एक कानून की शवयात्रा निकालते संघी

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बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद 1991 में एक कानून पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम बना था। इस कानून के तहत प्रावधान किया गया था कि देश में सभी धार्मिक संरचनायें उसी रूप में बनाये रखी जायेंगी जैसी वे 15 अगस्त 1947 को थीं। अब जब देश में संघी ताकतें हर मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढने का यत्न कर रही हैं और मांग कर रही हैं कि मस्जिदें ढहाकर मंदिर बनाये जायें तो व्यवहारतः वे उपरोक्त कानून को मृत बना चुकी हैं और हर रोज उसकी शवयात्रा निकाल रही हैं। 
    
1991 में जब यह कानून बना था तब भी संघ-भाजपा इसके विरोध में थी। अब जब इस कानून की शवयात्रा निकलते-निकलते अदालतों में बीसियों केस लम्बित हो गये हैं और संभल-अजमेर के बाद इतिहास खोदने की संघी हरकतें थमने का नाम नहीं ले रही हैं तो इस शवयात्रा में सर्वोच्च न्यायालय को शामिल होने के लिए आमंत्रित कर दिया गया है। 
    
12 दिसम्बर को सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त कानून पर केन्द्र सरकार को 4 सप्ताह में जवाब देने का नोटिस जारी किया है। 2020 में भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर इस कानून के प्रावधानों को चुनौती दी गयी थी। मार्च 21 में इस पर केन्द्र को जवाब देने को नोटिस जारी हुआ था। पर केन्द्र सरकार ने अभी तक इस पर कोई जवाब नहीं दिया था। 
    
इसी के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने इस सुनवाई तक देश की तमाम निचली अदालतों में इससे जुड़े मसलों की सुनवाई पर रोक लगा दी है। ढेरों उदारवादी लोग सर्वोच्च न्यायालय की तारीफ करते हुए उम्मीदें पाल रहे हैं कि अब संघी लम्पटों का खुदाई अभियान थम जायेगा। कि अब हर मस्जिद के नीचे मंदिर तलाशना बंद हो जायेगा। 
    
ये भोले-नासमझ लोग अभी बुलडोजर प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का हश्र नहीं देख पा रहे हैं। बुलडोजर प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि बगैर उचित कानूनी प्रक्रिया पूरी करे किसी आरोपी के घर को नहीं ढहाया जायेगा। पर भाजपा सरकारों खासकर उ.प्र. सरकार ने जो कानूनी प्रक्रिया को अपनी जागीर मानती है, बुलडोजर चलाना जारी रखा। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी इज्जत बचाने की खातिर इस पर चुप्पी साधना बेहतर समझा। 
    
जहां तक प्रश्न इतिहास की खुदाई का है तो इसकी शुरूआत खुद पूर्व मुख्य न्यायधीश द्वारा की गयी थी। ज्ञानव्यापी प्रकरण में उन्होंने ही निचली अदालत के सर्वेक्षण के आदेश को यह कहकर सही ठहराया था कि 91 का कानून मस्जिद ढहाकर मंदिर बनाने से रोकता है न कि मस्जिद का इतिहास जानने को सर्वे से रोकता है। फिर क्या था, जगह-जगह से मस्जिदों के इतिहास जानने को उत्सुक तत्व संघ की पाठशाला से सामने आने लगे। ये मस्जिद के नीचे मंदिर होने के सच्चे-झूठे दावे करने लगे और अदालतें सर्वे का आदेश देने लगीं। 1991 के कानून का यह हश्र देखकर संघी ताकतें खुश थीं। व्यवहार में शीर्ष से लेकर नीचे तक की न्यायपालिका इस कानून को मृत मानकर आदेश देने लगीं। 
    
अब शीर्ष अदालत से यह उम्मीद पालना कि वो इतिहास की इस खुदाई पर रोक लगायेगी, भोलेपन का परिचय देना होगा। शीर्ष अदालत जो संघी ताकतों के आगे एक-एक कर समर्पण करती जा रही है, उससे यही उम्मीद की जा सकती है कि वो संघियों द्वारा इस कानून की निकाली जा रही शवयात्रा को कानूनी जामा पहना दे। इस तरह कानून की रक्षा करने वाले कानून के भक्षक की भूमिका में उतर आये। अगर शीर्ष अदालत ऐसा नहीं भी करती है तो भी इस कानून की शवयात्रा उठा शमशान पर पहुंच चुके संघियों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वे बुलडोजर निर्णय की तर्ज पर शीर्ष अदालत को उसकी औकात याद दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इतिहास की खुदाई का उनका साम्प्रदायिक एजेण्डा जारी रहेगा। 
    
हां बस अगर बौद्ध इतिहास की खुदाई कर मंदिरों के नीचे बौद्ध मठों का दावा करेंगे तो उन्हें कानून का पाठ पढ़ा चुप करा दिया जायेगा। 

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