सूडान में पिछले तीन महीनों से गृहयुद्ध जारी है। यह गृहयुद्ध सेना प्रमुख जनरल अब्दल फतह अल-बुरहान और रेपिड सपोर्ट फोर्स के मुखिया मोहम्मद हामदान डगालो के बीच सूडान पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए है। अल-बुरहान संप्रभु परिषद के नेता हैं और वस्तुतः सरकार पर उनका नियंत्रण है। अर्द्ध-सैनिक बल रेपिड सपोर्ट फोर्स के मुखिया मोहम्मद हामदान डगालो अभी तक संप्रभु परिषद के उपनेता हैं। यह संघर्ष उस समय शुरू हुआ जब सेना में रेपिड सपोर्ट फोर्स के विलय के बारे में प्रक्रिया शुरू होने वाली थी।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 9 जुलाई को चेतावनी दी कि सैन्य बल और अर्द्ध सैन्य बल के बीच हथियारबंद टकराहटों से ग्रस्त सूडान व्यापक गृहयुद्ध के कगार पर खड़ा है। संयुक्त राष्ट्र ने यह चेतावनी उस समय दी जब एक आवासीय इलाके में हवाई हमले से करीब दो दर्जन नागरिकों की जान चली गयी। इससे समूचे क्षेत्र में अस्थिरता पैदा होने की चेतावनी दी गयी।
सूडान के स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया कि दार अल-सलम जिले के खारतूम के जुडवां शहर ओमडरमान में 8 जुलाई को हुए हवाई हमले से 22 लोगों की मौत हो गयी है और बड़़ी संख्या में लोग घायल हुए हैं।
सूडान के प्रतिद्वंद्वी जनरलों के बीच युद्ध के लगभग तीन महीने बीतने के बाद इस हवाई हमले की घटना गुस्सा भड़काने वाली सबसे ताजातरीन घटना है।
इस गृहयुद्ध में लगभग 3000 लोग मारे जा चुके हैं और हमले से बच जाने वाले लोगों का कहना है कि यौन हिंसा की बहुत सारी घटनाएं हुई हैं। इसके साथ ही गैर अरब लोगों को निशाना बनाकर मारा जा रहा है। बड़े पैमाने पर लूट पाट हो रही है। यह विशेष तौर पर दारफुर क्षेत्र में हो रहा है।
जब से यह युद्ध शुरू हुआ तब से रेपिड सपोर्ट बलों की अर्द्ध सेनाओं ने आवासीय इलाकों में अपने अड्डे स्थापित कर लिए हैं। इन्होंने नागरिकों को घर छोड़कर बाहर जाने को मजबूर किया है।
सूडान उत्तर-पूर्व अफ्रीका में बसा देश है। इसका इतिहास असंतोष और विग्रहों-कलहों से भरा रहा है।
ये दोनों सैन्य नेता तीन दशकों तक शासन करने वाले तानाशाह शासक ओमार अल-बशीर के तहत काम करते थे। अप्रैल, 2019 में मुस्लिम ब्रदरहुड समर्थक तानाशाह अल-बशीर के विरुद्ध व्यापक जन आंदोलन शुरू हुआ। यह जन विद्रोह महीनों तक चला। अल-बशीर की तानाशाही हुकूमत का समर्थन कतर और तुर्की करते थे। संयुक्त अरब अमीरात और साउदी अरब ने इन सैन्य नेताओं विशेष तौर पर सेना प्रमुख अल-बुरहान के द्वारा किये गये तख्तापलट का समर्थन किया।
चूंकि बशीर की तानाशाही के विरुद्ध व्यापक जन आंदोलन चला था इसलिए इस व्यापक जनआंदोलन का नेतृत्व करने वाले समूह आजादी और परिवर्तन की शक्तियां (Forces of Freedom and Change- एफ.एफ.सी.) नागरिक शासन की मांग करने लगी। इस मांग को लेकर फिर जोरदार आंदोलन हुए और उनका दमन सैन्य सत्ता ने बेरहमी से किया। व्यापक दमन के बाद भी जब आंदोलन नहीं थमे तो नागरिक-सैनिक संयुक्त संक्रमणकालीन सत्ता बनाई गयी। यह दो वर्ष से कुछ ज्यादा समय तक चली। लेकिन नागरिक प्रधानमंत्री को बुरहान ने बर्खास्त कर दिया। लेकिन फिर से आंदोलन के कारण कुछ दिन के लिए नागरिक सैन्य सत्ता कायम हुई और थोड़े ही दिनों के बाद नागरिक प्रधानमंत्री को हटाकर सैनिक सत्ता कायम की गयी। इसके मुखिया अल-बुरहान और उप-मुखिया मोहम्मद हामदान डगालो ने अपने को नियुक्त किया। वस्तुतः शासक सेना प्रमुख जनरल अब्दल फतह अल-बुरहान ही बने रहे।
ये दोनों नेता अल-बशीर की तानाशाही के दौरान ही प्रमुखता ग्रहण करते गये। जब पश्चिमी सूडान के दारफुर में यहां की स्थानीय आबादी ने सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करना शुरू किया तो बशीर की तानाशाही ने उनको बेरहमी से कुचला। वहां की गैर अरब आबादी हथियारबंद संघर्ष तेज करती गयी। दारफुर में युद्ध के दौरान लगभग 3 लाख लोग मारे गये थे। इसी युद्ध के चलते करीब 25 लाख लोग विस्थापित होने के लिए मजबूर हुए थे। यह युद्ध 2003 से लेकर 2008 तक चला। दारफुर के लोगों को कुचलने के लिए मोहम्मद हामदान डगालो (इन्हें हेमेडटी के नाम से भी जाना जाता है) ने जंजाबीड़ नाम की मिलिशिया का गठन और उसका नेतृत्व किया। यह दारफुर के लोगों के हथियारबंद संघर्ष को निर्ममता से कुचलने और वहां की आबादी के ऊपर भयंकर अत्याचार करने के लिए कुख्यात है। इसके जंजीबीड़ मिलिशिया में करीब एक लाख जवान थे। बाद में इसका नाम बदलकर रेपिड सपोर्ट फोर्स कर दिया गया।
हालांकि सैनिक तानाशाही में ये दोनों हिस्सेदार रहे हैं। लेकिन सूडान पर वर्चस्व की लड़ाई इन दोनों के बीच चलती रही है। यह 15 अप्रैल, 2023 को उस समय से सशस्त्र युद्ध में तब्दील हो गयी है जब रेपिड सपोर्ट फोर्स को सेना में विलय करने की प्रक्रिया शुरू होने वाली थी।
सूडान के इन दोनों नेताओं के बीच टकराव समय-समय पर होते रहे हैं। सेना प्रमुख अल-बुरहान का समर्थन मिश्र के तानाशाह अब्दुल फतह अल-सीसी कर रहे हैं और सूडान की सेना से विभिन्न स्तरों पर जुड़े लोग कर रहे हैं, ये वे लोग हैं जिन्होंने सूडान में एक विशालकाय सैन्य-औद्योगिक तंत्र पर लम्बे समय से नियंत्रण कर रखा है। अब्दुल फतह अल-सीसी की हुकूमत ने रूस-यूक्रेन युद्ध में रूस का विरोध किया। लेकिन इसके बावजूद सूडान की सेना का रूस के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। रूस लाल सागर के तट पर सूडान बंदरगाह में नौसैनिक अड्डा बनाने की कोशिश कर रहा है। सूडान संयुक्त अरब अमीरात के जरिए रूस को अपने सोना का 40 प्रतिशत निर्यात करता है। मोहम्मद हामदान डगालो दारफुर के सोना खदानों की वजह से धनी हुआ है। सोने के निर्यात पर नियंत्रण करके वह रूस के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है। रूसी वैगनर भाड़े की सेना सूडान और इसके पड़ोसी मध्य अफ्रीकी गणतंत्र में अपनी कार्रवाईयां संचालित करती है।
अमरीकी साम्राज्यवादी हर हालत में सूडान का ईरान, रूस और चीन से रिश्ता तोड़ने के लिए कटिबद्ध हैं। वे नहीं चाहते कि रूस की नौसेना सूडान बंदरगाह में अपना अड्डा कायम करे। अमरीकी साम्राज्यवादी चाहते हैं कि सूडान ईरान विरोधी क्षेत्रीय गठबंधन में शामिल होकर उसे मजबूत करे। सूडान इस वर्ष की शुरूवात में ईरान के साथ कुछ समझौते कर चुका है।
सूडान की भौगोलिक स्थिति भी उसे रणनीतिक तौर पर इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण बनाती है। वह अफ्रीका के सींग पर स्थित लाल सागर के किनारे का देश है। वह स्वेज नहर के प्रवेश द्वार में भी स्थित है। यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियां भी सूडान में अपना प्रभाव क्षेत्र बनाये रखना चाहती हैं। वे इस क्षेत्र में अस्थिरता नहीं चाहतीं। इस क्षेत्र की अस्थिरता उनके यहां तेल आपूर्ति में बाधा पहुंचा सकती हैं। इसके अतिरिक्त इस अस्थिरता से यूरोप के देशों में शरणार्थियों की नयी बाढ़ आ सकती है। अभी इथियोपिया हाल ही में दो वर्षों तक चले टिग्ररे के विद्रोहियों के साथ युद्ध को समाप्त करने को लेकर समझौता कर चुका है। उसने यह भी समझौता किया है कि टिग्ररे के विद्रोहियों के सशस्त्र बलों को अपनी राष्ट्रीय सेना में शामिल करेगा। इससे अम्हरा राज्य के लोगों में असंतोष है। अम्हरा का टिग्ररे के साथ इलाकों को लेकर विवाद है। अम्हरा के लड़ाकुओं ने टिग्ररे के विद्रोहियों को पराजित करने में भूमिका निभायी थी। यूरोपीय साम्राज्यवादी अस्थिर करने वाले इस प्रश्न से भी आशंकित हैं।
इस तरह देखा जा सकता है कि सूडान में खाड़ी की शक्तियां, अमरीकी साम्राज्यवादी, यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी और रूस के बीच प्रभाव क्षेत्र कायम करने और उसे बढ़ाने की लड़ाई में संलग्न हैं। इसके अतिरिक्त, सूडान के भीतर अलग-अलग प्रजातियों और कबीलों के बीच में टकराहटें और विवाद भी मौजूद हैं। इन टकराहटों और विवादों को अमरीकी और यूरोपीय साम्राज्यवादी तथा रूसी साम्राज्यवादी अपने-अपने पक्ष में इस्तेमाल कर रहे हैं।
एक बड़ी टकराहट के बाद 2011 में दक्षिणी सूडान अलग हो गया था। दक्षिणी सूडान के पास अधिकांश तेल भण्डार हैं। सूडान में बहुत थोड़ी मात्रा में तेल है। लेकिन दक्षिणी सूडान के पास कोई बंदरगाह नहीं है। वह भू-आवेष्ठित देश है। तेल शोधक कारखाने भी सूडान के पास हैं।
दक्षिणी सूडान के अलग हो जाने के बाद भी सूडान में दारफुर की समस्या बनी हुई है। वह न सिर्फ बनी हुई है बल्कि उग्र भी होती जा रही है। इसने इस देश में टकराहटों, युद्ध के साथ-साथ राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया है।
सूडान की कुल आबादी 4.6 करोड़ के आस-पास है। इस आबादी में करीब 1.5 करोड़ लोग भयंकर खाद्यान्न संकट का सामना कर रहे हैं। इधर खाद्यान्न, ईंधन और अन्य जरूरी चीजों के दाम बहुत तेजी के साथ बढ़ते गये हैं। हाल के वर्षों में खराब फसलों और बाढ़ से यहां का आर्थिक संकट और गहरा गया है।
इसके ऊपर इस गृहयुद्ध जैसी स्थिति ने और बुरी हालत कर दी है। दोनों सैन्य नेता एक-दूसरे के ऊपर हमले नहीं रोक रहे हैं। दोनों एक-दूसरे पर समझौता तोड़ने का आरोप लगा रहे हैं। इससे सामान्य नागरिक मारे जा रहे हैं, घायल हो रहे हैं और घरों से उजाड़े जा रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि सूडान की टकराहटें देश में पहले से मौजूद चुनौतीपूर्ण स्वास्थ्य और भूख की परिस्थिति को और ज्यादा विकराल बना रही हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अनुमान के अनुसार 15 अप्रैल को युद्ध शुरू होने से पहले सूडान की 30 लाख से ज्यादा महिलायें और लड़कियां लिंग आधारित हिंसा के जोखिम में थीं।
स्वास्थ्यकर्मियों पर भी हमले हो रहे हैं।
लेकिन इससे इन दोनों पक्षों के सैन्य नेताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। जहां जनरल अब्दुल फतह अल-बुरहान पश्चिमी साम्राज्यवादियों, रूसी साम्राज्यवादियों और मुस्लिम ब्रदरहुड केे कट्टरपंथियों को खुश करने और उनके बीच संतुलन बनाने में लगे हुए हैं, वहीं मोहम्मद हामदान डगालो का समर्थन आजादी व परिवर्तन की शक्तियां (एफ.एफ.सी.) कर रही हैं। दारफुर और अन्य इलाकों के विद्रोही आंदोलनों के बीच कुछ समय पहले एक समझौता हुआ था। इसे जूबा शांति समझौता कहा गया। इस समझौते ने टकराहटों को नहीं रोका। सूडान का समृद्ध पूर्वी इलाका- जहां हीरे और सोने की खदानें हैं, सूडान बंदरगाह है। वहां हथियारबंद समूहों ने देश के बंदरगाहों पर नियंत्रण कर रखा है और वे अपने क्षेत्रों की ज्यादा स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं।
इधर अफ्रीका की सींग के आस-पास के आठ देशों से मिलकर बने विकास के बारे में अंतर-सरकारी प्राधिकार (Inter Governmental Authority on Development - IGAD) के सदस्य इथियोपिया की राजधानी अदीस अबावा में इस आशय से मिले कि सूडान के युद्ध को रोकने के लिए शांति प्रक्रिया शुरू की जाये।
लेकिन सूडान के सेना प्रमुख ने इस बैठक में हिस्सा नहीं लिया। उनका कहना था कि केन्या की अध्यक्षता में होने वाली बैठक उन्हें अस्वीकार्य है। वे केन्या के राष्ट्रपति के रेपिड सपोर्ट फोर्सेस के मुखिया के प्रति नरम रुख के कारण इसमें शामिल नहीं हुए।
इस समझौते को कराने में अमरीकी साम्राज्यवादी सहित कई क्षेत्रीय ताकतें लगी हुई हैं। वे इससे निपटने के लिए अफ्रीकी संघ की शांति सेना की तैनाती की चर्चा कर रहे हैं।
लेकिन ये सारे प्रयास एक हद तक युद्ध विराम तो तात्कालिक तौर पर करा सकते हैं, लेकिन साम्राज्यवादी देश और क्षेत्रीय शक्तियां सूडान में स्थायी शांति कराने में सफल इसलिए नहीं हो सकतीं क्योंकि ये ही शक्तियां अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों के विस्तार के लिए वहां के हीरे और सोने की लूट के लिए आपस में संघर्षरत रहेंगी और सूडान के शोषक वर्ग के अलग-अलग धड़ों को समर्थन, प्रोत्साहन और सत्तासीन कराने की कोशिश करेंगी।
सूडान में जारी गृहयुद्ध: अंतर्राष्ट्रीय व क्षेत्रीय शक्तियों की भूमिका
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को