भाजपा बहुत दिनों से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा या एनसीपी) को तोड़कर अपने खेमे में पहले तो पूरी पार्टी पर कम से कम उसके एक गुट को लाना चाहती थी। पिछले दिनों वह अपने मकसद में कामयाब हो गयी। शरद पवार की सारी चाणक्य नीति मोदी-शाह-फड़नवीस की चाणक्य नीति के सामने बौनी साबित हो गई। मोदी-शाह के पास साम-दाम-दण्ड-भेद का पूरा इंतजाम था जबकि बेचारे शरद पवार क्या कर सकते थे। ज्यादा से ज्यादा अपने भतीजे को समझा सकते थे और अपने धूर्त भतीजे को भविष्य के सपने दिखा सकते थे। मोदी के पास शरद पवार के मुकाबले उप-मुख्यमंत्री का पद, 4000 करोड़ रुपये के सिंचाई घोटाले में फंसाने या न फंसाने का दण्ड या पुरूस्कार, केन्द्र में अजित पवार के गुट के किसी (प्रफुल्ल पटेल सर्वोपरि) को मंत्री पद इत्यादि चीजें थीं। मोदी की नीति के सामने शरद पवार की कितनी चलती। उनकी पार्टी टूट गयी। चाचा मरने या रिटायर होने का नाम ही नहीं ले रहे थे भला बेचारा भतीजा क्या करता। कहां मोदी-शाह के साथ वैभव के सपने और कहां चाचा की सूखी-बासी रोटी। कितने दिन वह इंतजार करता।
भतीजे अजित पवार के सपने तब धूल-धूसरित हो गये थे जब चाचा शरद पवार ने पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ने का पहले फैसला लिया और फिर एक राजनैतिक ड्रामे के साथ कार्यकर्ताओं-समर्थकों की ‘‘भारी मांग’’ पर पुनः अध्यक्ष पद संभाल लिया। भतीजा इस चक्कर में था शरद पवार निपटे तो वह अध्यक्ष बने और फिर उसी भाजपा के साथ चला जाए जिसके संग वह एक बार उप-मुख्यमंत्री बन चुका था। तब चाचा ने चालाकी से सत्ता की थाली अजित व देवेन्द्र फड़नवीस दोनों के आगे से खिसका दी थी। सत्ता की भूखी भाजपा कितने दिन सत्ता से दूर रहती। और फिर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली ‘महा विकास अघाड़ी’ सरकार अम्बानी-अडाणी की ही नहीं बल्कि जापानी पूंजीपतियों की लूट-खसोट में आड़े आ रही थी। सौदेबाजी ढंग से नहीं हो पा रही थी। ध्यान रहे महाराष्ट्र पूरे भारतवर्ष में सबसे अमीर राज्य है और मुम्बई देश की वित्तीय राजधानी है। भारत के अमीरों का यहां बसेरा रहा है।
बुलेट ट्रेन, मेट्रो रेल जैसी परियोजनाओं में देशी-विदेशी पूंजीपतियों के अरबों-खरबों रुपये लगे थे। केन्द्र में बैठी हिन्दू फासीवादी सरकार इन्हीं के दम पर पिछले नौ साल से शासन कर रही है। उद्धव ठाकरे की सरकार गिराने के लिए मोदी-शाह ने आकाश-पाताल एक कर दिया था। शिवसेना को तोड़कर और अपने पाले में लाने के लिए भाजपा को खासकर देवेन्द्र फड़नवीस को अपमान के कुछ घूंट नहीं बल्कि पूरा पीपा ही पीना पड़ा था। उन्हें उप-मुख्यमंत्री का पद स्वीकारना पड़ा। और सब जानते हैं कि धूर्तता में माहिर पूंजीवादी राजनैतिक नेताओं की सभी चालबाजियां जनता के नाम पर ही होती हैं। फड़णवीस के साथ तब भी बुरा हुआ जब शरद पवार ने अजित पवार को उनके मंत्रिमण्डल में उप मुख्यमंत्री बन जाने दिया और फिर अजित पवार को वापस बुलाकर फड़णवीस की सरकार गिराकर ‘महा विकास अघाड़ी’ की सरकार बनवा दी थी।
वैसे अजित पवार धोखा देगा इसकी भनक दस नम्बरी चाचा को पहले से थी। इसलिए उन्होंने पार्टी को लगभग अपने काबू में रखा था। परन्तु अजित भी दस नम्बरी का भतीजा था सो उसने चाचा के एक और विश्वस्त प्रफुल्ल पटेल (जो कि कार्यकारी अध्यक्ष भी था) को अपने गुट में मिलाया। छगन भुजबल ऐसा ही एक और शरद पवार का प्यारा मोहरा था।
शरद पवार की पार्टी तोड़ने का मोदी-शाह का मिशन पुराना था और जब अजित पवार जैसे हर पार्टी में हों तो भला इस मिशन को पूरा होने में कितना वक्त लगता। अमेरिका से लौटने के बाद अपनी पहली ही सभा में मोदी ने अजित पवार सहित कई अन्यों को सरेआम धमकाया कि उनके खिलाफ वे भ्रष्टाचार की जांच शुरू करवा देंगे। अजित पवार ने इसे अपने लिए आखिरी मौका समझा। मोदी-शाह का ‘साम-दाम-दण्ड-भेद’ एक झटके में ही एक साथ लागू हो गया।
शरद पवार अपनी पार्टी टूटने के बाद जख्मी शेर बनकर पूरे महाराष्ट्र में घूम रहे हैं। एक ऐसा ही जख्मी शेर पहले से उद्धव ठाकरे बने हुए हैं। और बेचारी कांग्रेस पार्टी उसको तो पिछले दस सालों में भाजपा-संघ ने इतने जख्म दिये हैं कि वे बेचारे उन्हें गिन भी न सकें। बस यह हुआ कि कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस में जान आ गयी है और तेलंगाना व मध्य प्रदेश में वह भाजपा को आजकल कुछ झटके दे रही है।
भारत में हिन्दू फासीवादियों और एकाधिकारी पूंजीपतियों का गठजोड़ एक ऐसा राज्य चाहता था जहां बस एक पार्टी का शासन हो। इनका आदर्श साम्राज्यवादी बन चुका चीन है। जहां एक पार्टी का शासन है और एकाधिकारी पूंजीपतियों की हर मांग तुरंत पूरी होती है।
लंगड़ी खाकर शरद पवार धड़ाम
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आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को