सूडान लम्बे समय से अस्थिरता का शिकार रहा है। इस समय सूडान की सेना के प्रमुख और एक मिलिशिया के प्रमुख के बीच सत्ता पर नियंत्रण के लिए संघर्ष चल रहा है। सेना के प्रमुख जनरल अब्दल फतह अल-बुरहान हैं। और रेपिड सपोर्ट फोर्सेस (आर एस एफ) के मुखिया मोहम्मद हमदान दागलो या हेमेद्ती हैं। ये दोनों 30 वर्ष तक शासन करने वाले तानाशाह अल-बशीर के सहायक रहे हैं। दोनों ने अल-बशीर की तानाशाही को बरकरार रखने और उसे मजबूत करने में बड़े पैमाने पर कत्लेआम को अंजाम दिया था। जब अल-बशीर की तानाशाही के विरुद्ध व्यापक सूडानी जनता का गुस्सा भड़क उठा और वे लाखों की तादाद में सड़कों पर उतर पड़ी तब इन दोनों जनरलों ने जनता के पक्ष में जाने का दिखावा किया और अल-बशीर को सत्ताच्युत करने में भूमिका निभायी। 2019 में अल-बशीर को सत्ताच्युत करने में जनसंघर्षों की निर्णायक भूमिका थी। इन दोनों जनरलों ने बहती गंगा में हाथ धोया और सैनिक-नागरिक शासन के शीर्ष में आ बैठे। बाद में जब नागरिक शासन के लिए बातचीत ज्यादा जोर पकड़ने लगी तो इन दोनों ने फिर से सैन्य शासन स्थापित कर नागरिक प्रधानमंत्री को किनारे कर दिया। 2021 से सूडान में सैनिक शासन चल रहा है। 15 अप्रैल 2023 से सेना और आर.एस.एफ. के बीच संघर्ष फूट पड़ा है। यह संघर्ष उस समय फूट पड़ा है जब आर.एस.एफ. मिलिशिया को सेना में विलय करने के फैसले को लागू किया जाना था। इसके बाद, 2023 में ही चुनाव कराके सत्ता नागरिक प्रतिनिधियों के हवाले करने का कदम उठाना था।
सूडान की सेना के प्रमुख बुरहान और आर.एस.एफ. मिलिशिया के प्रमुख हेमेद्ती दोनों ही अतीत में दारफुर और अन्य जगहों में बड़े पैमाने के नरसंहार करने के अपराधी रहे हैं। हेमेद्ती ने आर.एस.एफ. बनाने के पहले एक कुख्यात जंजावीड नाम की मिलिशिया का गठन किया था। यह मिलिशिया दारफुर में गैर-अरब लोगों का बड़े पैमाने पर नरसंहार कर चुकी थी। यह निजी मिलिशिया उस समय के तानाशाह राष्ट्रपति के समर्थन और सहयोग से चल रही थी।
2019 में अल-बशीर को व्यापक जनसंघर्षों के बल पर सत्ताच्युत किया गया था। इसमें भाग लेने वाले मजदूर-मेहनतकश से लेकर विभिन्न पेशे के मध्यम वर्ग के लोग थे। अमरीकी साम्राज्यवादी और यूरोपीय संघ के शासकों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की मदद से तब पूरी कोशिश यही की थी कि सत्ता कहीं मजदूरों-मेहनतकशों के हाथ में न चली जाये। वे भ्रष्ट तबकों और सेना के अधिकारियों के हाथ में सत्ता की बागडोर चाहते थे। यही बात सेना के प्रमुख और मिलिशिया प्रमुख चाहते थे। 2019 के व्यापक जनउभार के कारण सत्ता से बाहर किये गये अल-बशीर का स्थान एक साजिश के तहत इन भ्रष्ट नागरिक और सैन्य अधिकारियों को दे दिया गया। इस संक्रमण में मजदूर-मेहनतकश आबादी की आंख में धूल झोंककर सैन्य नागरिक शासन (संक्रमणकालीन संप्रभु परिषद) का गठन किया गया।
यहां यह भी ध्यान में रखने की बात है कि अल-बशीर की सत्ता न सिर्फ सूडान के भीतर सैन्य अभियानों के जरिए जनता का दमन करती थी, बल्कि इसने अपनी सेना को यमन में हौथी विद्रोहियों का दमन करने के लिए साऊदी अरब के समर्थन में भेजा था। इसने लीबिया में गद्दाफी को सत्ता से हटाने के अमरीकी और फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों के कुकर्मों में हिस्सेदारी करने के लिए अपनी सेना को वहां भेजा था। मौजूदा संघर्षरत दोनों जनरलों की इस सबमें महती भूमिका थी। सूडान के ये शासक अमरीकी साम्राज्यवादियों की मध्यस्थता में इजरायल के साथ अब्राहम एकार्ड (समझौता) करके फिलीस्तीनियों के मुक्ति संघर्ष से पल्ला झाड़ने वाले बन गये थे। इस समझौते के बाद सूडान को अमरीकी साम्राज्यवादियों ने आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले राज्य की सूची से बाहर कर दिया था।
2021 में नागरिक सत्ता को हटाकर सैन्य शासन लाने में इन दोनों जनरलों की संयुक्त भूमिका थी। सैन्य सत्ता स्थापित होने के बाद दोनों जनरलों के बीच संघर्ष तेज होता जा रहा था। 15 अप्रैल, 2023 को यह खुलकर सामने आ गया। वस्तुतः अल-बुरहान और हेमेद्ती, दोनों का गठबंधन अपनी-अपनी ताकत के विस्तार के लिए बनाया गया था और दोनों ही घोर जन-विरोधी हैं। जहां सेनाध्यक्ष अल-बुरहान, हेमेद्ती की मिलिशिया को कमजोर करना चाहते थे, जिससे कि हेमेद्ती को अपनी पकड़ में रख सके। लेकिन हेमेद्ती अल-बुरहान के मंसूबों को पहले ही भांप चुके थे। दोनों पक्ष ही अपनी आर्थिक और सैन्य ताकत बढ़ा रहे थे। सूडान की सेना के शीर्ष जनरल 400 से ज्यादा राज्य उद्यमों में जिसमें कृषि क्षेत्र व उद्योग, बैंक, दूरसंचार, दवा आयात कम्पनियां, सोने का खनन, परिवहन और रियल इस्टेट शामिल है, के कारोबारों में शामिल हैं। यह आर्थिक स्वार्थ और सेना की वरीयता है जिसे वे खोना नहीं चाहते। यह भी एक कारण है जिसके चलते वे नागरिक सत्ता नहीं चाहते।
जहां एक तरफ अमरीकी यूरोपीय संघ के साम्राज्यवादी इन जनरलों की जुबानी तौर पर आलोचना करते रहे वहीं वे इनकी सत्ता की सैनिक और आर्थिक मदद करते रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी अब्राहम एकार्ड के जरिए ईरान के विरुद्ध मोर्चा बनाने में इन जनरलों की मदद ले रहे थे। हालांकि अमरीकी साम्राज्यवादियों की ईरान को अलग-थलग करने की उनकी योजना साऊदी अरब-ईरान के समझौते के बाद खटाई में पड़ गयी है। यूरोपीय संघ ने भी ‘‘खारतूम प्रक्रिया’’ के नाम पर करोड़ों-अरबों यूरो की मदद हेमेद्ती की मिलिशिया को देने का वायदा किया है, जिससे कि हेमेद्ती की मिलिशिया को अफ्रीका के सींग से यूरोप की ओर लोगों के प्रव्रजन का इंतजाम कर सके। यह आर.एस.एफ. द्वारा मानव तस्करी करने का एक नया रास्ता खोलता है। वहीं दूसरी तरफ रूस और चीन भी सूडान में अपने शोषण के डैने फैलाने में पीछे नहीं हैं। इन दोनों सैनिक गुटों (सूडान के) के साथ रूस का वैगनर (भाड़े की सेना) गुट दृढ़ता से गठबंधन में है। यह वहां सोने के व्यापार में संलग्न है। सूडान की सेना व मिलिशिया के दोनों गुट रूसी सैन्य पूंजी पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं। चीन भी इस क्षेत्र के देशों के साथ व्यापार के जरिए अपना प्रभाव क्षेत्र चुपचाप बढ़ाता जा रहा है। चीन इजरायल, ईरान, कतर और बहाबी दकियानूसी धार्मिक शक्तियों सभी के साथ अपना आर्थिक व्यापार बढ़ा रहा है। रूस ने सूडान के सोने के खनन और निर्यात में अपना पैर पसार लिया है। संयुक्त अरब अमीरात, साऊदी अरब, सूडान और इजरायल के पूंजीपतियों का सूडान के सोने की लूट में रूस के साथ एक गठबंधन काम कर रहा है। पश्चिमी प्रचार तंत्र में यह भी कहा जा रहा है कि सूडान के सोने की लूट में रूस का वैगनर ग्रुप मुख्य लाभकर्ता है। वैगनर गु्रुप की आर.एस.एफ. मिलिशिया के साथ इस सोने की खनन में हिस्सेदारी है। हेमेद्ती की आर्थिक व सैनिक ताकत का बड़ा आधार रूस के साथ सोने के खनन में साझीदारी है।
यह एक बहुत बड़ा कारण है जो अल-बुरहान की सेना के साथ हेमेद्ती की मिलिशिया के विलय में सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। जैसे ही आर.एस.एफ. की सेना के साथ विलय की शर्तों पर बात होने को आयी, वैसे ही यह गठबंधन टूट गया और 15 अप्रैल को खुले तौर पर दोनों सेनायें आपस में टकराने लगीं।
मौजूदा संघर्ष सूडान की सेना और मिलिशिया (आर.एस.एफ.) के बीच है। लेकिन ये दोनों पक्ष यह नहीं चाहते कि आगे यदि कोई नागरिक सत्ता आती है तो वह बशीर की तानाशाही के दौरान सेना द्वारा किये गये नरसंहारों पर या उनके कुकर्मों पर कोई कार्रवाई करे। वे इन अपराधों पर होने वाली सजा से अपनी मुक्ति की गारण्टी चाहते हैं।
लेकिन 2019 के समय से जो लोग तानाशाही के विरुद्ध लड़ाई आगे बढ़ाते रहे हैं, वे तीन नकार (छव) पर कोई समझौता नहीं करना चाहते। ये तीन नकार ये हैं, कोई समझौता नहीं, कोई हिस्सेदारी नहीं, कोई कानूनी स्वीकार्यता नहीं। ये लड़ने वाली ताकतें सैन्य तानाशाही के साथ कोई समझौता नहीं चाहतीं। ये उनके साथ सत्ता में कोई हिस्सेदारी नहीं चाहतीं और ये इनके सैन्य शासन की वैधता को कत्तई स्वीकार नहीं करना चाहतीं।
ये लड़ने वाली ताकतें यह भी चाहती हैं कि इन सैन्य सत्ताधारियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए। यदि कोई नयी अंतरिम सत्ता बनती है तो उसे भ्रष्टाचार के तमाम चलनों पर प्रहार करना चाहिए, लूटे गये सार्वजनिक फण्ड और परिसम्पत्तियों को वापस लेना चाहिए। इस तरह की मांग करने वाले लोगों ने देश भर में प्रतिरोध समितियां बना ली हैं। लेकिन प्रतिरोध समितियों की इस तरह की मांगों का दोनों सैन्य गुट विरोध करते हैं। प्रतिरोध समितियों की यह भी मांग है कि सभी राज्य के मालिकाने वाले उद्यमों के साथ-साथ सेना, खुफिया तंत्र और पुलिस सेवाओं के मालिकाने वाले उद्यमों को वित्त मंत्रालय के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत लाना चाहिए।
हालांकि रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद इस क्षेत्र की परिस्थिति में भी बदलाव आये हैं। अब इस क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवादियों की पकड़ पहले से कमजोर हुई है। अब्राहम एकार्ड खटाई में पड़ गया है। रूस और चीन का दखल और प्रभाव इस क्षेत्र में पहले से बढ़ा है। लेकिन इस बदलाव से सूडान की मजदूर-मेहनतकश आबादी की सैन्य तानाशाहों से मुक्ति की बुनियादी लड़ाई में कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। हां, इससे पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका के शासकों द्वारा फिलीस्तीन के मुक्ति संघर्ष के साथ जो खुली गद्दारी की जा रही है, उसमें एक हद तक उन्हें दिखावे के तौर पर ही सही पीछे हटना पड़ेगा। यदि सूडान की सत्ता सैनिक ही बनी रहती है तो उसे भी पीछे की ओर इस मामले में कदम उठाना पड़ेगा। यह क्षेत्रीय शक्ति संतुलन में आये बदलावों के कारण होगा। इससे इजरायली शासकों के यहूदी नस्लवाद के विरुद्ध फिलीस्तीनियों के मुक्ति संघर्ष में मदद मिलने की संभावना बढ़ जाती है। ठीक इसी तरह साऊदी अरब-ईरान के साथ समझौते के बाद यमन में शांति की जो प्रक्रिया शुरू हुई है उससे हौथी विद्रोहियों के दमन के लिए अब सूडानी सेना की जरूरत नहीं रहेगी। इसी तरह के परिवर्तन इस क्षेत्र में अमरीकी-इजरायली प्रभुत्व को कमजोर करने वाले हो सकते हैं।
इन दो सेनाओं के बीच जो खूनी संघर्ष चल रहा है इससे सूडान की मजदूर-मेहनतकश आबादी शिकार हो रही है। ये दोनों गुट ही मजदूर-मेहनतकश विरोधी हैं। इनमें कोई भी न्याय का पक्षधर नहीं है। ये दोनों गुट रक्तपिपासु भेड़िये हैं। इनके पीछे खड़ी क्षेत्रीय व वैश्विक शक्तियां घबरायी हुई हैं और अपने-अपने दूतावासों और मिशनों को बंद कर भाग रही हैं। ये दोनों गुटों से शांति की अपीलें कर रही हैं। इनकी शांति की अपील का नागरिकों की जान-माल की बर्बादी-तबाही वाला पक्ष गौण पक्ष है। इनकी शांति की अपील का असली मकसद इन दोनों सैन्य गुटों को यह बताना-समझाना है कि अगर इसी तरह यदि युद्ध चलता रहा तो मजदूर-मेहनतकश आबादी उठ खड़ी होकर न सिर्फ दोनों सैन्य गुटों को किनारे लगा देगी बल्कि वह इन ‘शांति’’ के उपदेशकों के स्वार्थों पर भी पलीता लगा सकती है। यह एक बहुत बड़ा कारण है कि क्षेत्रीय और वैश्विक ताकतें अपने-अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के मकसद से ‘‘शांति’’ अपीलों में लगी हुई हैं। इन वैश्विक व क्षेत्रीय ताकतों के असली रक्तपिपासु मानवहंता चरित्र को दुनिया भर की मेहनतकश अवाम अच्छी तरह जानती रही है।
सूडान की मजदूर-मेहनतकश आबादी 30 वर्ष से ज्यादा समय तक अल-बशीर के तानाशाही निजाम के अत्याचारों का शिकार रही है। इस दौरान लाखों लोग इस निजाम द्वारा की गयी हत्याओं के शिकार हुए। वे घायल हुए। बेघरबार हो गए। इसके बाद वे इन सैन्य तानाशाहों को झेल रहे हैं। उनके अत्याचारों के शिकार हो रहे हैं।
इन दोनों सैन्य गुटों के बीच की लड़ाई जहां एक तरफ तमाम मासूम लोगों को मार रही है वहीं यह उनके मानवद्रोही चरित्र को मजदूर-मेहनतकश लोगों के बीच उजागर कर रही है।
2019 से जिस तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष की प्रक्रिया तेज से तेजतर होती गयी है, उसे और तेज करने की परिस्थितियां बन रही हैं, मजबूत हो रही हैं। क्या सूडान के मजदूर वर्ग के सचेत हिस्से इसका लाभ उठा कर मौजूदा सैन्य निजाम को उखाड़ कर एक बेहतर समाज बनाने वाले निजाम को कायम करने की ओर बढ़ेंगे। यह आगे आने वाला वक्त बतायेगा।
सूडान : क्षेत्रीय व वैश्विक ताकतों की चालों का अखाड़ा
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को