स्मार्ट बिजली मीटर परियोजना : हंगामा क्यूं है बरपा! -संजय पराते

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रायपुरः दक्षिण मुंबई में बेस्ट (विद्युत वितरण कंपनी) ने स्मार्ट बिजली मीटर लगाने के काम को स्थगित कर दिया है। इस कंपनी के 10.8 लाख आवासीय और व्यवसायिक उपभोक्ता हैं और 3 लाख स्मार्ट मीटर वह लगा चुकी है। जिन घरों या दुकानों में ये मीटर लगाए गए हैं, सबकी शिकायत है कि पहले की अपेक्षा दुगुने और तिगुने बिजली बिल आ रहे हैं। उपभोक्ताओं का विरोध इतना जबरदस्त है कि बेस्ट को स्मार्ट बिजली मीटर लगाने की यह परियोजना स्थगित करनी पड़ी है। यह ‘स्थगन’ इसलिए जरूरी था कि कुछ दिनों के बाद ही महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं।
    
रांची में सरकार द्वारा जोर-जबरदस्ती से स्मार्ट मीटर लगाए जाने की खबरों के बीच एक खबर यह भी है कि बिहार के भागलपुर जिले के जगदीशपुर ब्लॉक में नेहा कुमारी नामक एक बीपीएल उपभोक्ता को 64 लाख रुपये का बिजली बिल भेजा गया है और उसकी शिकायत की कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। बिहार में स्मार्ट मीटरों के जरिए उपभोक्ताओं को लूटने और फ्राड बिलिंग की शिकायतें बहुत बढ़ गई हैं।
    
ये स्मार्ट मीटर अडानी और टाटा की कारपोरेट कंपनियों द्वारा बनाए जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में विद्युत वितरण निगम ने अडानी समूह के स्मार्ट प्रीपेड मीटर लगाने का 25,000 करोड़ रुपयों का टेंडर निरस्त कर दिया है, क्योंकि अडानी प्रति मीटर 10,000 रुपये ले रहा था। निगम का मानना है कि इन मीटरों की कीमत वास्तविक लागत से बहुत ज्यादा है।
    
पूरे देश में इन स्मार्ट मीटरों को लगाए जाने के खिलाफ प्रदर्शनों की बाढ़ आ गई है और जगह-जगह उपभोक्ता इन मीटरों को उखाड़ कर फेंक रहे हैं और पुराने मीटरों को ही लगाने की मांग कर रहे हैं। विभिन्न राज्यों की विद्युत वितरण कंपनियां (डिस्काम) भी स्मार्ट बिजली मीटर परियोजना के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन केंद्र की भाजपा सरकार इस परियोजना के पक्ष में अड़ी हुई है। उसका कहना है कि बिजली क्षेत्र के ‘आधुनिकीकरण’ (इसे ‘निजीकरण’ पढ़ें) के लिए यह जरूरी है। लेकिन सरकार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि यह कैसा ‘आधुनिकीकरण’ है, जो उपभोक्ताओं पर कहर ढा रहा है!
    
भाजपा सरकार का कहना है कि उपभोक्ताओं को नए स्मार्ट मीटरों का विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि पुराने और नए में कोई अंतर नहीं है। लेकिन भाजपा सरकार चुप है कि यदि दोनों मीटरों में कोई अंतर नहीं है, तो देश के 28 करोड़ मीटरों को बदलने के लिए 2.80 लाख करोड़ रुपयों को खर्च करने की कवायद क्यों की जा रही है। अंततः इस खर्च से फायदा किसे होना है?
    
इसी सवाल के जवाब में पूरी ‘राम कहानी’ छिपी है। चूंकि ये स्मार्ट मीटर अडानी और टाटा द्वारा बनाए जा रहे हैं, पुराने मीटरों को बदलने का सीधा फायदा अडानी और टाटा को ही होगा। जिस धनराशि का उपयोग आम जनता के लिए समाज कल्याण कार्यों के लिए होना चाहिए था, उसकी जगह 2.80 लाख करोड़ रुपया इन दो कारपोरेटों की तिजोरियों में डाला जा रहा है।
    
लेकिन मामला केवल यहीं तक नहीं है। असली मामला है बिजली क्षेत्र के निजीकरण का और कारपोरेट कंपनियों के लिए बाजार बनाने का। इन मीटरों को प्री-पेड योजना से जोड़ा जा रहा है, जिसका अर्थ है कि इन मीटरों को (मोबाइल की तरह) पहले रिचार्ज करना होगा - यानी पैसा खतम, बिजली गुल! यदि एजेंसी की किसी तकनीकी खराबी के कारण भी स्मार्ट मीटर नो-बैलेंस दिखाएगा, तो आपकी बिजली कट जायेगी और फिर से जोड़ने के लिए जुर्माना अदा करना पड़ेगा।
    
लेकिन खतरा केवल यहीं तक नहीं है। यदि बिजली क्षेत्र का निजीकरण होता है, तो बिजली वितरण और इसकी दरों को निर्धारित करने का काम भी अडानी और टाटा की कारपोरेट कंपनियां ही करेंगी और ये कंपनियां ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए बढ़े-चढ़े दामों पर बिजली बेचने के लिए स्वतंत्र होगी। विद्युत नियामक आयोग निष्प्रभावी हो जाएगा और इनके दामों पर लगाम लगाने के लिए सरकार के पास कोई ताकत नहीं होगी। क्रास सब्सिडी, जिसके कारण आज गरीबों, घरेलू उपभोक्ताओं और किसानों को सस्ती बिजली मिलती है, बंद हो जाएगी। आर्थिक रूप से कमजोर ये तबके इन दामों को वहन करने की स्थिति में ही नहीं होंगे। इसके साथ ही, भाजपा सरकार बिजली की कीमतों को टाइम आफ डे (टीओडी) से भी जोड़ने जा रही है, जिसका अर्थ है कि रात के समय बिजली महंगी मिलेगी, जबकि सभी लोग बिजली का अधिकतम उपयोग रात को ही करते हैं।
    
भाजपा सरकार द्वारा प्रस्तावित जन विरोधी बिजली संशोधन विधेयक में ये सभी प्रावधान हैं और पूरे देश में स्मार्ट मीटर लगाने की परियोजना इसी का हिस्सा है। इन मीटरों का जीवनकाल केवल 7 साल है। जैसे कुछ सालों बाद मोबाइल काम करना बंद कर देते हैं, वैसे ही इन मीटरों को 7 साल बाद बदलना जरूरी हो जाएगा। आज सरकार अपने खजाने से पैसा दे रही है, कल उपभोक्ताओं को अपनी जेब से देना होगा। आज इन मीटरों की कीमत 10,000 रुपये हैं, 7 साल बाद इनकी कीमत दुगुने से भी ज्यादा होगी।
    
आज पूरी दुनिया में बिजली वितरण का 70 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा सार्वजनिक स्वामित्व में है, जिसके चलते क्रास सब्सिडी देना संभव होता है और कमजोर तबकों को वहनीय कीमतों पर बिजली मिलती है। लेकिन हमारे देश में भाजपा सरकार क्रास सब्सिडी को खत्म करने और पूरे बिजली वितरण के काम का निजीकरण करने की दिशा में बढ़ रही है। महंगी बिजली देश के खाद्यान्न उत्पादन और खाद्यान्न सुरक्षा को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगी। वैश्विक भूख सूचकांक में आज देश 105वें स्थान पर है। महंगी बिजली इस दर्जे को और नीचे ले जाएगी। साफ है कि यह नीति कारपोरेटों को मालामाल करेगी और गरीबों को और ज्यादा कंगाल। यह नीति देश को अंधेरे में ढकेलने की साजिश है।
    
आज आम जनता के लिए बिजली एक बुनियादी जरूरत है, जिसके बिना मानव सभ्यता के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि कोई सरकार आम जनता को इस बुनियादी जरूरत से ही वंचित करने की कोशिश करती है, तो ऐसी सरकार को असभ्य और बर्बर ही कहा जाएगा। सभ्यता को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि ऐसी असभ्य सरकार की विदाई सुनिश्चित की जाए। इतिहास बताता है कि आम जनता की लामबंदी और राजनैतिक इच्छा शक्ति से ऐसा होना मुमकिन है।
    (साभार : www.katghara.in)

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