13 जुलाई से ब्रिटिश जूनियर डॉक्टरों ने अपनी मांगों को न माने जाने के विरोध में हड़ताल शुरू कर दी है। डॉक्टरों की मांग तनख्वाह में 35 प्रतिशत वेतन वृद्धि की है जबकि प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की सरकार 2022-23 के लिए 2 प्रतिशत और 2023-24 के लिए 5 प्रतिशत वेतन वृद्धि की बात कर रही थी। हालांकि बाद में सुनक ने अंतिम तौर पर 6 प्रतिशत वेतन वृद्धि की बात की और न माने जाने पर वार्ता बंद करने की धमकी दी। इसके बाद 13 जुलाई को जूनियर डॉक्टर पांच दिन की लम्बी हड़ताल पर चले गये।
ज्ञात हो कि ब्रिटेन में इन दिनों महंगाई (मुद्रा स्फीति) की दर 6-7 प्रतिशत है। ऐसे में सरकार द्वारा केवल 2 प्रतिशत वेतन वृद्धि की बात करना ही अजीब है। वह भी तब जब 2008 के आर्थिक संकट के बाद से लगातार बजट कटौती के कारण वेतन में महंगाई के मुकाबले कम वृद्धि हो रही है और डाक्टरों का जीवन स्तर गिर रहा है साथ ही मरीजों पर होने वाला खर्च भी कम हो रहा है। अगर डॉक्टर आज 35 प्रतिशत वेतन वृद्धि की मांग कर रहे हैं तो इसका कारण 2008 के बाद से लगातार गिर रहे वेतन स्तर को आज के वास्तविक महंगाई के हिसाब से वेतन स्तर उठाना है।
ब्रिटेन में डॉक्टरों की पांच दिन की यह हड़ताल इतिहास की सबसे लम्बी हड़ताल है। इस वर्ष ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन के आह्वान पर मार्च में 3 दिन की, अप्रैल में 4 दिन की और जून में 3 दिन की हड़ताल हुयी थी। पांच दिन की इस हड़ताल के अतिरिक्त आगे जुलाई में ही परामर्शदाताओं (Consultant) की 48 घंटे और रेडियोग्राफर की दो दिन की हड़ताल भी होनी है।
हालांकि ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन के प्रमुख प्रो. फिट बोनफील्ड ने सुनक के वेतन वृद्धि के प्रस्ताव की निंदा की है लेकिन उप प्रमुख विवेक त्रिवेदी और रॉबर्ट लोरेन्सन ने अप्रत्यक्ष तरीके से मांगों में ढील देने की बात की है। उन्होंने कहा कि समझौता कम से कम स्काटलैण्ड की तरह का हो। स्काटलैण्ड में यूनियन ने डॉक्टरों के लिए 2022-23 के लिए 4.5 प्रतिशत और 2023-24 के लिए 12.4 प्रतिशत वेतन वृद्धि पर समझौता कर लिया है। और इसी तरह के समझौते की बात वेल्स के डॉक्टरों के लिए हो रही है। हालांकि अभी वेल्स में इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं हुए हैं। यह समझौता मुद्रा स्फीति की दर से कम पर हो रहा है। देखा जाये तो ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन एक तरह से संघर्ष से पीछे हटने की कोशिश कर रही है।
जब ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन ने वेल्स में पिछली साल दिसम्बर में एक सर्वे कराया था तब 78 प्रतिशत ने मुद्रास्फीति से ज्यादा या कम से कम मुद्रास्फीति तक वेतन वृद्धि की बात की थी और दो-तिहाई लोगों ने मांगें न माने जाने पर हड़ताल की बात की थी। लेकिन अब ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन डॉक्टरों की इस हड़ताल को कम वेतन वृद्धि के समझौते पर ही खत्म करने के लिए कोशिश कर रही है। ऐसा ही रॉयल कॉलेज की नर्सों की हड़ताल के साथ उनकी यूनियन ने मई में किया था। और रेल कर्मचारियों की हड़ताल भी ऐसे ही यूनियनों द्वारा खत्म करवा दी गयी थी।
ऐसा ही शिक्षा क्षेत्र के अध्यापकों के साथ भी हो रहा है। प्रधानमंत्री सुनक, शिक्षा मंत्री गिलियन और शिक्षा क्षेत्र की चार यूनियनों के नेताओं ने एक संयुक्त बयान जारी कर अध्यापकों के लिए 6.5 प्रतिशत वेतन वृद्धि की बात की है। एक तरह से प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक क्षेत्र के सभी कर्मचारियों के लिए एक सामान्य वेतन वृद्धि की घोषणा कर दी और वे इससे आगे वेतन वृद्धि की मांग पर बात करने को तैयार नहीं हैं। शिक्षा क्षेत्र की यूनियनों ने घोषणा होने के बाद हड़ताल न करने का निर्णय लिया है। इस तरह जब डॉक्टरों ने अपनी हड़ताल शुरू की तो उन्होंने अपने पांव पीछे खींच लिये हैं। और कुछ दिनों पहले एकता की जो बात की जा रही थी वह खत्म हो गयी।
सरकार व यूनियन ब्रिटेन में अलग-अलग क्षेत्रों के बीच कर्मचारियों के बीच क्षेत्रवाद के नाम पर फूट डालकर अलग-अलग समझौते करवा रही हैं जिससे कर्मचारियों की एकता टूट जा रही है। इसी तरह विभिन्न क्षेत्रों के कर्मचारियों की एकता बनने के जो प्रयास हो रहे हैं उनको भी यूनियन नेता नहीं बनने दे रहे हैं। और ऐसे समय में जब पूरी दुनिया के स्तर पर मजदूर संघर्ष पीछे हट रहे हों और पूंजीपति वर्ग हावी हो, तब बिना व्यापक एकता के कर्मचारियों की मांगें पूरी नहीं हो सकतीं। न वे अपने रोजगार बचा सकते हैं और न अपने जीवन स्तर को बनाये रख सकते हैं। पूंजीपति वर्ग उनके रोजगार भी छीन लेगा और उनके जीवन स्तर को निचले से निचले स्तर पर धकेल देगा।
ब्रिटिश डॉक्टरों ने शुरू की हड़ताल
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को