फासीवाद और आम जनजीवन

हमारे देश में बढ़ता हुआ हिन्दू फासीवादी आंदोलन सबके जीवन को प्रभावित कर रहा है। आने वाले वक्त में यह रोजमर्रा के जीवन को किन-किन मामलों में और प्रभावित कर सकता है इसे हम जर्मनी में हिटलर के शासन काल के अनुभवों से समझ सकते हैं। 
    
1933 में सत्तासीन होने के बाद हिटलर और नाजी पार्टी ने जर्मनी में रोजमर्रा की जिंदगी के लगभग सभी पहलुओं में घुसपैठ शुरू कर दी थी। जीवन के सभी क्षेत्रों में इस घुसपैठ को नाजीकरण की प्रक्रिया का नाम दिया गया। 
    
बच्चे व युवा जर्मन फासीवाद के लिए भविष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे। इन्हें हिटलर के फासीवादी विचारों पर खड़ा करने के लिए भांति-भांति के संगठनों में संगठित किया गया। दो प्रमुख नाजी युवा संगठन हिटलर यूथ (हिटलर जुगैंड) व जर्मन गर्ल्स लीग (बुंद डॅचर माडल) थे। 1936 में इन समूहों में युवाओं के लिए सदस्यता लेना अनिवार्य बना दिया गया। 1932 में जहां हिटलर यूथ की सदस्यता मात्र 1 लाख थी वहीं 1934 में इसकी सदस्यता लगभग 35 लाख हो गयी। हिटलर यूथ 10 से 18 वर्ष के लड़कों का संगठन था। 
    
हिटलर यूथ खेल, शारीरिक दक्षता पर ध्यान केन्द्रित करते हुए कई गतिविधियां आयोजित करता था। इन गतिविधियों में मुक्केबाजी, कैम्पिंग यात्रायें, फासीवादी (राष्ट्रीय समाजवादी विचारधारा) विचारधारा (जिसमें यहूदी विरोध, हिटलर के प्रति प्रतिबद्धता शामिल थे) में शिक्षा, सैन्य प्रशिक्षण आदि शामिल थे। 
    
जर्मन गर्ल्स लीग को दो डिवीजनों में विभाजित किया गया था। यंग गर्ल्स लीग (जुंग माडेल) चौदह वर्ष या उससे कम उम्र की लड़कियों के लिए और फेथ एण्ड ब्यूटी (विश्वास और सौन्दर्य, ग्लूबे अंड शॉनहाइट) सत्रह से इक्कीस वर्ष की लड़कियों के लिए था। यंग गर्ल्स लीग की कार्यवाहियों में हिटलर यूथ की तरह ही फासीवादी विचारधारा में शिक्षण, खेल, कैम्पिंग के साथ-साथ नाजी विचारों के अनुरूप बिस्तर बनाने सरीखे प्रशिक्षण शामिल थे। फेथ एण्ड ब्यूटी संगठन महिला की आदर्श नाजी छवि पर जोर देता था। 
    
आम तौर पर सभी युवा संगठन तार्किकता विरोधी थे यद्यपि इन्होंने औपचारिक स्कूलों की जगह नहीं ली पर उनके प्रभाव व महत्व को काफी कम कर दिया। 
    
शिक्षा के क्षेत्र में हिटलर के सत्तासीन होने पर बड़े पैमाने पर बदलाव किये गये। शिक्षा को सर्वप्रथम तार्किकता से मुक्त बनाया गया। शिक्षा ऐसी बनायी गयी कि लोगों का तार्किक चिंतन करना, प्रश्न पूछना या खुद सोचना हतोत्साहित किया गया। उन्हें नाजी दृष्टिकोण पर विश्वास करने वाला और आज्ञाकारी बनाया गया। समूचा पाठ्यक्रम इस अनुरूप बदल दिया गया। पाठ्य सामग्री में खेल, इतिहास व नस्लवादी विज्ञान को बढ़ावा दिया गया। नई पाठ्य पुस्तकों में जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता, अन्य नस्ल के लोगों को निर्वासित करने के विचार भरे पड़े थे। सभी पाठ्य पुस्तकें नाजी पार्टी द्वारा पास की जाती थीं। 
    
पाठ्य पुस्तकों के साथ-साथ उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी जर्मन फासीवाद ने अपने निशाने पर लिया। हिटलर के सत्तासीन होने के कुछ समय बाद एक कानून बनाकर यहूदी शिक्षकों, कम्युनिस्टों या अन्य विरोधी विचारों वाले शिक्षकों को काम से हटा दिया गया। नाजी पार्टी की सदस्यता सभी शिक्षकों के लिए अनिवार्य बना दी गयी। 1929 में नाजियों का शिक्षक संगठन ‘नेशनल सोशलिस्ट टीचर्स लीग’ अस्तित्व में आया था। हिटलर के सत्तासीन होने के बाद यह संगठन शिक्षकों पर नियंत्रण करने व उनके शिक्षण-प्रशिक्षण के काम में लगा दिया गया। सभी शिक्षकों के लिए इस संगठन द्वारा संचालित एक महीने का प्रशिक्षण कार्यक्रम अनिवार्य कर दिया गया। इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में नाजी विचारधारा, नाजी सत्ता के विचारों के प्रसार के महत्व पर जोर दिया जाता था। 
    
विश्वविद्यालयों में यहूदी प्रोफेसरों को बर्खास्त कर दिया गया। इनकी संख्या कुल प्रोफेसरों की 12 प्रतिशत थी। इनमें से कई नोबल पुरस्कार विजेता भी थे। स्कूलों-विश्व विद्यालयों में यहूदी छात्रों के प्रवेश को सीमित किया गया। 
    
इसके अलावा कुछ नये विशेष स्कूलों को भी खोला गया। नैपोलस स्कूल भविष्य में राजनैतिक व सैन्य नेता बनने को उत्सुक छात्रों के लिए और एडाल्फ हिटलर स्कूल नाजी राजनीति में जाने वाले छात्रों के प्रशिक्षण के लिए खोले गये। आर्डर कास्टल्स नामक स्कूल उन छात्रों के लिए खोले गये जो नाजी पार्टी में उच्च स्थानों पर जाना चाहते थे। इन आर्डर कास्टल्स स्कूलों में प्रवेश के लिए एडाल्फ हिटलर स्कूल में 6 वर्ष पढ़ाई, 2.5 वर्ष तक राजकीय श्रम में भागीदारी और 4 वर्ष का पूर्णकालिक कार्य अनिवार्य था। 
    
बच्चों के खेलकूद-मनोरंजन को भी नाजी विचारों के अनुरूप बनाया गया। बच्चों का एक खेल ब्लाक जोड़कर हिटलर लिखने या स्वास्तिक बनाने का बनाया गया। किताबों में चित्रों के जरिये जर्मनों को श्रेष्ठ व यहूदियों को कमतर व अपराधी के बतौर प्रस्तुत किया जाता था। सैन्य गतिविधियों को तस्वीरों के जरिये महिमामण्डित किया जाता था। 
    
महिलाओं के प्रति नाजी विचारधारा का दृष्टिकोण यही था कि महिला का स्थान घर में होता है। जर्मन महिलाओं के लिए तीन मार्गदर्शक सिद्धान्त घोषित किये गये थे। ये थे रसोईघर, बच्चे और चर्च। 
    
इनमें बच्चे सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे। एक मजबूत जर्मन ‘आर्य’ नस्ल के निर्माण के लिए जर्मन महिलाओं को बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। जून 1933 में एक कानून के जरिये जर्मन नव विवाहित जोड़े के लिए 1000 रिचमार्क ब्याज मुक्त ऋण की व्यवस्था की गयी। दम्पत्ति के एक बच्चा होने पर एक चौथाई ऋण माफ कर दिया जाता था। जर्मन महिलाओं के लिए गर्भपात, नसबंदी व गर्भ निरोधक प्रतिबंधित कर दिये गये। 
    
प्रथम विश्व युद्ध के समय रोजगार में महिलाओं की संख्या बढ़ी थी। पुरुषों के युद्ध के मोर्चे पर होने व आर्थिक तंगी ने महिलाओं को काम की ओर ढकेला था। पर नाजी चूंकि महिलाओं के जीवन को परिवार के इर्द-गिर्द केन्द्रित करना चाहते थे अतः उन्होंने रोजगार में महिलाओं की भागीदारी को हतोत्साहित किया। 1933 में सिविल सेवा सुधार कानून के तहत एक साथ 19,000 महिलायें नौकरी से हटा दी गयीं। हालांकि अर्थव्यवस्था की जरूरतों के मद्देनजर नाजी पूरी तरह महिलाओं को रोजगार से नहीं हटा सके। 1937 से 1939 के बीच युद्ध तैयारियों के चलते रोजगारशुदा महिलाओं की संख्या 57 लाख से बढ़कर 71 लाख हो गयी। 1939 में युद्ध शुरू होने पर करीब 5 लाख महिलायें सशस्त्र बलों के साथ विभिन्न भूमिकाओं मसलन सचिव से लेकर कंसंट्रेशन कैम्पों के गार्ड आदि में लगायी गयीं। 
    
4 करोड़ महिलाओं में 1.3 करोड़ विभिन्न नाजी संगठनों में शामिल थीं। राष्ट्रीय समाजवादी महिला लीग नामक नाजी संगठन अक्टूबर 1931 में स्थापित किया गया था। यह संगठन महिलाओं को नाजी विचारों के अनुरूप खाना पकाने, बच्चा पालने, जर्मन उत्पादों के उपयोग आदि के बारे में प्रशिक्षित करता था। करीब 23 लाख महिलायें इस संगठन में शामिल थीं। महिलाओं के लिए निकलने वाली पत्रिकाओं पम्फलेटों में नाजी समर्थक राष्ट्रवादी गीत से लेकर व्यंजन बनाने की विधि, जर्मन महिलाओं के बाकी देशों की तुलना में बेहतर जीवन आदि को प्रस्तुत किया जाता था। साथ ही इनमें हिटलर की दयालु, मिलनसार, परिवार उन्मुख छवि को पेश किया जाता था। 
    
1933 में जब नाजी सत्तासीन हुए तो बेरेजगारों की संख्या जर्मनी में 60 लाख से अधिक थी। हिटलर ने अपने चुनाव अभियान में बेरोजगारी कम करने का वायदा किया था। सत्ता में आने के तुरंत बाद नाजियों ने दावा किया कि बेरोजगारी घट कर 33 लाख रह गयी है। और 1938 में उन्होंने बेरोजगारी को खत्म कर देने का दावा कर दिया जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी। 
    
2 मई 1933 को नाजियों ने सभी ट्रेड यूनियनों पर प्रतिबंध थोप दिया और उनके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। जर्मन लेबर फ्रंट के रूप में एक नयी नाजीवादी ट्रेड यूनियन का गठन किया गया। इस फ्रंट ने काम की शर्तें, काम के घंटे व वेतन की दर सब निर्धारित कर मजदूरों के अधिकारों पर नियंत्रण कायम कर लिया। इस लेबर फ्रंट ने एक लोकप्रिय कार्यक्रम ‘स्ट्रेंथ थ्रू जॉय’ नामक चलाया। इसके तहत कामकाजी लोगों को आम तौर पर मध्यम वर्ग के लिए मुहैय्या अवकाश, खेल की सुविधा, मुफ्त थिएटर टिकट, सब्सिडी वाली यात्रायें देने की शुरूआत की गयी। इन कार्यक्रमों के जरिये श्रमिकों को यह विश्वास दिलाया जाता था कि जीवन पर बढ़ते नियंत्रण के बावजूद क्यों नाजी आदर्शों पर चलना लाभकारी व खुशहाली भरा है। 
    
इसी तरह रीच लेबर सर्विस नामक एक संगठन खड़ा किया गया जो बड़े पैमाने पर सरकारी परियोजनाओं को पूरा करने के लिए अकुशल व बेरोजगार श्रमिकों को भर्ती करता था। इन परियोजनाओं में 1936 की ओलम्पिक तैयारी हेतु स्टेडियम निर्माण आदि शामिल थे। इनमें 18-25 उम्र के पुरुष शामिल किये जाते थे। 1935 में पुनः शस्त्रीकरण की नीति के चलते सभी पुरुषों के लिए इस सरकारी सेवा को अनिवार्य कर दिया गया। 
    
ओलम्पिक खेलों व शस्त्र निर्माण के काम ने यद्यपि बेरोजगारी में कमी पैदा की पर श्रमिकों की जीवन दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। वेतन 1929 से भी निचले स्तर पर था और मजदूर इसे बढ़ाने की मांग भी नहीं कर सकते थे। प्रति सप्ताह अधिकतम काम की सीमा 60 से बढ़ाकर 72 घण्टे कर दी गयी थी। 
    
नाजियों का बेरोजगारी खत्म करने का दावा गलत था। एक बड़ी यहूदी व नाजी विरोधी आबादी पहले ही काम से बाहर कर दी गयी थी। महिलाओं को काम करने के लिए हतोत्साहित करने की नीति थी। लोग अपनी इच्छा से काम बदल भी नहीं सकते थे। खासकर युद्ध समर्थित उद्योगों में काम करने से इंकार करने वाले लोगों को ‘काम से डरने वाले’ के रूप में सूचीबद्ध किया जाता था और उन्हें गेस्टापो के भयानक व्यवहार या कंसंट्रेशन कैम्पों की अमानवीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। 
    
धर्म एक अन्य क्षेत्र था जिस पर नियंत्रण करने के लिए नाजी सत्ता को विशेष प्रयास करने पड़े। 1933 में जर्मनी में 4.5 करोड़ प्रोटेस्टेंट ईसाई, 2.2 करोड़ कैथोलिक ईसाई, 5 लाख यहूदी व 25 हजार यहोवा मान्यता को मानने वाले लोग थे। यहूदी व यहोवा प्रमुख धार्मिक अल्पसंख्यक थे। जर्मन नाजियों ने इन पर क्रूरतापूर्वक अत्याचार किये। इन्हें तरह-तरह के यातनागृहों में डाल दिया। 
    
जहां तक कैथोलिक ईसाईयों का प्रश्न है तो ये जनसंख्या का एक तिहाई थे। ये पोप के केन्द्रीय नेतृत्व के तहत नियंत्रित होते थे। कैथोलिक धर्म में घुसपैठ कर अपने हितों के अनुरूप उस पर नियंत्रण कायम करना नाजियों के लिए कठिन था। अतः हिटलर ने शुरूआत में कैथोलिकों के प्रति सुलह की नीति अख्तियार की। जुलाई 1933 में नाजियों ने वेटिकन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये जिसमें तय किया गया कि नाजी कैथोलिक चर्चा में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, बदले में वेटिकन नाजी शासन को मान्यता देगा। पर शीघ्र ही नाजियों ने इस समझौते को तोड़ दिया। 1935 में चर्च मामलों के मंत्रालय की स्थापना कर ईसाई धर्म की अपने अनुरूप जो बातें नहीं थीं उन्हें बदलकर थोपने की शुरूआत कर दी गयी। 
    
कैथोलिक स्कूल बंद कर दिये गये। विरोध करने वाले कैथोलिक पादरियों को जेल में डाल दिया गया। शासन द्वारा स्थापित चर्चों के अनुशासन में लोगों को ढकेला गया। 
    
प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्म जर्मनी में बहुसंख्यक था। इसके जर्मनी में विभिन्न गुरू व नेता थे। किसी केन्द्रीय नेतृत्व के अभाव में नाजियों के लिए प्रोटेस्टेंट धर्म में घुसपैठ अपेक्षाकृत आसान थी। कुछ प्रोटेस्टेंट गुटों ने तो खुद ही नाजियों के सत्ता में आने का समर्थन किया था। इनको ‘जर्मन ईसाई’ नाम से जाना गया। जर्मन ईसाईयों के समर्थन से नाजियों ने ‘रीच चर्च’ की स्थापना की। इस ‘रीच चर्च’ का लक्ष्य एक राष्ट्रीय चर्च के रूप में विकसित होने का था। यह नाजी समर्थक चर्च था। इसने बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट को यहूदी दस्तावेज कहकर इसके अनुरूप किसी भी शिक्षा का विरोध किया। हालांकि सभी ईसाई ‘रीच चर्च’ के अनुशासन में जाने को तैयार नहीं हुए। कुछ नाजी विरोधी लोगों ने 1934 में कन्फेसिंग चर्च की स्थापना कर चर्च की किसी राजनैतिक हस्तक्षेप से स्वतंत्रता की वकालत की। इसके ढेरों पादरियों को जेल व यातना कैम्पों में डाल दिया गया। 
    
धर्म के साथ संस्कृति का क्षेत्र भी ऐसा था जिस पर नियंत्रण स्थापित करना जर्मन नाजीवादियों को महत्वपूर्ण लगा। 1933 में गोएबल्स द्वारा ‘रीच चैम्बर आफ कल्चर’ की स्थापना की गयी। इस विभाग को सात वर्गों में बांटा गया- प्रेस, कला, थिएटर, रेडियो, संगीत, फिल्म और साहित्य। कला के क्षेत्र में नाजियों ने जर्मन कला और फोटोग्राफी के पारम्परिक रूपों को बढ़ावा दिया। आधुनिकतावादी शैली की किसी भी कला को उन्होंने पतित व साम्यवादी घोषित कर खारिज किया। 1933 में जर्मन संग्रहालयों-दीर्घाओं से 13,000 पेंटिग्स ‘पतित’ घोषित कर हटा दी गयीं। इसी तरह नाजियों ने एक प्रदर्शनी तैयार की जिसमें दिखाया गया था कि आधुनिक कला कैसे ‘आर्य’ संस्कृति को नष्ट कर रही है और कैसे जर्मन कला सबसे अच्छी है। कला के क्षेत्र में नाजियों की इन करतूतों से ढेरों कलाकार देश छोड़कर जाने को मजबूर हो गये। 
    
साहित्य के क्षेत्र में नाजियों ने यहूदी लेखकों, नाजी विरोधी लेखकों, कम्युनिस्टों को निशाने पर लेकर इनके नाम काली सूची में डाल दिये। विश्वविद्यालयों के नाजी छात्र समूह ‘नेशनल सोशलिस्ट जर्मन स्टूडेंट्स एसोसिएशन’ ने काली सूची के लेखकों की पुस्तकों को जलाने का अभियान शुरू किया। 10 मई 1933 को एक दिन में 25 हजार किताबें जला दीं गयीं। इनमें मार्क्सवादी साहित्य भी शामिल था। 
    
संगीत के क्षेत्र में ‘रीच म्यूजिक चैंबर’ की स्थापना 1933 में की गयी। इसने तथाकथित ‘अच्छे’ जर्मन संगीत जो जर्मन संगीतकारों ने बनाये थे मसलन वैगनर व बीथोवेन, को बढ़ावा दिया। इसके साथ ही जैज व यहूदियों द्वारा रचित संगीत को ‘बुरा’ करार देकर कुचलने का काम किया। किसी भी संगीत के क्षेत्र में कार्य करने वाले के लिए चैंबर की सदस्यता अनिवार्य कर दी गयी। 
    
थिएटर, प्रेस, फिल्म, रेडियो पर नाजियों के लिए नियंत्रण करना अपेक्षाकृत आसान था। इन्हें भी नाजी विचारों के प्रसार में लगा दिया गया।
    
इस तरह हिटलर के नाजी शासन ने हर तरह के नये विचारों, तार्किक चिंतन सब पर रोक लगा दी। नए तार्किक विचारों, कला के वाहक नाजी आतंक को झेलने के लिए मजबूर कर दिये गये। 
    
अगर जीवन के इन विविध पहलुओं के संदर्भ में हिन्दू फासीवाद की ओर बढ़ते भारत को देखें तो क्या तस्वीर उभरती है।
    
हिन्दू फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी स्थापना के समय से ही ‘हिन्दू राष्ट्र’ स्थापित करने के लक्ष्य से प्रेरित रहा है। जर्मनी में जहां ढेरों क्षेत्रों में नाजी संगठन 1930 के दशक में व कई हिटलर के सत्तासीन होने के बाद बने थे वहीं भारत में संघ पहले से तमाम किस्म के संगठनों को स्थापित व संचालित करता रहा है। आज इसके छात्र, महिला, मजदूर, शिक्षक, युवा, संतों, आदिवासी आदि लगभग सभी क्षेत्रों में संगठन सक्रिय हैं। 2014 में मोदी के सत्तासीन होने के बाद इन सभी संगठनों के प्रभाव में वृद्धि हुई है। 
    
जहां हिटलर का नाजी शासन जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता व यहूदियों के तिरस्कार पर आधारित था वहीं संघ का ‘हिन्दू राष्ट्र’ का एजेण्डा हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता व मुख्यतया मुस्लिमों के विरोध पर आधारित है। हिटलर को यहूदी धर्म से निपटने के साथ-साथ ईसाई धर्म को भी अपने अनुरूप बदलना पड़ा था। भारत के संघियों को भी मुस्लिम धर्म-ईसाई धर्म से निपटने के साथ हिन्दू धर्म को भी बदले रूप में पेश करना पड़ा है। 
    
जर्मनी के प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्म की तरह ही भारत में भी हिन्दू धर्म विभिन्न सम्प्रदायों-मतों में विभक्त रहा है। इनमें संघी घुसपैठ अपेक्षाकृत आसान रही है। इस घुसपैठ की प्रक्रिया अभी जारी है पर काफी हद तक संघी इसमें सफल हो चुके हैं। अपनी जरूरत के अनुरूप संघी सभी हिन्दू देवताओं को आक्रामक, सैन्यीकृत, विधर्मियों के सफाया करने वाले रूप में बदल चुके हैं। आर्य समाज से लेकर अन्य संस्थाओं को अपने साम्प्रदायिक फासीवादी विचारों में रंग चुके हैं। इनका हिन्दू धर्म सामंती ब्राह्मणवादी मान्यताओं वाला, पुरुष वर्चस्व वाला, जातिवादी है। आज अगर देश के अलग-अलग हिन्दू संत घोर साम्प्रदायिक मुस्लिम विरोधी विष उगल रहे हैं तो यह उनके संघियों के हिन्दू धर्म में प्रशिक्षित हो जाने का ही परिणाम है। 
    
एक भाषा एक राष्ट्र एक संस्कृति की बात करने वाले संघी फासीवादी भारत जैसे बहुराष्ट्रीय, बहुभाषाई, बहु संस्कृति वाले देश में आज हर ओर अपनी जड़ें जमाने में सफल हुए हैं। इसमें उन्होंने स्थानीय पैमाने पर मौजूद मतभेदों-झगड़ों को साम्प्रदायिक रंग में रंगने की नीति अख्तियार की है। इनके कारनामों का जीता जागता उदाहरण आज सुलगता मणिपुर बना हुआ है। 
    
शिक्षा व युवाओं के मामले में ये पूरी तरह हिटलर के पदचिन्हों पर चल रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में नई शिक्षा नीति के जरिये शिक्षा का भगवाकरण, पाठ्यपुस्तकों में साम्प्रदायिक बदलाव जारी हैं। इनका लम्पट छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद आज ही शिक्षकों से लेकर विरोधी छात्र संगठनों पर हिंसक हमले करने के लिए मशहूर हो चुका है। तार्किक चिंतन पैदा करने वाले सभी उच्च शिक्षा केन्द्र आज इनके निशाने पर हैं। पाठ्यक्रमों में संघी विचारकों को बड़े पैमाने पर शामिल कर यह भारतीय स्कूलों को फासीवादी स्कूलों में तब्दील करने की राह पर बढ़ रहे हैं। 
    
संघ द्वारा पहले से ही शिशु मंदिर-विद्या मंदिरों का जाल देश में बिछाया जा चुका है। ये स्कूल अपनी बारी में संघ के लम्बे-लम्बे ट्रेनिंग कैम्पों के काम पहले से आते रहे हैं। इन कैम्पों में संघी फासीवादी विचारों के प्रचार से लेकर, प्रारम्भिक सैन्य प्रशिक्षण मसलन लाठी चलाना आसानी से देखा जा सकता है। 
    
महिलाओं के मामले में भी संघी फासीवादी हिटलर के ही पदचिन्हों पर चल रहे हैं। इनकी भी मान्यता महिलाओं को घर तक समेट देने की है। पर आज महिला जागरूकता की स्थिति को देखते हुए अभी ये बदले तौर-तरीकों से ही अपने विचार फैला रहे हैं। हिटलर भी सभी महिलाओं को रोजगार से बाहर करने में विफल हुआ था। हिंदू फासीवादी भी इस मामले में लचीला रुख अपनाये हुए हैं। 
    
हिन्दू फासीवादी हिन्दू त्यौहारों- कांवड़ यात्रा, विभिन्न शोभा यात्राओं को बढ़ावा दे, उनमें भारी आबादी जुटा अपनी राजनीति के प्रचार-प्रसार का जरिया धर्म को बना ले रहे हैं। इस मामले में वे नाजियों की तुलना में अधिक सुविधाजनक स्थिति में हैं। 
    
संस्कृति के क्षेत्र में देश की विविधतापूर्ण स्थिति से तालमेल बैठाते हुए ये आगे बढ़ रहे हैं। देश के एक क्षेत्र में ये गौ हत्या मुद्दा बनाते हैं तो दूसरे क्षेत्र में हिजाब को। कहीं इनके शासन में नवरात्र में मांस बिक्री बंद हो जाती है तो कहीं खुलेआम जारी रहती है। कहीं ये मस्जिदों पर हमलावर रहते हैं तो कहीं चर्चों पर। इस सबमें जो चीज समान रहती है वो है लोगों की हिन्दू फासीवादी गोलबंदी को बढ़ाना। 
    
हिन्दू धार्मिक भजनों को आक्रामक हिंसक रूप देना और उन्हें लोगों की जुबान पर चढ़े फिल्मी गीतों की धुन पर रचना संगीत के क्षेत्र में इनका यही कारनामा है। कांवड़ यात्रा में साम्प्रदायिक बोल वाले भड़कीले गीतों को सहज ही देखा जा सकता है। 
    
अपने विरोधी विचारों का ये भी प्रेस, साहित्य, कला, सिनेमा से सफाया करने के अभियान में जुटे हैं। सिनेमा में अंधराष्ट्रवादी- कश्मीर फाइल्स व केरला स्टोरी सरीखी फिल्में पेश कर इनकी सोच को बढ़ावा दिया जा रहा है। 
    
समान नागरिक संहिता के एजेण्डे के तहत ये मुस्लिम धर्म पर हमलावर हैं और हिन्दू मूल्य-मान्यताओं-रिवाजों को सभी धर्मों पर थोपने को उतारू हैं। 
    
अभी भारत के हिन्दू फासीवादी ‘हिन्दू राष्ट्र’ कायम करने में यद्यपि सफल नहीं हुए हैं पर उनकी हरकतें देश को उसी दिशा में बढ़ा रही हैं जहां इनके लम्पट संगठन व राज मशीनरी खुलेआम विरोधियों का दमन कर सकेंगी। 
    
हिटलर की तरह एक तादाद को सरकारी परियोजनाओं में लगा, उसे ‘सेवा’ का काम देने के कारनामे अभी संघी फासीवादी नहीं कर पाये हैं। इसी तरह समाज में मौजूद भयावह बेरोजगारी के मद्देनजर ये बेरोजगारी खात्मे का हिटलरी दावा करने की स्थिति में नहीं हैं। पर इनका हर मुख्यमंत्री मनमाने ढंग से 20 लाख से लेकर 3 करोड़ रोजगार पैदा करने के दावे जरूरत करता रहता है। ये दावे सच लग सकें इसके लिए इन्होंने बेरोजगारी के आंकड़े जुटाने ही बंद कर दिये हैं। 
    
अपने चौतरफा इंतजामों से हिटलर ने यह गलतफहमी पाली थी कि आने वाली कई पीढ़ियां नाजीवादी शासन के तहत रहेंगी कि यह शासन पूरी दुनिया पर राज करेगा। पर हिटलर की नाक के नीचे ही उसके शासन से त्रस्त लोग धीरे-धीरे विद्रोह के लिए तैयार हो रहे थे। खुलेआम काम की छूट न होने पर ये लोग जिनमें कम्युनिस्ट विचारों के लोग अग्रणी थे, तमाम कानूनी संस्थाओं में यहां तक कि नाजी संगठनों में घुसकर भी हिटलर की कब्र खोदने की तैयारी कर रहे थे। सोफी शूल नामक बहादुर लड़की व्हाइट रोज ग्रुप बना नाजी विरोधी प्रचार छात्रों में कर रही थी। मजदूरों की ढेरों गुप्त यूनियनें इस काम में लगी थीं। गिरफ्तारी व मौत का भय भी इन्हें नाजियों से लड़ने से डिगा नहीं सका था। हर गिरफ्तारी, हत्या या यातना, कैंपों की सजा इनके जूझने के तेवरों को और बढ़ा देती थी। इन बहादुर योद्धाओं के साथ सोवियत समाजवाद ने पिछली सदी में हिटलर के फासीवाद की हार की पटकथा लिखी थी। 
    
भारत में हिन्दू फासीवादी भी अपने अजेय होने का दंभ पालते हैं। वे सोचते हैं कि जनता उनके झूठ पर हमेशा विश्वास करती रहेगी। हिटलर के हस्र से भी वे सबक लेने को तैयार नहीं हैं। पर सच्चाई लम्बे वक्त तक छुप नहीं सकती और सच्चाई यही है कि हिटलर का फासीवाद व हिन्दू फासीवाद दोनों मानवता विरोधी हैं। और भारत के बहादुर फासीवाद विरोधी योद्धा हिटलर के अनुयाईयों का हस्र हिटलर सरीखा अवश्य करेंगे।  

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को