विश्वकर्मा पूजन

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कल सुबह 9 बजे पूजन है। उसके बाद की क्या प्लानिंग है? रामू अपने बाकी मजदूर साथियों के साथ बातचीत में लगा हुआ है। कल आना है क्या? अगर नहीं आए तो क्या अप्सैंट लगेगी? किसी नए मजदूर का सवाल है। नए मजदूरों को नहीं पता कि कल नहीं आने पर अप्सेंट लग जाती है। कि कल फैक्टरी आकर हाजिरी दर्ज करवाना जरूरी होता है। उसके थोड़ी देर बाद भले चले जाओ, दिहाड़ी पूरी मिलती है। पूरे दिन कोई उत्पादन नहीं होता लेकिन रात में बदस्तूर काम जारी रहता है। रात में काम करने वाले मजदूरों को दिन वाले मजदूरों से चिढ़ होती है और अधिकारियों के प्रति मन में गुस्सा। कल की तैयारी के लिए साफ सफाई शुरू हो चुकी है। अपनी जगह को साफ करने में आज खुशी है।
    
जो अच्छे कपड़े पहने जा सकते हैं, पहनकर मजदूरों का फैक्टरी आना शुरू हो चुका है। महिलाएं रोजाना से ज्यादा सुंदर साड़ियां पहनकर आई हैं। बच्चे भी साथ में हैं। कुछ सामान्य मजदूर सफारी सूट में आए हैं और बाकी मजदूरों के बीच चर्चा का विषय बने हुए हैं। मजदूरों का एक ग्रुप पूजा के बाद कहीं घूमने की प्लानिंग कर रहा है। एक ग्रुप शराब पीने की योजना बना रहा है और इसके लिए अपने अधिकारियों की चापलूसी कर रहा है ताकि पीने के लिए पैसे मिल जाएं। कुछ मजदूर पास में बिकने वाली कच्ची शराब पीकर आए हैं। बच्चे फैक्टरी घूम रहे हैं, गुब्बारे तोड़ रहे हैं। मम्मी-पापा के काम करने की जगह को देखकर मन में उत्सुकता है। और खुश हैं।
    
धर्मवीर पेशे से टर्नर है और जाति से दलित। सामाजिक उपेक्षा, भेदभाव होश संभालने के साथ ही दिखना शुरू हो गया था। जो दलित होने का दंश बचपन से आज तक देखा, महसूस किया उसका असर समग्र सोच पर भी है। मायावती को पसंद करता है और अंबेडकर को दलित उद्धारक मानता है। ब्राह्मणों के वर्चस्व को अस्वीकार करते हुए ईश्वर के अस्तित्व पर भी प्रश्न खड़े करता है। सामाजिक विचारों में दलितों के प्रति भेदभाव और दोयम दर्जा यहां भी पीछा नहीं छोड़ता। परंतु आज ऐसी किसी भावना का प्रवेश वर्जित है। धर्मवीर ने कल ही अपनी मशीन अच्छे से साफ कर ली है।
    
दुनिया के इतिहास को जानने के लिए औजारों की जरूरत पड़ती है, और औजारों का इतिहास मनुष्य के इतिहास से नया है। मनुष्य ने सबसे पहले जिन औजार का निर्माण किया उन्हें आज हम अनगढ़ कहते हैं लेकिन वो मानव निर्मित अपने समय की सर्वोत्कृष्ट कला की सुंदर कलात्मक रचना थी। औजारों के निर्माण उन्नत होते गए, औजारों की बेहतरी ने मानव सभ्यता की बेहतरी का मार्ग साफ किया। पुराने मानव और मानव सभ्यता का स्थान नए मानव और नई सभ्यता लेती चली गई। औजारों ने बेहतरी का सफर जारी रखा। औजारों का बदलाव मानव समाज की मूलभूत जरूरत बनता चला गया।
    
औजारों की बेहतरी ने संपत्ति को जन्म दिया और संपत्ति की पैदाइश ने औजारों पर नियंत्रण को। जो श्रम के औजार कभी पूरे कबीले की सामूहिक मिल्कियत थे अब वही औजार ताकतवर लोगों की निजी मिल्कियत में तब्दील होते चले गए। औजार मानव के जीवित रहने की शर्त बन चुके थे और औजार निजी मिल्कियत में तब्दील हो चुके थे। जो औजार कभी मनुष्य के रूप में उसकी आजादी की मूल शर्त थी अब वह उन्हीं औजारों का दास बन गया। एक वक्त में जो उसकी स्वतंत्रता का साथी था अब उसी साथी से उसके पृथक संबंध कायम हो चुके थे। विज्ञान और तकनीक ने औजारों को और ज्यादा उन्नत किया लेकिन औजारों पर नियंत्रण की, मालिकाने की जो प्रथा एक बार शुरू हुई वो लगातार बलवान होती गई। और उसी के समानांतर मनुष्य की दासता की बेड़ियां भी बलवान होती गईं।
    
धर्मवीर की मशीन के आगे एक लोहे की बड़ी सी टेबल रखी हुई है। भगवान विश्वकर्मा की फोटो के आगे श्रद्धापूर्वक माला चढ़ा दी गई है। करीने से फूल रखे हैं। प्रसन्नता के साथ धर्मवीर खुद सारे काम कर रहा है। अपने घर के अतिरिक्त धर्मवीर को कभी पंडित जी पर विश्वास नहीं रहा था। लेकिन आज खुद पंडित जी की भूमिका निभाई जा रही है। धर्मवीर की इस पंडित जी की भूमिका पर किसी को आपत्ति नहीं। ऐसे ही दूसरे मजदूर, ठेकेदार आज अपने-अपने विभाग के पंडित बने हुए हैं। धर्मवीर के हाथ में घंटी लगातार बज रही है। धूप जला दी गई है। आरती खत्म करके जोर से जयकारा लगता है.. बोलो विश्वकर्मा भगवान की ...बाकी मजदूर जोर से बोलते हैं..जय।
    
इतिहास के किस दौर में विश्वकर्मा की पूजा शुरू हुई और उन्हें औजारों का निर्माता घोषित कर दिया गया ये शोध का विषय है। लेकिन वास्तव में औजारों के जन्म की कहानी उससे धर्मवीर अनजान है ठीक वही अनजानापन औजारों के विकास, उसके नियंत्रण और मनुष्य की दासता के बारे में भी है। उसके पिता मजदूर थे और वह इतना जानता है कि यदि जीवित रहना है तो फैक्टरी में काम करना होगा, जहां उस फैक्टरी का कोई मालिक होगा। 8-10-12 घंटे उसे औजारों से जुड़ना होगा, खुद को औजारों के आगे समर्पित करना होगा। ये औजार अब उसकी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा होंगे। औजारों से कटकर जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है। बिना किसी परिभाषा के धर्मवीर इस सत्य से परिचित है।
    
अक्सर ही मालिकों की लूट, उनका वैभवपूर्ण जीवन, अधिकारियों की ऊंची तनख्वाह के प्रति धर्मवीर मजदूरों से चर्चा करता, सुपरवाइजरों के अन्यायपूर्ण व्यवहार से दुखी होता। कभी ब्राह्मणों के बनाए नियमों को कोसता तो कभी मायावती की वकालत करता। अपनी गरीबी को कम करने की अलग से जुगत लगाता। कभी किसी मजदूर का पी एफ निकालता और इसका दाम मजदूरों से लेता। इन सबके बीच जिंदगी की मुफलिसी, अभाव से दुखी रहने वाला धर्मवीर आज खुश है। खुद के द्वारा इस्तेमाल होने वाली मशीनों से, औजारों से अक्सर मजदूरों को प्रेम हो जाता है, अक्सर मजदूर उन्हें औजार नहीं रोजी कहते हैं। धर्मवीर के मन में होने वाली खुशी उसी रोजी के प्रति प्रेम और सम्मान का कारण है।
    
मुख्य पूजा स्थल पर सुगंधित धूप जल रही है, पूरे पूजा स्थल पर सुगंधित धुआं घुला हुआ है। फैक्टरी मालिक के बगल में पंडित जी अपनी पारंपरिक परिधान में बैठ आरती गा रहे हैं। आज न कोई मालिक है, न मजदूर, न सुपरवाइजर, मैनेजर। इस वक्त मंडली में सब बराबर हैं। मालिक के बगल में बैठना किसी बड़े सौभाग्य से कम नहीं है। सभी खुद को सौभाग्यशाली समझ रहे हैं। साल भर की थकान, रोजमर्रा का अपमान, असमानता, क्रोध, अभाव इस धुंए की धुंध में उड़ जाता है। ईश्वर की बनाई दुनिया में, भगवान विश्वकर्मा के आगे आज सब एक समान हैं। अंत में पंडित जी जोर से जयकारा लगाते हैं बोलो भगवान विश्वकर्मा भगवान की... सभी नर नारियां वाक्य पूरा करती हैं...जय। जिस जयकारे में धर्मवीर का स्वर अलग से सुनाई देता है।               -एक पाठक
 

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