
सं.रा.अमेरिका में राष्ट्रपति की कुर्सी पर सवार होते ही डोनाल्ड ट्रम्प ने अप्रवासी मजदूरों के खिलाफ वह अभियान छेड़ दिया जिसका उन्होंने चुनावों के दौरान दावा किया था या धमकी दी थी। उनकी घोषणा है कि वे एक करोड़ से ज्यादा अप्रवासी मजदूरों को अमेरिका से बाहर धकेल देंगे। वे ऐसा कर पायेंगे या नहीं यह तो वक्त ही बतायेगा पर इसमें दो राय नहीं कि उनका यह अभियान दुनिया भर में अप्रवासी मजदूरों के खिलाफ अभियान को प्रोत्साहित करेगा- न केवल यूरोप में बल्कि भारत जैसे पिछड़े देशों में भी।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार 2022 में दुनिया भर में कुल अप्रवासियों की संख्या करीब पच्चीस करोड़ थी। इनमें से करीब पन्द्रह करोड़ मजदूरी कर रहे थे जो दुनिया भर के कुल मजदूरों का करीब पांच प्रतिशत था।
कोई कह सकता है कि इतने कम अप्रवासी मजदूरों पर इतनी राजनीति क्यों हो रही है? उसमें यदि इस तथ्य को जोड़ लिया जाये कि अप्रवासी मजदूर अक्सर ही उन कामों में लगे होते हैं जिसे स्थानीय मजदूर हिकारत की नजर से देखते हैं तो यह सवाल और मौजूं हो जाता है।
अप्रवासी मजदूरों की परिघटना कोई नई नहीं है। बल्कि यह पूंजीवाद की सहवर्ती है यानी जब से पूंजीवाद है तब से अप्रवासी मजदूर परिघटना भी है। यह एक देश के भीतर भी होता रहा है और एक देश से दूसरे देश के बीच भी। स्वयं सं.रा.अमेरिका भी इसी परिघटना से अस्तित्व में आया।
आज वैश्वीकरण के दौर में जब दुनिया भर के पूंजीपति वर्ग ने पूंजी को इधर से उधर जाने की पूरी छूट दे रखी है तब उन्होंने मजदूरों के एक देश से दूसरे देश में जाने पर नियंत्रण कर रखा है। इसलिए मजदूरों का आवागमन बहुत कम है। इनमें से एक संख्या कानूनी अप्रवासियों की होती है तो बाकी गैर-कानूनी अप्रवासियों की।
अप्रवासी मजदूर अक्सर ही सबसे कम मजदूरी वाले काम करते हैं। कई जगह तो इन कामों को स्थानीय मजदूर करना भी नहीं चाहते। लेकिन इनका होना उस जगह मजदूरी को गिराने में योगदान करता है। अप्रवासी मजदूर न होने पर स्थानीय मजदूरों को काम के लिए प्रेरित करने के लिए वहां पूंजीपतियों को मजदूरी बढ़ानी पड़ती। लेकिन अप्रवासी मजदूरों की उपस्थिति से इसकी जरूरत नहीं रह जाती क्योंकि ज्यादा गरीब जगहों से आने के कारण अप्रवासी मजदूर काफी कम मजदूरी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं। मजदूरी में इस गिरावट से पूंजीपतियों को सीधा फायदा होता है। उनका मुनाफा बढ़ता है। लेकिन ठीक इसी कारण स्थानीय मजदूरों में अप्रवासी मजदूरों के खिलाफ गुस्सा पैदा होता है। उन्हें लगता है कि अप्रवासी मजदूर उनका रोजगार छीन रहे हैं या उनकी मजदूरी गिरा रहे हैं।
पूंजीवादी नेता स्थानीय मजदूरों के इसी गुस्से को इस्तेमाल करते हैं। ये नेता उन्हीं पूंजीपतियों की सेवा में लगे होते हैं जो अप्रवासी मजदूरों की सस्ती श्रम शक्ति का फायदा उठा रहे होते हैं। लेकिन तब भी वे सत्ता की खातिर स्थानीय मजदूरों को अप्रवासी मजदूरों के खिलाफ भड़काते हैं। साम्राज्यवादी देशों में तो वे यह झूठ भी फैलाते हैं कि अप्रवासी वहां की सरकार पर बोझ होते हैं जबकि सच्चाई यही है कि अप्रवासी मजदूर खुद की मेहनत-मजदूरी पर जिन्दा रहते हैं। एक मजदूर के तौर पर उन्हें उससे ज्यादा सरकारी सहायता नहीं मिलती जो स्थानीय मजदूरों को मिलती है। बल्कि अक्सर वह काफी कम होती है।
अप्रवासी मजदूरों का बस यही दोष होता है कि वे अपना गरीब देश छोड़कर दूसरे देश में जाकर मजदूरी कर रहे होते हैं। वे अपनी ही मेहनत पर जिन्दा रहते हैं पर उनका शोषण करने वाले पूंजीपति और उनके नेता उनके खिलाफ स्थानीय मजदूरों को भड़काने से बाज नहीं आते। यही पूंजीपति वर्ग और उसके राजनीतिक नुमाइंदों का चरित्र है। लेकिन स्थानीय मजदूर वर्ग का तब तक भला नहीं हो सकता जब तक वह इस सच्चाई को स्वीकार कर अप्रवासी मजदूरों को अपना दुश्मन मानना बंद नहीं कर देता। ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो!’ का नारा कभी यूं ही नहीं दिया गया था।