कनाडा : सार्वजनिक क्षेत्र के लाखों कर्मचारी हड़ताल पर

8 दिसम्बर से कनाडा के क्यूबेक प्रांत के लाखों कर्मचारी एक सप्ताह की हड़ताल पर हैं। इनमें अध्यापक, स्वास्थ्य क्षेत्र के कर्मचारी के अतिरिक्त अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी शामिल हैं। इन कर्मचारियों का समझौता खत्म हुए कई महीने बीत चुके हैं और नया समझौता अभी तक नहीं हुआ है। इन कर्मचारियों की मांग है कि जल्द से जल्द नया समझौता किया जाये जिसमें वेतन वृद्धि की जाये और उसे लागू किया जाये।
    
इससे पहले 21 से 23 नवम्बर तक तीन दिन की हड़ताल इन सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों  द्वारा की गयी थी। और उसके बाद हड़ताल का नेतृत्व कर रहे कामन फ्रंट के नेतृत्व ने इस आधार पर हड़ताल खत्म कर दी थी कि क्यूबेक की सरकार ने समझौते के लिए वार्ता करनी शुरू की थी।
    
लेकिन जब समझौते में कर्मचारियों की मांग के अनुरूप वेतन वृद्धि की बात नहीं हुयी तो कामन फ्रंट ने अपने पहले के निर्णय 8 दिसम्बर से 1 सप्ताह की हड़ताल करने के फैसले पर अमल करते हुए हड़ताल शुरू कर दी। ज्ञात हो कि पहले सरकार ने 10.3 प्रतिशत की वृद्धि पांच साल के लिए की थी, उसे बढ़ाकर सरकार की तरफ से प्रधानमंत्री लेगोल्ट और ट्रेजरी बोर्ड की अध्यक्ष सोनिया लेबेल ने मात्र 12.7 प्रतिशत वेतन वृद्धि की बात की। इस वेतन वृद्धि को कर्मचारियों ने अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह आज की महंगाई और अगले पांच साल में बढ़ती महंगाई के हिसाब से पर्याप्त नहीं है।
    
दरअसल प्रधानमंत्री लेगोल्ट कर्मचारियों की और वेतन वृद्धि के लिए चाहते हैं कि कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ाया जाये और लचीलेपन के नाम पर उनके ओवरटाइम को बढ़ा दिया जाये। साथ ही पेंशन के सम्बन्ध में भी प्रधानमंत्री बात करने को तैयार नहीं हैं। वे हड़़ताल कर्मचारियों को वापस काम पर बुलाने के लिए कानून भी पास करने की बात करते हैं।
    
हड़ताल कर रहे कर्मचारियों का कहना है कि क्यूबेक सरकार का कर्मचारियों की मांगें न मानने का फैसला दरअसल कनाडा सरकार की उन नीतियों (कटौती कार्यक्रमों) का ही एक हिस्सा है जो वह पूरे देश में लागू कर रही है। जहां सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों के वेतन व सुविधाओं में कटौती करना चाहती है वहीं पूंजीपति वर्ग को वह खुले हाथों से पैसा लुटा रही है। अमेरिका के साथ सटकर वह चीन के विरुद्ध युद्ध की तैयारियों में धन खर्च कर रही है।
    
सरकार के इन कर्मचारी विरोधी कदमों में यूनियनें भी खूब मदद कर रही हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों का समझौता आठ महीने पहले खत्म हो चुका है लेकिन यूनियनों का नेतृत्व शांत बैठा हुआ है। कर्मचारी पहले से ही हड़ताल के पक्ष में वोटिंग कर चुके हैं लेकिन उसको लागू नहीं किया जा रहा है। कामन फ्रंट जो सभी सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की तरफ से समझौते के लिए बात करता है, पहले तो 21-23 नवम्बर की तीन दिन की हड़ताल बुलाता है और अब 8 दिसम्बर से 7 दिन की हड़ताल की बात करता है। कामन फ्रंट का नेतृत्व सरकार की तरफ से बातचीत की पहल होने पर बहाना बनाकर हड़ताल को खत्म कर देता है।
    
इतना ही नहीं वह 23 नवम्बर से अनिश्चितकालीन हड़ताल कर रहे अध्यापकों को अकेला छोड़ देता है। ये अध्यापक एफएई (थ्।म्) यूनियन से सम्बद्ध हैं जो 23 नवम्बर से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं। इन हड़ताली अध्यापकों की संख्या 66,500 है। जबकि शेष 95,000 अध्यापक सीएसक्यू (ब्ैफ) से जुड़े हैं जो कामन फ्रंट का हिस्सा है। लेकिन कामन फ्रंट इन अध्यापकों को अनिश्चितकालीन हड़ताल में शामिल होने को नहीं कहता है।
    
प्रधानमंत्री लेगोल्ट इन अध्यापकों को ही हड़ताल के लिए जिम्मेदार ठहराकर एक तरह से यह कहते हुए उन्हें ब्लेकमेलिंग कर जनता से सहानुभूति बटोरने की कोशिश करते हैं कि हमारे बच्चे जो स्कूल में होने चाहिए वे घर पर हैं। आखिर इस सबके लिए कौन जिम्मेदार है? लेकिन अध्यापकों को जनता से मिल रहे समर्थन से यह बात साबित हो जाती है कि प्रधानमंत्री ही इस सबके लिए जिम्मेदार हैं।
    
दरअसल अध्यापकों द्वारा की जा रही अनिश्चितकालीन हड़ताल से अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी भी उत्साहित हैं और उन्हें समर्थन कर रहे हैं इसलिए कामन फ्रंट के नेतृत्व पर भी एक तरह से दबाव कायम है। और इसलिए वे अब यह बात कह रहे हैं कि अगर 8 दिसम्बर से चल रही एक सप्ताह की हड़ताल से भी अगर सरकार समझौता करने के लिए तैयार नहीं होती है तो वे फिर अनिश्चितकालीन हड़ताल करने को बाध्य होंगे। 
 

आलेख

/modi-sarakar-waqf-aur-waqf-adhiniyam

संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

/china-banam-india-capitalist-dovelopment

आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता