नया साल भारत सहित दुनिया के कई-कई देशों के लिए चुनावी साल है। इसमें हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान है तो दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत संयुक्त राज्य अमेरिका भी है तो रूस भी है। बांग्लादेश, यूक्रेन, ब्रिटेन से लेकर यूरोपीय संघ में चुनाव होने हैं। कुछ लोग वर्ष 2024 को इतिहास का सबसे बड़ा चुनावी वर्ष घोषित कर रहे हैं। करीब 40 देशों में चुनाव होने हैं।
चुनाव पूंजीवादी जनतंत्र में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ये ही मौके होते हैं जब आम जन अपनी कुछ भावनाएं मतदान के माध्यम से व्यक्त कर सकते हैं। अन्यथा तो पूंजीवादी जनतंत्र में आम जनता के पास न तो कोई अधिकार हैं और न अपनी आवाज को अभिव्यक्ति देने के कोई साधन हैं। न ही उनकी परवाह चुनाव जीतने के बाद धूर्त पूंजीवादी नेता करते हैं।
पिछली एक-डेढ़ सदी में पूंजीवादी जनतंत्र का जो विकास हुआ है उसमें वह क्रमशः चुनाव तक सीमित होता गया है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में जनतंत्र की तमाम संस्थाएं महज औपचारिक बनती जा रही हैं। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए बनी संस्थाओं ही नहीं बल्कि सेना और पुलिस का मनमाना इस्तेमाल आम मजदूरों-मेहनतकशों से ही नहीं बल्कि अपने राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वियों से भी निपटने के लिए खुलकर करते हैं। चुनाव जीत कर आये नेता पूंजीवादी जनतंत्र में उतने ही निरंकुश और तानाशाह बनते गये हैं जितने कि कोई सामंती तानाशाह या कोई सैन्य तानाशाह होते हैं। मोदी, पुतिन, एर्दोगन, मैलोनी कोई अपवाद नहीं हैं ऐसे निरंकुश या फासीवादी सोच रखने वाले नेताओं की लम्बी फेहरिस्त है।
पूंजीवादी जनतंत्र में संसद, न्यायपालिका या अन्य संस्थाओं के सबसे ज्यादा पतन की कहानी वहीं से शुरू हुयी जहां पूंजीवादी जनतंत्र का जन्म व विकास हुआ था। ब्रिटेन, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका में पूंजीवादी जनतंत्र का विकास वहां पहुंच गया है जहां सब कुछ चंद एकाधिकारी घराने ही तय कर रहे होते हैं। पूंजी खासकर वित्तीय पूंजी तय कर रही होती है कि किस दल की सरकार बनेगी और कौन मुखिया और कौन उस मुखिया के मंत्रिमण्डल में होगा।
लगभग एक सदी में पूंजीवादी जनतंत्र का सबसे तेज गति से पतन हुआ। संयुक्त राज्य अमेरिका ने स्वतंत्र न्यायपालिका को सरकार के मातहत लाने की जो शुरूआत की थी वह बीमारी एक के बाद दूसरे देश में फैलती चली गयी।
अपने दस साल के कार्यकाल में मोदी सरकार लगातार यह कोशिश करती रही कि कैसे वह न्यायपालिका को एकदम पालतू या फालतू बना दे। इजरायल का धूर्त, क्रूर, भ्रष्ट प्रधानमंत्री नेतन्याहू तो गाजा पर छेड़े गये युद्ध से पहले इजरायल के सर्वोच्च न्यायालय के पर कतरने की उसकी योजना के खिलाफ देशव्यापी उग्र विरोध का सामना कर रहा था। युद्ध ने नेतन्याहू को राजनीतिक जीवनदान दे दिया। अपने देश के भीतर न्यायपालिका, जनतंत्र का गला घोंटने वाला फिलिस्तीन में नरसंहार आयोजित करने लगा।
अगर न्यायपालिका को सरकार के मातहत लाने की शुरूवात अमेरिका में हुयी तो फ्रांस पिछले दो-तीन दशकों में ऐसा देश बनता गया है जहां पुलिस के पास असीमित अधिकार हैं। आतंकवाद से निपटने के नाम पर पहले सरकोजी और अब मैक्रां ने फ्रांस को लगातार ‘पुलिसिया आपातकाल’ की स्थिति में बनाये रखा है।
जनतंत्र के चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले प्रेस-मीडिया का हाल बाकी स्तम्भों की तरह है। एकाधिकारी घरानों ने मीडिया को अपना दुमछल्ला बना दिया है। खबरों का चुनाव व प्रसारण सत्ताधारी दल और उसके प्रधान के हिसाब से होता है। मजदूरों-मेहनतकशों के मुद्दों व संघर्षों को मीडिया कोने का स्थान तो क्या इस रूप में पेश करता है मानो अपनी मांगों के लिए संघर्ष करने वाले मजदूर-किसान, छात्र-नौजवान कोई ‘आतंकवादी’ हों। झूठ, प्रपंच, धार्मिक उन्माद, धार्मिक कूपमंडूकता, हवा-हवाई मुद्दे व सर्वे से अखबार से लेकर टीवी-सोशल मीडिया अटा पड़ा रहता है। ‘बुद्धि का राज’ का कभी नारा लगाने वाला पूंजीपति वर्ग बुद्धि की बात करने वालों को अपने लिए सबसे बड़ा खतरा देखता है।
चुनावी साल में मीडिया क्या करेगा? भारत में मोदी का और रूस में पुतिन का गुणगान करेगा। क्योंकि सारा मीडिया इन धूर्त राजनीतिज्ञों का समर्थन करने वाले सबसे बड़े एकाधिकारी घरानों अथवा सरकार के कब्जे में है तो वह इनके महिमामण्डन के अलावा और भला क्या करेगा। क्या रूस में कोई यह उम्मीद कर सकता है कि मीडिया पुतिन के खिलाफ, यूक्रेन में युद्ध के खिलाफ, रूस के मजदूरों-मेहनतकशों के पक्ष में चुनाव में कोई अभियान संगठित कर सकता है। ऐसी उम्मीद वाले को मूर्ख या पागल ही समझा जायेगा। और जो बात पुतिन पर लागू होती है क्या वह मोदी पर नहीं लागू होती है।
जनतंत्र के नाम पर हर तरह की लफ्फाजी और महान परम्पराओं का हवाला और मतदाताओं को यह गुमान कि हम ही नियंता हैं, की सबसे विद्रूप अभिव्यक्ति कहीं होनी है तो वह अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव और ब्रिटेन के आम चुनाव में होनी है। और इन देशों में ही दुनिया का जनतंत्र के नाम पर सबसे धूर्त खेल पर्दे के पीछे एक-दूसरे के साथ गला काटू होड़ में लगे एकाधिकारी घराने या वित्तीय पूंजी खेलेगी। सबसे ज्यादा धूर्तता और फर्जीबाड़ा जनतंत्र के नाम पर अमेरिका में होता है। जहां कई-कई आवरण हैं। कई-कई परत हैं। और पर्दे के पीछे कई-कई खिलाड़ी हैं। पुतिन, मोदी, एर्दोगन की तरह ‘खुला खेल’ नहीं है।
नया साल युद्धों की छाया में आ रहा है। इजरायल के क्रूर हमले में गाजापट्टी और बेस्ट बैंक में बीस हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। मरने वालों में करीब एक चौथाई मासूम बच्चे हैं। इजरायल ने अमेरिकी साम्राज्यवादियों के नंगे समर्थन से अपना कहर फिलिस्तीन पर बरपाना जारी रखा है। फिलिस्तीन पर थोपा गया युद्ध समय रहते नहीं रुका तो कौन कह सकता है कि यह पश्चिम एशिया व भूमध्यसागर के बड़े हिस्से को अपनी जद में न ले ले। रूस और यूक्रेन (असल में यहां भी युद्ध का असल नेता अमेरिका है) के बीच युद्ध को दो साल होने वाले हैं। यूक्रेन की जनता को इस युद्ध की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। रूस की तरह यूक्रेन में भी नये साल में चुनाव होने हैं।
युद्ध इन दोनों देशों के शासकों के लिए चुनाव में बड़ा मुद्दा होगा बल्कि वह हर उस शासक के लिए महत्वपूर्ण होगा। जो अपने आपको देश का सबसे बड़ा रक्षक साबित करने में लगेगा। ‘छप्पन इंच के सीने वाले’ धूर्त पूंजीवादी राजनीतिज्ञों से दुनिया भरी पड़ी है। युद्ध का धंधा एक ऐसा धंधा है जो हथियार बनाने वाली कम्पनियों से लेकर चुनावबाज राजनीतिज्ञों, मीडिया आदि सभी को धंधा उपलब्ध कराता है। हमारे देश में भी यह धंधा खूब फल-फूल रहा है।
नया साल चुनावी साल है। यह मजदूरों-मेहनतकशों को भरमाने का साल है। मोदी की ‘‘गारण्टी’’ का साल है। मोदी एण्ड कम्पनी पूरी तरह से आश्वस्त है कि चुनाव में उनकी जीत होनी है। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि चुनाव कैसे लड़े और जीते जाते हैं। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि किन मतदाताओं के मत उन्हें चाहिए और किनकी उन्हें एक इंच भी परवाह नहीं करनी है। और स्थिति तो यही है कि भारत के आम मजदूरों-मेहनतकशों का एक बड़ा हिस्सा ‘आयेगा तो मोदी ही’ के झूठे प्रचार से भ्रमित और सम्मोहित है।
भारत सहित पूरी दुनिया के मजदूरों-मेहनतकशों के हित इसमें नहीं हैं कि वे चुनावी साल में धूर्त-क्रूर पूंजीवादी राजनीतिज्ञों के जाल में फंसे। हित इसमें है कि वे इन नेताओं को, पूंजीवादी जनतंत्र को खुले शब्दों में कह सकें- ‘‘चलो बहुत हुआ तुम्हारा नाटक!’’
नया साल : चुनावी साल
राष्ट्रीय
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को