खान-पान और वर्ण-जाति व्यवस्था

/khaan-paan-aur-varn-jaati-vyavasthaa

हमारा समय ऐसा है कि इसमें बहुत तुच्छ सी बातों को भी गुरू-गंभीर सत्य की तरह पेश किया जाता है और पेश करने वाले उम्मीद करते हैं कि उन्हें अति गंभीरता से लिया जाये। 
    
अभी राहुल गांधी ने एक दलित पृष्ठभूमि के मध्यमवर्गीय व्यक्ति के यहां खाना बनाने और खाने का एक वीडियो साझा किया। इससे बहुतेरे वाम-उदारवादी लहालोट हो उठे और उन्होंने भारत में खान-पान के मामले में वर्ण-जाति के भेद तथा उससे संबंधित राजनीति की चर्चा शुरू कर दी। कुछ यह जताया जाने लगा कि इस मामले में दलित बुद्धिजीवियों से पहले किसी ने न तो सोचा-विचारा और न बात की। 
    
अब इन अकलमंद लोगों को कौन समझाए कि राजाओं-महाराजाओं और बादशाहों के जमाने में हर खासो-आम को मालूम था कि जो राजा-महाराजा या बादशाह खाते थे वह बाकियों को नसीब नहीं था। न तो वे उस खाने को जानते थे और न ही उसे बनाने के तरीके को। इस मामले में आम जन में बस किस्से-कहानियां ही चलते थे। यही बात अंग्रेज शासकों के बारे में भी सच थी। हां, यहां अंग्रेजों के विदेशी और पराई कौम होने के चलते लोग मानकर चलते थे कि उनका खाना-पीना तो अलग होगा ही। उनके बारे में भी आम जनों में अजीबो-गरीब किस्से-कहानियां प्रचलित थे। 
    
अब भारत की वर्ण-जाति व्यवस्था भी अपने सारतत्व में वर्गीय व्यवस्था थी। ऐसे में स्वाभाविक था कि इनमें खान-पान का भेद होता। लेकिन यहां भी आम और विशिष्ट का ख्याल रखना होगा। किसी क्षेत्र का कोई आम खान-पान हो सकता था कि दूसरे क्षेत्र से भिन्नता रखता हो। हां, उसी क्षेत्र के भीतर विभिन्न वर्गों यानी वर्णों-जातियों के बीच भिन्नता होती थी। भारत जैसे विशाल विविधता वाले देश में यह और भी स्वाभाविक था। यह खाद्य पदार्थों की उपलब्धता से तय होती थी। दो उदाहरणों से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है। 
    
पूरे देश में ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊपर माने जाते थे। पर सारे देश के ब्राह्मण एक ही खाना नहीं खाते थे और न ही उसे एक ही तरीके से बनाते थे। इसी तरह अन्त्यज या अछूत सबसे नीचे माने जाते थे पर वे भी न तो एक ही खाना खाते थे और न ही एक तरीके से बनाते थे।
    
थोड़ा ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि यह विविधता केवल खान-पान के मामले में ही नहीं थी। यह पहनावे में भी थी और बोली-भाषा में भी। यह रीति-रिवाज और परंपराओं में थी। यह धार्मिक अनुष्ठानों में भी थी। यह गीत-संगीत और मनोरंजन में भी थी। संक्षेप में यह विविधता समूची संस्कृति में थी। एक आम सामंती संस्कृति के भीतर क्षेत्रीय विविधताएं विद्यमान थीं और एक क्षेत्र के भीतर वर्गीय विविधताएं यानी वर्ण-जाति के भीतर विविधताएं।
    
खान-पान या आम सांस्कृतिक विविधता आज के पूंजीवादी समाज में भी विद्यमान है। पूंजीपति वर्ग अपने घरों में या होटलों में जो खाते हैं वह मजदूर वर्ग नहीं खाता। अगर वह खाता भी तो दोनों की बनावट और स्वाद में भारी फर्क होता है। हां, यह जरूर हुआ है कि आज पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग में सवर्णों के साथ दलित भी मौजूद हैं तथा वे एक ही खाना खाते हैं। यहां पहले की वर्ण-जाति व्यवस्था का भेद मिट गया है और वर्गीय भेद ही बचा रहा है। 
    
पूंजीवाद ने सारी दुनिया को एक सूत्र में बांधने के जरिये खान-पान के मामले में पहले के मुकाबले काफी समांगता पैदा की है। आज छोटे रेस्तरां में भी भिन्न-भिन्न जगहों के खाने मिलते हैं। लेकिन क्या इससे खान-पान में वर्गीय भेद मिट रहा है? क्या वर्गीय स्तर पर खान-पान के मामले में समानता आ रही है?
    
इसका उत्तर न है। हमेशा की तरह, पूंजीवाद में भी एक आम पूंजीवादी संस्कृति के साथ विशिष्ट वर्गीय संस्कृति विद्यमान है। ठीक इसी कारण खान-पान के मामले में भी विविधता विद्यमान है। विभिन्न वर्गों के रसोईघरों में एक नजर डालकर इसे समझा जा सकता है। जब एक मजदूर सुनता है कि अमिताभ बच्चन नाश्ते में एक कटोरा मुस्ली खाते हैं तो उसे जरा भी पल्ले नहीं पड़ता। यह केवल इसी बात का प्रमाण है कि खान-पान के मामले में वर्गीय भेद क्या होता है!

आलेख

/modi-sarakar-waqf-aur-waqf-adhiniyam

संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

/china-banam-india-capitalist-dovelopment

आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता