चुनावी साल है, ‘नये वोटर’ को रिझाने के लिए राजनीतिक दल कलाबाजियां कर रहे हैं। लेकिन इस सब के बीच देश में नौजवानों की क्या स्थिति है? पढ़ा लिखा नौजवान घर पर क्यों बैठा है? इसका जवाब चुनावबाज राजनीतिक दलों के पास नहीं है।
घर पर बैठे बेरोजगार नौजवानों की संख्या कोई कम नहीं है। और यह संख्या हर नये दिन के साथ बढ़ती ही जा रही है। हाल ही में इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन (आईएलओ) और इंस्टीयूट फॉर हयूमन डेवलपमेंट (आईएचडी) द्वारा इंडिया एंप्लॉयमेंट रिपोर्ट 2024 जारी की गयी है।
रिपोर्ट बताती है कि 2024 में देश में कुल बेरोजगारों में नौजवानों का प्रतिशत 83 है। 2000 में कुल बेरोजगारों में पढ़े लिखे बेरोजगारों का आंकड़ा 35.2 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 65.7 हो गया था।
रिपोर्ट कहती है कि भारत में जो लोग रोजगार पा भी रहे हैं वो बेहद बुरी स्थिति का है। भारत में कुल रोजगार का 90 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में है जहां मजदूरों को किसी प्रकार की कोई सुरक्षा नहीं है। जहां वह 12-12 घंटे से अधिक काम करके भी अपने परिवार को नहीं पाल पा रहे हैं। वे जैसे-तैसे जिंदा रहकर अगले दिन फिर से काम पर जाने को मजबूर हैं।
काम की इस बुरी स्थिति के कारण ही भारत में ऊंची-ऊंची डिग्रियां लेकर नौजवान घर पर ही बैठा है। ऊंची फीस चुकाकर वह एक सम्मानजनक नौकरी भी नहीं पा रहा है। श्रम बजार में फैली ठेकेदारी प्रथा, असंगठित क्षेत्र में काम जहां बेहद बुरी कार्यपरिस्थितियां हैं, वहां ढेरों नौजवान तो काम तलाश ही नहीं रहे हैं।
बेरोजगार नौजवान वोट डालकर नयी सरकार तो बना दे लेकिन उसकी जिन्दगी में वो नयी सुबह कब आयेगी जब वह बेरोजगार नहीं रहेगा। बेरोजगारों को यह नयी सुबह पूंजीवादी व्यवस्था या उसकी पार्टियों की चुनावी जंग नहीं दे सकती। वह तो बेरोजगारी को साल दर साल बढ़ा ही रही है। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था का संचालन ही कुछ ऐसा है कि वह बेरोजगारी निरंतर पैदा करती रहती है। आर्थिक संकट में पूंजीवादी व्यवस्था नये रोजगार पैदा करना तो दूर जो रोजगारशुदा हैं उन्हें भी बेकार कर दे रही है। एक तरफ धन-दौलत का अंबार और दूसरी तरफ गरीब बेरोजगारों की भारी संख्या पूंजीवादी व्यवस्था की सच्चाई है।
भारत में पढ़े-लिखे नौजवानों में बढ़ती बेरोजगारी
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
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