सवाल पर सवाल -मृगया शोभनम

सवाल तरह-तरह के होते हैं,
कुछ सवाल
ओस की बूदों की तरह होते हैं,
सुबह की धूप में
कुछ देर जगमगा कर 
लुप्त हो जाते हैं।

कुछ सवाल 
रिमझिम फुहारों जैसे होते हैं
जितने पूछे जाते हैं
उतने सुहाने लगते हैं।

कुछ सवाल 
हिमपात के बाद
पड़े पाले की तरह होते हैं,
जब हवा चलती है
तो हाड को भी कंपा देते हैं।

कुछ सवाल 
जिन्दगी भर नहीं पूछ जाते हैं,
इधर आप दुनिया से गुजरे
उधर वे उठ खड़े होते हैं।

कुछ सवाल
किसी जवाब के मोहताज नहीं होते हैं,
उनके जवाब में सवाल ही होते हैं
और
सवाल पर सवाल का सिलसिला
कभी 
खामोशी का विस्फोटक रूप धारण कर लेता है
और सभी 
विस्फोटक सवालों से संसार लहूलुहान हो जाता है।

कुछ सवाल
जिन्दगी भर पीछा नहीं छोड़ते हैं
आप कितने ही जवाब दें
पर वे कभी खत्म नहीं होते हैं
सवालों के संसार में 
बाजदफा उत्तर कतई जरूरी नहीं हैं।

कोई सवाल
पूछने से पहले
कृपया एक सवाल का जवाब दीजिए
आपका सवाल
किस मिजाज का है?
(साभार : कविता संग्रह ‘ये वक्त नहीं है चुप 
बैठने का’)

आलेख

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सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।

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समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।    

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फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।

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यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।