
दुनिया में गाहे-बगाहे इस बात पर चर्चा चलती रहती है कि क्या भारत भविष्य में एक महाशक्ति (सुपर पावर) बन सकता है। क्या भारत चीन की तरह उभर सकता है। और अक्सर ही इसका जवाब ‘‘नहीं’’ में होता है। और इसका कारण यह बताया जाता है कि भारत आर्थिक, तकनीक, राजनैतिक, सामाजिक, सामरिक, संस्कृति यानी किसी भी मामले में महाशक्ति नहीं बनता है। वह हर मामले में या तो बेहद पिछड़ा हुआ है या फिर बुरी तरह से दूसरों पर निर्भर है। दुनिया भर के विश्लेषक भारत के पिछड़ेपन के कारण उसे तीसरी दुनिया के देशों की श्रेणी में रखते हैं। आये दिन कोई विदेशी हमें याद दिलाता है कि हमारे लोग आज भी खुले में शौच करते हैं और आये दिन भीड़ में कुचल कर मारे जाते हैं। कोई हमें विदेशी पर्यटकों के पीछे भागते भिखारियों की याद दिलाता है तो कोई हमारे देश में शीर्ष से लेकर नीचे तक फैले भ्रष्टाचार की बात करता है। कोई बताता है कि भारत में रोज ही दंगे-फसाद होते हैं। सरेआम हत्यायें होती हैं। विदेशी अखबार कहते हैं भारत में हर रोज 90 बलात्कार होते हैं।
यह सब उसके उलट है जो हमारे देश के मौजूदा शासक हमें बताते हैं। वे बताते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ रही है। भारत जल्द ही दुनिया की तीसरी बड़ी ताकत (सं.रा. अमेरिका व चीन के बाद) बन जायेगा। भारत दुनिया का विश्वगुरू है या फिर शीघ्र ही बन जायेगा। हालांकि भारत के महाशक्ति (इससे आश्य यदि ‘विकसित भारत’ से है तो) बनने का लक्ष्य इसके साथ वर्ष 2047 तक के लिए पेश किया जाता है। और यह बहुत दूर का लक्ष्य कोई और नहीं वही लोग पेश करते हैं जो दावा करते हैं कि भारत दो-चार साल में तीसरी अर्थव्यवस्था बन जायेगा।
भारत के महाशक्ति बनने के बारे में दुनिया और भारत के शासकों की बातों में इतनी भिन्नता क्यों है। क्या विदेशी भारत की ताकत से जलते हैं या फिर वे ऐसा सच बोलते हैं जो हमें और खासकर भारत के स्वघोषित राष्ट्रवादियों को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता है। भारत के बारे में सच बोलने वालों में सिर्फ निन्दक ही नहीं हैं बल्कि वे भी हैं जो सच में चाहते हैं कि भारत एक महाशक्ति बने ताकि एक ऐसा ध्रुव बन सके जो चीनी साम्राज्यवादियों के लिए सिरदर्द बनें।
वैसे भारत के महाशक्ति बनने की बातों को, चीन के महाशक्ति के रूप में उभरने के बाद कुछ हवा मिली। एक समय (करीब अस्सी के दशक में) भारत और चीन की अर्थव्यवस्था आस-पास ही थी। दोनों ही लगभग एक समय ही साम्राज्यवादियों के चंगुल से आजाद हुए थे। भारत ने 1947 में एक भीषण त्रासदी के साथ आजादी पायी। और उसका अतीत उसके भविष्य पर हमेशा सवार रहा। और आज भी उसका काला अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ता है।
इसके उलट चीन ने 1949 में अपने काले अतीत से क्रांतिकारी ढंग से पिण्ड छुड़ाया। वहां नव जनवादी क्रांति हुयी और फिर उसने समाजवाद का रास्ता पकड़ा। ज्यादा दिन तो चीन में समाजवाद न रहा परन्तु वह जितने भी दिन रहा उसने चीन को कहीं का कहीं पहुंचा दिया। माओ की मृत्यु के बाद चीन में पूंजीवाद ने तेजी से पांव पसारे और फिर समाजवाद वहां सिर्फ कागज और नारों में रह गया। और फिर एक ऐसा समय आया जब मजदूरों की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी पूंजीपतियों की पार्टी में बदल दी गयी। और समाजवादी चीन पूंजीवादी चीन में बदल दिया गया। और फिर जो उपलब्धियां चीन ने समाजवादी दौर में हासिल की थीं उन पर चीन के पूंजीपतियों ने दांव लगाये और चीन के मजदूरों और किसानों का अभूतपूर्व ढंग से शोषण व दमन किया। प्राकृतिक संपदा का जमकर दोहन किया। वैश्विक पूंजीवाद ने चीनी पूंजीवाद का स्वागत किया। और फिर देखते ही देखते, चीन अस्सी के दशक के एक पिछड़े पूंजीवादी देश से इस सदी के दूसरे दशक के मध्य तक एक साम्राज्यवादी देश में बदल गया। एक महाशक्ति बन गया। अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए चुनौती बन गया।
भारत के शासकों ने महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा तो खूब पाली पर न तो उनके साथ अतीत है और न वर्तमान है। भविष्य चुनौतीपूर्ण है। जिसमें भारत का पूंजीवाद कितने दिन जिन्दा रहेगा इस पर भी प्रश्न खड़े हैं। और कई मामलों में यही बात दुनिया भर के पूंजीवाद पर भी लागू होती है। क्योंकि जो आज की महाशक्तियां हैं वे ही पूंजीवाद को संकट से महासंकट की ओर धकेल रही हैं। महाशक्ति होने का क्या मतलब है?
महाशक्ति होने का मतलब एक ऐसा देश जो अपने देश के भीतर से लेकर दूसरे देशों के मजदूरों-मेहनतकशों का निर्मम शोषण और प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन का एकाधिकार कायम करता है। अपने देश के भीतर अभिजात मजदूरों-कर्मचारियों के दम पर मजदूर आंदोलन को भ्रष्ट करना और दुनिया भर में एन जी ओ और धर्म के झण्डे के द्वारा मजदूरों-मेहनतकशों के न्यायपूर्ण संघर्षों को पथभ्रष्ट करना है। यह सब एकाधिकार कायम करने में इनकी मदद करता है। एकाधिकार की चाहत को बाजार से लेकर युद्ध के मैदान में पूरा किया जाता है।
भारत के बड़े पूंजीपतियों ने देश के भीतर तो कई-कई क्षेत्रों में एकाधिकार कायम किया हुआ है परन्तु दुनिया के पैमाने पर एकाधिकार कायम करने की इनकी क्षमता बेहद कमजोर है। वहां इनका मुकाबला कदम-कदम पर पहले से कायम महाशक्तियों और नयी उभरी महाशक्ति चीन से होता है। और उनके सामने भारत के पूंजीपति कहीं ठहरते नहीं हैं। वित्त पूंजी के मामले में इनकी हैसियत निम्न है और तकनीक के मामले में ये पराश्रित हैं। इनके उत्पादन का स्तर व गुणवत्ता निम्न है। सैन्य ताकत के मामले में ये कभी रूस, कभी फ्रांस, कभी अमेरिका के दर पर खड़े रहते हैं। और कभी-कभी तो इजरायल जैसा देश इनको हथियार या तकनीक के जरिए संकट से उबारता है। ऐसी अनेकोनेक बातें हैं जो बताती है कि भारत के शासकों का महाशक्ति बनने का ख्याल मुंगेरीलाल के हसीन सपनों जैसा है।
‘महाशक्ति’ या ‘विकसित भारत’ या ‘विश्वगुरू’ या ‘ग्लोबल लीडर’ इस हसीन सपने के कई-कई नाम हैं। और जब से भारत में हिन्दू फासीवादी सत्ता में काबिज हैं तो वे बड़े-बड़े जोर-शोर से इस सपने को बेच रहे हैं। ये जितनी हांकते हैं उतने ही जोर से हकीकत का थप्पड़ इनके गाल पर पड़ता है। अभी-अभी ये इस बात पर कुप्पा हो रहे थे कि इनका पुराना यार अमेरिका का राष्ट्रपति बना है परन्तु इनके यार ने इनकी इतनी बेइज्जती की कि ये सब उसका नाम लेने से बचते हैं। अपनी दोस्ती की दुहाई नहीं देते हैं। और अमेरिका ने जिस तरह से भारत के अप्रवासियों के साथ दुर्व्यवहार किया उसका ये मरियल राष्ट्रवादी प्रतिवाद तक नहीं कर सके। जिनका अतीत ब्रिटिश साम्राज्यवाद की चाकरी में बीता हो वे भला कहां से ऐसी हिम्मत ला सकते हैं कि आज की सबसे बड़ी महाशक्ति के सामने आंख उठाकर भी देख सकें। अमेरिका से मोदी का जहाज भारत पहुंचता उससे पहले हथकड़ियों व जंजीरों से बंधे भारतीय अप्रवासियों का जहाज पहुंच गया।
फिर यहां एक सवाल भारत के मजदूरों-मेहनतकशों, उजड़ते किसानों और बेरोजगार नौजवानों के सामने आता है कि भारत के महाशक्ति बनने से उन्हें क्या हासिल होगा। इस सवाल का एक जवाब ये है कि चीन के महाशक्ति बनने से चीन के मजदूरों-किसानों को क्या हासिल हुआ। चीनी मजदूरों के सामने आगे कुंआ पीछे खाई की स्थिति है। यह भयावह है। वे अगर काम नहीं करते हैं तो जिन्दा नहीं रह सकते हैं और इससे भी आगे वे अगर काम करने से इंकार करते हैं तो वे बुरी तरह प्रताड़ना के शिकार होते हैं। बदनाम चीनी कम्पनियों में काम करने वाले ऐसे मजदूरों की अनेकोनेक त्रासद कहानियां सामने आती हैं जहां चीनी मजदूरों की स्थिति बंधुआ मजदूरों या गुलामों सरीखी है। चीनी किसानों की जमीनें बेरहमी से छीनी गयी हैं और उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया गया है। धार्मिक अल्पसंख्यकों व उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के मामले में चीन का रिकार्ड बुरा नहीं बल्कि बहुत बुरा है। चीन के महाशक्ति बनने की सबसे बड़ी कीमत चीन की मजदूर-मेहनतकश जनता ने चुकायी है। भारत का हालिया इतिहास बगैर महाशक्ति बनें भी ऐसा ही है। और भारत के शासक जो भारत को महाशक्ति बनाना चाहते हैं उसकी कीमत कितनी बड़ी और किसे चुकानी होगी इसे आसानी से समझा जा सकता है। कदाचित भारत में हिन्दू फासीवादी जो आये दिन ‘विश्वगुरू’ या ‘विकसित भारत’ का नारा उछालते हैं इसलिए वे चीन के ‘माडल’ के प्रति इतने आकर्षित हैं। मोदी जब तमिलनाडु में शी जिनपिंग के साथ झूला झूल रहे थे तो वे यूं ही झूला नहीं झूल रहे थे।
हिन्दू फासीवादी चाहते हैं कि चीन की तरह एक पार्टी का शासन हो। प्रशासन एकदम सख्त हो। हर विरोधी आवाज को ‘राष्ट्र हित’ के नाम पर दबा दिया जाए। सख्त श्रम कानून हो। किसानों से ‘राष्ट्र हित’ के नाम पर बेरहमी से जमीनें छीनी जायें (मोदी काल के भूमि अधिग्रहण कानून से लेकर तीन कृषि कानून इसके उदाहरण हैं)।
गर भारत महाशक्ति बन भी जाये तो भारत के मजदूरों-मेहनतकशों को क्या हासिल होगा। उनके सपने तो तब साकार होंगे जब उनका खुद का राज होगा। समाजवाद होगा।