। 
    दुनिया भर में क्रांतिकारी सिद्धांतों से लैस मजबूत मजदूर पार्टियां ही वो ताकत बन सकती हैं जो पूंजी के मौजूदा हमलों का जवाब दे सकें। जो छुट्टे पूंजीवाद की लूट को इंकलाब की दिशा में मोड़ सकें। 

आलेख

/idea-ov-india-congressi-soch-aur-vyavahaar

    
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

/ameriki-chunaav-mein-trump-ki-jeet-yudhon-aur-vaishavik-raajniti-par-prabhav

ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को