मोहन भागवत का नया लक्ष्य

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दशहरे पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जो भाषण दिया उसके निहितार्थ काफी घातक हैं। संघ ने बांग्लादेश-श्रीलंका सरीखे विद्रोह भारत में रोकने के लिए संघी संगठनों के लिए मुसलमानों के बाद नये निशाने के बतौर उन लोगों को चिन्हित किया है जो समाज में असंतोष फैला रहे हैं। इसमें उनका इशारा मार्क्सवादियों से लेकर जनता की मांगों को लेकर संघर्ष करने वाले लोगों की ओर था। उनका इशारा यह था कि इन्हें काबू में कर ही भारत का हस्र बांग्लादेश सरीखा होने से रोका जा सकता है। 
    
भागवत के अनुसार ये लोग असंतोष की भावना को हवा देते हैं और व्यवस्था, कानून, शासन-प्रशासन के प्रति अविश्वास-घृणा पैदा करते हैं और अराजकता-भय का माहौल बनाते हैं। अरब विद्रोह से बांग्लादेश में यही हुआ और भारत में भी इसी के प्रयास हो रहे हैं। इन्हें विदेशी ताकतें भी समर्थन कर रही हैं। 
    
भागवत का निशाना स्पष्ट तौर पर कम्युनिस्टों के साथ-साथ भाजपा विरोधी गैर सरकारी संगठनों, ट्रेड यूनियन नेताओं व जनता की मांग उठाने वालों की ओर था। और भागवत ने इनसे निपटने का कार्यभार एक तरह से संघ के सामने पेश कर दिया। 
    
वैसे भी संघ के बड़े दुश्मनों में मुसलमान व कम्युनिस्ट हमेशा से रहे हैं। अब मुसलमानों को दोयम दर्जे की स्थिति में धकेल संघ अपने प्रमुख शत्रु कम्युनिस्टों से निपटना चाहता है। 
    
इसके अतिरिक्त भागवत ने बांग्लादेश में हिन्दू विरोधी हिंसा का हवाला दे हिंदुओं को संगठित होने की बात कही। महिला मुद्दे पर उन्हें आर जी कर की तो याद आयी पर महिला पहलवानों से लेकर हाथरस-कठुआ सरीखे प्रकरण नजर नहीं आये।         

हिंदुओं को एक करने की मजबूरी में ब्राह्मणवादी मानसिकता वाले धुर जाति समर्थक संघ को अपने सिद्धान्तों से इतर बातें करनी पड़ रही हैं। भागवत के भाषण में भी इसकी बानगी दिखी जब उन्होंने मंदिर से लेकर अन्य जगहों पर सबके जाने पर छूट की वकालत की। इस तरह उन्होंने संघ को जाति विरोधी दिखाने का पाखण्ड किया। 
    
मोहन भागवत का भाषण पाखण्ड का अद्भुत नमूना पेश करता है। कैसे कभी खुद कांग्रेस सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा करने वाला संघ अपनी पार्टी के शासन में असंतोष पैदा करने, जनता के मुद्दे उठाने को भारत विरोधी बता दे रहा है। संघ को स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि उसकी पार्टी के 10 वर्ष के शासन से आम जन त्रस्त है। ऐसे में अगर जनता के मुद्दे उठाने वाले लोग सक्रिय रहे तो वो भाजपा को सत्ता से बाहर कर इनके हिन्दू राष्ट्र के ख्वाब को खतरे में डाल सकते हैं। ऐसे में घोर साम्प्रदायीकरण के साथ ऐसे जनसंघर्ष करने वालों पर नकेल कसना ही संघ-भाजपा को बचाव का रास्ता नजर आ रहा है। मोहन भागवत ने संघी वाहिनी को इसी लक्ष्य की ओर बढ़ने का निर्देश दिया है। 

आलेख

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

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ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।